आसान न होगा इस बार अखिलेश के लिए ….

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राकेश कुमार अग्रवाल
अब जबकि पांच राज्यों के चुनावों के साथ यूपी में भी राजनीतिक तापमान तेजी से बढने लगा है . उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के लिए महज 11 माह का वक्त शेष रह गया है . प्रदेश में चुनावी बिसात बिछने लगी है . सभी राजनीतिक दलों में सक्रियता के साथ साथ बेचैनी भी बढती जा रही है . एक तरफ मुख्यमंत्री योगी जहां एक्शन मोड में हैं वहीं सपा के मुखिया अखिलेश यादव भी साईकिल लेकर प्रदेश के दौरे पर पार्टी पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने एवं नए लोगों को पार्टी से जोडने की मुहिम पर निकल पडे हैं .
पूरे प्रदेश में आम आदमी पार्टी की सक्रियता व एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी की इंट्री ने भी अन्य पार्टियों में खलबली मचा दी है .
भाजपा के हाथों 2017 के चुनावों में सत्ता गंवाने के बाद अखिलेश यादव के समक्ष फिर से 2012 के चुनाव परिणामों को दोहराने का दबाव है . यही कारण है कि अखिलेश यादव जनता की नब्ज टटोलने के साथ ही समीकरणों को साधने के लिए प्रदेश के दौरों पर निकले हुए हैं . समाजवादी पार्टी विशेषकर अखिलेश के लिए यह चुनाव अब तक का सबसे चुनौतीपूर्ण संग्राम होने जा रहा है . मुलायम सिंह यादव लम्बे अरसे से अस्वस्थ चल रहे हैं जिस कारण उनकी राजनीतिक सक्रियता न के बराबर है . चाचा शिवपाल यादव पार्टी से अलग हैं ऐसे में उनका साथ भी अखिलेश को नहीं मिल पाना है . वरिष्ठ सपा नेता एवं पार्टी का बडा मुस्लिम चेहरा एवं प्रखर वक्ता आजम खान एक साल से जेल में बंद हैं . ऐसे में अखिलेश के समक्ष कई चुनौतियां मुंह बाए खडी हैं . प्रदेश में एक और सवाल पर माथापच्ची जोरों पर है कि कि इस बार सपा , बसपा और कांग्रेस पार्टियों में गठबंधन की क्या संभावना है ? यदि इन पार्टियों में आपस में कोई कारगर गठजोड न बना तो सत्तारूढ भाजपा के पास बेफिक्री के तमाम कारण है .
2007 के चुनावों में सपा जहां दो अंकों में सिमट गई थी . पार्टी को करीब एक चौथाई अर्थात 97 सीटें मिलीं थीं . लेकिन 2012 के चुनावों में पार्टी ने 224 सीटें जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया था . तब पूरा समाजवादी कुनबा एकजुट था . तबसे 9 साल का वक्त बीत चुका है . सपा पार्टी में भी बडा बदलाव आ चुका है . पार्टी में सभी फैसले स्वयं अखिलेश यादव ले रहे हैं . अखिलेश ने पार्टी में तमाम पुराने चेहरों को साइड लाइन कर रखा है . गत विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के राहुल गांधी के साथ गठजोड का उनका फैसला कारगर नहीं रहा था . गठबंधन के बावजूद दोनों पार्टियां मिलाकर महज 55 सीटें जीत पाई थीं . ऐसे में बडा सवाल यही है कि सपा इस बार अपने दम पर चुनाव लडेगी या फिर फिर से नया गठबंधन आकार लेगा . योगी सरकार अपने काम को अपनी यूएसपी मानकर चल रही है . राम मंदिर निर्माण , अयोध्या को धर्मनगरी के रूप में विकसित करना उसके पास ऐसी पैनी धार वाले मुद्दे हैं जिससे आम जनमानस को पार्टी के पक्ष में मोडने में बीजेपी जोर लगा देगी . हालांकि मंदिर निर्माण में कम से कम तीन साल का वक्त लगेगा . अभी नींव का ही काम चल रहा है . जबकि विधानसभा चुनावों में एक साल से कम का वक्त रह गया है . माफियाओं के बंगलों व हवेलियों पर चल रहा बुलडोजर प्रदेश में कानून का राज स्थापित करने जैसे दर्जनों काम भाजपा के पास गिनाने के लिए हैं .
हालांकि अखिलेश यादव भाजपा पर हमलावर होने का कोई मौका नहीं चूकते . सोशल साइट ट्विटर पर प्रदेश के सबसे सक्रिय नेताओं में उनका शुमार होता है . वह भाजपा पर तंज कसने का कोई मौका नहीं चूकते हैं . ‘ भाजपा के चार साल पूरे , लेकिन सारे काम अधूरे ‘ उनका ऐसा ही तंज है .
दिल्ली और पंजाब में राजनीतिक जडें जमाने वाली आम आदमी पार्टी की नजर अब यूपी पर है . विधानसभा चुनावों के ठीक पहले होने जा रहे पंचायत चुनावों में भी पार्टी किस्मत आजमाने जा रही है . एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी प्रदेश में पार्टी को चुनाव लडाने की पहले ही घोषणा कर चुके हैं . बसपा मुखिया मायावती ने अपने दम पर यूपी व उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव लडने की घोषणा कर रखी है . हालांकि राजनीति में पहले दिए गए बयान पत्थर की लकीर नहीं होते हैं . ऐसे बयान सौदेबाजी व मोलभाव के भी बडे काम आते हैं . यदि प्रदेश में कारगर गठबंधन न हुआ तो भाजपा के विजय रथ को रोकना अन्य पार्टियों के लिए आसान भी नहीं होगा . जबकि प्रदेश में पार्टियों की संख्या लगातार बढती जा रही है . एआईएमआईएम के यूपी के दंगल में ताल ठोकने से मुस्लिम मतों में सेंध लगना स्वभाविक है . जिस पर सपा अपना एकाधिकार मान कर चलती है . प्रदेश में एआईएमआईएम यदि वोट बटोरती है तो इसका प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष लाभ भाजपा को मिलेगा .
यूपी में पंचायत चुनावों की रणभेरी बजने वाली है . इसके बाद का पूरा साल यूपी की गुणा भाग में उलझने वाला है . अखिलेश यादव के लिए यह साल उनकी राजनीतिक चतुराई की कसौटी बनने वाला है .

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