राकेश कुमार अग्रवाल
राजनीति में तेजी से आगे बढने के बाद उस बढत को बनाए रखना तो दूर बढत के कुछ समय बाद आने वाली गिरावट को थामना बडा मुश्किल होता है . कमोवेश कांग्रेस और बसपा दोनों पार्टियाँ इन दिनों इसी तरह के हालात से जूझ रही हैं . उत्तर प्रदेश में बसपा ने जिस तरह से अपने पैर जमाए थे एवं लगातार अपने जीत के ग्राफ को आगे बढाते हुए सत्ता के गलियारों तक पहुंचाया था उसी बसपा को अब अपना वजूद बचाना भारी पड रहा है . हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा उपचुनावों के परिणाम बसपा के खेमे में उत्साह का संचार करने में नाकाम रहे .
उ. प्र. में राज्यसभा की 10 सीटों के चुनाव के लिए भाजपा ने अपने आठ उम्मीदवारों की घोषणा कर बसपा उम्मीदवार रामजी गौतम के लिए जीत की राह आसान कर दी थी . लेकिन सपा समर्थित प्रकाश बजाज के 11 वें उम्मीदवार के रूप में आने के बाद बसपा के रामजी गौतम की जीत के मंसूबों पर पानी फिरने के आसार बन गए थे . बसपा के किए कराए पर रार तब और बढ गई जब रामजी गौतम की उम्मीदवारी का समर्थन कर रहे चार बसपा विधायकों ने रिटर्निंग आफीसर से अपना नाम वापस लेने की मांग की . हद तो तब हो गई जब ये चारों विधायक तीन अन्य विधायकों के साथ सपा मुखिया अखिलेश यादव से मिलने जा पहुंचे . बाद में बसपा प्रमुख मायावती ने सातों विधायकों को पार्टी से निलम्बित कर दिया . बसपा के लिए गनीमत की बात यह रही कि सपा समर्थित प्रकाश बजाज का नामांकन खारिज हो गया था जिससे बसपा के रामजी गौतम का निर्विरोध निर्वाचन हो गया था . राज्यसभा चुनावों में लगे जख्म को बसपा सहला ही रही थी कि विधानसभा उपचुनावों का परिणाम आ गया . उ.प्र . की सात सीटों के लिए हुए उपचुनावों में बसपा एक भी सीट निकालने में कामयाब न हो सकी . केवल बुलंदशहर की सदर सीट पर बसपा दूसरे स्थान पर रही अन्यथा वह किसी भी अन्य सीट पर मुख्य मुकाबले में नहीं रही . चार सीटों पर बसपा तीसरे स्थान पर रही जबकि दो सीटों पर पार्टी को चौथे स्थान से संतोष करना पडा .
उ. प्र . बसपा की राजनीतिक प्रयोगशाला है . अन्य राज्यों में बसपा अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करती है जबकि सत्ता का स्वाद पार्टी को उत्तर प्रदेश ने चखाया था . काशीराम के मिशन मोड प्रयासों से पार्टी ने 1985 से यूपी में अपनी जडें जमाना शुरु की थीं . 1989 के चुनावों में पार्टी ने 13 सीटें हासिल कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी थी . लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने दो सीट हासिल की थीं . इस तरह से प्रदेश में नई पार्टी बसपा का उभार शुरु हो गया था . दलित और मुस्लिम वोट बैंक को आधार बनाकर बसपा ने 1993 के चुनाव में 11 प्रतिशत वोटों के साथ 67 सीटों पर जीत हासिल की थी . और 1995 जून में वह दिन भी आया जो एक राजनीतिक पार्टी और राजनीतिक दल का सपना होता है . बसपा ने भाजपा और अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई . और मायावती मुख्यमंत्री बनीं . हालांकि वह महज चार माह मुख्यमंत्री रह पाईं . 1996 के चुनावों में पार्टी के मत प्रतिशत में तो साढे आठ प्रतिशत का उछाल आया लेकिन सीटों की संख्या 67 से घटकर 63 आ गई थी . 1997 में मायावती को दोबारा मुख्यमंत्री पद संभालने का मौका मिला . वह दूसरे कार्यकाल में 6 माह मुख्यमंत्री रहीं . 2002 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने 23 फीसदी मतों के साथ 98 सीटें हासिल कीं . एक बार फिर उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में तीसरी राजनीतिक पारी खेलने का मौका मिला . इस बार वे एक वर्ष 118 दिन मुख्यमंत्री रहीं . तीन बार मुख्यमंत्री बनने का फायदा उन्हें ये मिला कि उन्होंने पूरे प्रदेश में अपना संगठन खडा कर लिया . राजनीतिक समीकरण साधे . दलितों के अलावा अन्य जाति , धर्म , वर्ग को भी अपने साथ जोडने की कवायद शुरु की . 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने इतिहास रचते हुए 30.43 प्रतिशत वोटों के साथ 206 सीटें जीतकर निष्कंटक रूप से पांच साल सरकार चलाने का बहुमत हासिल कर लिया . लेकिन बहन जी पार्टी की स्थापना से जुडे तमाम सहयोगियों को साथ जोडकर नहीं रख पाईं यही कारण है कि पार्टी से बडी संख्या में दिग्गज नेताओं की रह रहकर विदाई होती गई . और पार्टी की सीटों की संख्या में भी गिरावट शुरु हो गई 2012 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने 126 सीटें गवांईं . 2017 में पार्टी दयनीय स्थिति में पहुंच गई जब वह महज 19 सीटें जीत सकी . जबकि उसे मिले मतों का प्रतिशत 22.23 था . 19 सीटों से 202 सीटों का आँकडा छूना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा . अकेले दम पर गठबंधन के बिना पार्टी के लिए इतने बडे लक्ष्य को हासिल करना दिवास्वप्न से कम नहीं है. बहनजी सपा को हराने के लिए भाजपा के समर्थन की बात कर चुकी हैं लेकिन मुस्लिम मतों के हाथ से छिटकने का खतरा भांप मायावती ने अपने बयान से पलटी खाते हुए भाजपा से समझौता करने के बजाए राजनीति से सन्यास लेने को बेहतर बताया था . अब जबकि 2022 की तैयारियों को सभी पार्टी अंतिम रूप देने में जुट गई हैं ऐसे में बसपा के लिए गायब हो रहे उसके जादू को फिर से जगाने की चुनौती मुंह बाये खडी है . और 2022 में यह घमासान इतना आसान भी होने वाला नहीं है .