ध्रुवीकरण की राजनीति में चुनावों से गायब होते मुद्दे

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राकेश कुमार अग्रवाल
चार राज्यों एवं एक केन्द्र शासित प्रदेश के चुनावों की रणभेरी बज चुकी है . चुनावी घमासान नित नई करवट लेता जा रहा है . यूं तो चुनाव पांच राज्यों में हो रहा है . लेकिन इन पांचों राज्यों में से मीडिया का पूरा फोकस पश्चिमी बंगाल के चुनाव पर है .
लोकतंत्र में सत्ता की चाबी राजनीतिक दलों के पास होती है . राजनीतिक दलों की संख्या का कोई मानक नहीं है . सभी राजनीतिक दल अपनी नीतियों अपने कार्यक्रमों के सहारे जनमानस को रिझाते हैं . यह मतदाता तय करते हैं कि उनके और उनके क्षेत्र के विकास के लिए तमाम राजनीतिक दलों में से सबसे बेहतर कौन है . सत्ता पक्ष हो या विपक्ष या फिर निर्दलीय प्रत्याशी सभी इन चुनावों में किस्मत आजमाते हैं . बहुमत हासिल करने के लिए सभी पार्टियां जनता के बीच में जाती हैं और क्षेत्र की समस्याओं के आधार पर अपना एजेंडा घोषित करती हैं . जनता के मुद्दों को उठाती हैं एवं उन्हीं मुद्दों पर चुनाव को फोकस करती हैं .
देश को आजाद कराने में कांग्रेस की अहम भूमिका रही है . यही कारण है कि आजादी के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस का बोलबाला रहा है . नेहरू युग के बाद देश की राजनीति में इंदिरा युग आया . विकास की जगह गरीबी हटाओ ने ले ली . यह नारा जमकर चला . क्योंकि तब भी ज्यादातर हिंदुस्तान गरीब ही था . लेकिन आपातकाल के बाद देश की राजनीति ही बदल गई . विपक्ष को एक जुट होने का मौका मिला . कांग्रेस के एकाधिकार को पहली बार सशक्त विपक्ष की चुनौती मिली . आपातकाल थोपने का परिणाम यह हुआ कि इमरजेंसी थोपना पूरे देश में सबसे बडा चुनावी मुद्दा बना . और इस तरह कांग्रेस का पहली बार पराभव हुआ . इसके बाद तमाम पार्टियों का अभ्युदय हुआ . लेकिन सत्ता कांग्रेस के इर्द गिर्द ही घूमती रही . बीते तीन चार दशक में क्षेत्रीय दलों के उभरने व स्थानीय मुद्दों पर राजनीति सिमटती गई . इसी दौर में आरक्षण व अयोध्या के राम मंदिर का मुद्दा धीरे धीरे राजनीति के केन्द्र में आता गया . देखते ही देखते देश में चुनावी मुद्दों में काफी बदलाव आ गया है . भले चुनाव पांच राज्यों में हो रहा है लेकिन मीडिया का पूरा फोकस बंगाल और असम के चुनावों पर है जहां पर चुनाव ध्रुवीकरण की राजनीति की प्रयोगशाला बन गया है . चुनाव केरल , तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में भी हो रहा है लेकिन इन राज्यों में ध्रुवीकरण के हालात वैसे नहीं हैं जैसे पश्चिमी बंगाल और असम में है .
वोटों को लेकर वर्ग या धर्म विशेष के मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिशें पहले के चुनावों में भी होती आई हैं . लेकिन जब से भाजपा ने राजनीति में ध्रुवीकरण का कार्ड खेला देश की राजनीति की दिशा ही बदल गई . भाजपा को इस ध्रुवीकरण की राजनीति के परिणाम भी मिले . दो सांसदों वाली पार्टी अब देश की सत्ता संभाल रही है . और तमाम राज्यों में पार्टी की सरकार है . पार्टी की इसी रणनीति का कमाल है कि वह उन राज्यों में भी पैठ जमाती जा रही है जहां पर एक दो दशक पहले पार्टी के लिए चुनावी संभावनायें दूर दूर तक नजर नहीं आती थीं . कम्युनिस्ट राजनीति के गढ रहे बंगाल में दो दशक पहले तक यह सोचना भी नागवार था कि इस राज्य की राजनीति भी राम , दुर्गा जैसे धर्म गत मुद्दों पर सिमट कर रह जाएगी . सर्वहारा व मजदूरों की राजनीति का केन्द्र रहे इस राज्य में कुछ समय पूर्व तक भूमि के बंटवारे से लेकर नक्सलवाद जैसे मुद्दों ने राज्य की राजनीति को धार दी थी . लेकिन वर्तमान में बंगाल में चाहे भाजपा हो या तृणमूल कांग्रेस या फिर वामपंथी दल और कांग्रेस गठबंधन भी इन दलों से पीछे नहीं है . कांग्रेस – वामपंथी दलों के गठबंधन ने इंडियन सेक्युलर फ्रंट ( आईएसएफ ) को अपने खेमे में लाकर राज्य के उस तीस फीसदी मुस्लिम मतदाता पर डोरे डालने का काम किया है . क्योंकि इंडियन सेक्युलर फ्रंट के प्रमुख फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी बंगाल की तमाम मस्जिदों के मुखिया हैं . कांग्रेस और वाम दल यह मानकर चल रहे हैं पीरजादा अब्बास सिद्दीकी जहां चाहेंगे वहां मुस्लिम मतदाति वोट करेंगे . जबकि तृणमूल कांग्रेस बीते दो चुनावों में मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत कर चुकी हैं . अन्य राजनीतिक दल जहां मुस्लिम मतों को लेकर व्याकुल हैं वहीं भाजपा की कोशिश है कि वह हिंदू मतों को अपने पक्ष में मोड सके . चौंकाने वाली बात यह है कि ध्रुवीकरण की यह राजनीति राज्य में चरम पर है और हमाम में सभी दल इस राजनीति में डुबकियां लगा रहे हैं . जिस कारण प्रमुख चुनावी मुद्दे परिदृश्य से गायब हो गए हैं .
ध्रुवीकरण की यह चुनावी राजनीति जिस तरह बढती जा रही है इसके फिलहाल और भी ज्यादा विस्तार लेने के आसार नजर आ रहे हैं . जब तक जाति और धर्म के नाम पर चुनाव राजनीति उलझी रहेगी तब तक यही सबसे बडा मुद्दा रहेगा . मजे की बात यह भी है कि चुनावी घोषणा पत्रों में धर्म और जाति के मुद्दे सिरे से गायब होते हैं . बंगाल का ऊँट किस करवट बैठेगा फिलहाल सभी की निगाहें बंगालियों पर टिकी हैं .

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