राकेश कुमार अग्रवाल
फतवों की जब भी बात की जाती है तो सहज ही दिमाग में मुस्लिम धर्मगुरुओं दिए गए धर्मादेश को फतवा के रूप में हम सभी जानते आए हैं . धर्म एक व्यक्तिगत या श्रद्धागत मामला होता है ऐसा हम सभी ने सुना व पढा है लेकिन जब से इन फतवों को मीडिया ने नोटिस करना शुरु किया और टीवी चैनलों ने मौलानाओं व धर्मगुरुओं के साथ गरमागरम डिबेट शुरु की तब से हर कोई फतवे के बारे में जानना सीख गया .
फतवा थोडा कठोर सा शब्द लगता है . दरअसल ये एक अरबी शब्द है . इस्लाम के हिसाब से किसी मसले पर कुरान या हदीस की रोशनी में मुफ्ती जो हुक्म या राय जारी करता है वह फतवा कहलाता है . इसे आप सरल व सहज भाषा में आचार संहिता भी कह या मान सकते हैं . जिसे आमतौर पर संस्थान का मुखिया जारी करता है . इसे लोकतांत्रिक भाषा में आप पार्टी व्हिप भी कह सकते हैं जिसे उस पार्टी के लोगों को बिना किसी नानुकर के मानना ही होता है . मानने के लिए तात्कालिक तर्क भी गढ लिए जाते हैं . ताकि उस फतवे की पैरवी की जा सके .
जब मैं छोटा था तब मुझे अच्छी तरह से याद है कि जब मेरी अम्मा का अपनी देवरानी से झगडा होता था तो अम्मा हम भाई बहनों को धमकाते हुए फतवा जारी कर देतीं थीं कि खबरदार जो तुम लोगों में से कोई भी चाची के घर गया . हम सभी भाई बहन डरे सहमे घर में ही कैद हो जाते थे . लेकिन पिटाई के डर से कभी भी फतवे के हुक्मउदूली करने की हिम्मत नहीं जुटा सके .
मैं तो सोच सोच कर परेशान हूं कि फतवा जारी करने का हक क्या केवल धर्मगुरुओं को होना चाहिए . हमारे राजनेता सर्वशक्तिमान होते हैं जनता का जनादेश और पार्टी कार्यकर्ताओं का अंध समर्थन व अंध भरोसा उनके पास होता है तो भला वे पाॅलिटिकल फतवा क्यों जारी नहीं कर सकते . धार्मिक फतवों में तो अकसर विवाद हो जाते हैं क्योंकि कोई बरेलवी मसलक को मानता है तो कोई देवबंदवी को . शिया – सुन्नी का विवाद रहता ही है . यही हाल हिंदुओं में अलग अलग अखाडों का है . जिनकी हमेशा आपस में तनातनी बनी रहती है . हम सब बचपन से पढते व सुनते आए हैं कि ईश्वर एक है इसके बावजूद कितने सारे धर्म हैं उसी तरह सत्ता एक है और राजनीतिक दल अनेक हैं. यदि हमें दूसरी पार्टी का फतवा मानना होता तो हम उसी पार्टी को ज्वाइन न कर लें क्यों खुद की पार्टी बनाएं .
इसलिए यदि हमारे अखिलेश भैया ने पाॅलिटिकल फतवा देकर कि हम भाजपा की वैक्सीन नहीं लगवाएंगे क्या गलत किया है ? हम अपनी पार्टी के नेता हैं . हमारे कार्यकर्ता मोदी , अमित शाह की बात भला क्यों सुनें और उनका फतवा हमारी पार्टी के नेता , कार्यकर्ता क्यों मानें . और फिर भाजपा से हमारा गठबंधन भी नहीं है . गठबंधन होता है तो बिना कहे फतवा जारी हो जाता है . चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी खडा न होने पर भी कार्यकर्ता गठबंधन की पार्टी को जिताने के लिए प्राणपण से जुट जाते हैं .
हमारा सवाल है कि टीपू भैया ने क्या गलत किया है . क्या शिवसेना ने पाकिस्तान की क्रिक्रेट टीम से वानखेडे स्टेडियम में होने वाले मैच को लेकर फतवा जारी नहीं किया था . उन्होंने तो पाकिस्तान से मैच न होने पाए इसलिए वानखेडे की पिच तक खोद डाली थी . हमने तो केवल भाजपाई वैक्सीन का विरोध किया है . फतवा तो योग दिवस पर सूर्य नमस्कार न करने को लेकर जारी हो चुका है . फतवा तो वंदेमातरम न गाने को लेकर भी जारी हो गया था .
मुझे तो फतवा सरकारी भाषा में कहूं तो शासनादेश की तरह लगता है . फर्क बस इतना है कि सरकारी फतवे का पालन न करने पर तालिबानी सजा नहीं मिलती . जबकि धार्मिक व जातियों के फतवे का पालन न करने पर तालिबानी सजा मिल सकती है . जिस तरह से खाप पंचायतों का खौफ होता था . खाप पंचायत का फैसला फतवे की तरह होता था जिसे न मानने की सजा मौत भी हो सकती थी . युवा दिलों को प्यार के मामले अकसर तालिबबानी सजा भुगतनी पडी है . इतिहास गवाह है कि मजनू को पत्थरों से मारा गया तो जिल्लेइलाही अकबर ने अपने लगतेजिगर सलीम की अनारकली को दीवार में चुनवा दिया था . वो तो भला हो न्यायालयों का जिनके चलते अब दो युवा जोडों का प्यार परवान चढने लगा है . नहीं तो वेलेंटाइन डे पर पार्कों पर बैठने वाले जोडों को मुर्गा बनाने से लेकर भाई बहन बनाने तक कुछ भी हो सकता है . बेरोजगारी के इस दौर निठल्ले युवाओं की टीम फतवे का अक्षरश: अनुपालन कराने में लग जाती है . इसी सेवा से आगे चलकर वो राजनीति की सीढियां चढते हैं .
टीपू भैया की वेदना को भी समझने की जरूरत है कहीं वैक्सीन के बहाने भाजपा दूसरी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अपनी ओर खींचने में सफल हो गई तो अन्य पार्टियों का क्या होगा . कोरोना से बचना है लेकिन पार्टी को भी तो बचाना है .