क्या कांग्रेस का यह अवसान काल है?

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राकेश कुमार अग्रवाल
बिहार विधानसभा चुनाव हों या फिर 11 राज्यों की 58 सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणाम यदि किसी पार्टी के लिए सबसे निराशाजनक रहे हैं तो वह पार्टी है कांग्रेस पार्टी . सबसे बडी बात यह है कि गुजरात , यूपी , एम पी , बिहार सभी जगह पार्टी का प्रदर्शन दयनीय रहा है . ऐसे में राजनीतिक पंडितों के मध्य यह सवाल बहस का विषय बन गया है कि क्या यह कांग्रेस का अवसान है . या मतदाताओं का कांग्रेस से होता मोह भंग या फिर राहुल गांधी के नेतृत्व को मतदाताओं की अस्वीकृति .
यह सही है कि उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति काॅस्ट पालिटिक्स का शिकार हो गई है . इन दोनों राज्यों में पार्टियों की संख्या भी ज्यादा है एवं सभी क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस से बेहतर स्थिति में हैं . लेकिन मध्य प्रदेश और गुजरात में तो प्रमुख रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच में ही चुनावी मुकाबला होता है . फिर भी कांग्रेस सत्तासुख को तरस रही है .
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने राजद से अपनी शर्तों पर गठबंधन किया . और 2015 के 41 प्रत्याशियों के मुकाबले इस बार 70 सीटों पर प्रत्याशी भी उतारे . लेकिन पार्टी के महज 19 प्रत्याशी चुनाव जीत सके . पार्टी को महज 9.48 फीसदी मतों से संतोष करना पडा . जबकि 2015 में पार्टी ने 41 में से 27 सीटों पर विजय हासिल की थी . इस तरह से देखा जाए तो बिहार में कांग्रेस चौथे स्थान पर रही . 30 साल से कांग्रेस बिहार में राजनीतिक वनवास झेल रही है . जगन्नाथ मिश्रा पार्टी के अंतिम मुख्यमंत्री थे . 10 मार्च 1990 के बाद से पार्टी बिहार की सत्ता की लडाई से ऐसी बाहर हुई कि 30 वर्ष बाद भी उसका पुनर्वास न हो सका . वहां पर वामपंथी दलों एवं एआईएमआईएम का जिस तरह से उभार हुआ है वह भी कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह है .
उत्तर प्रदेश जो राहुल और सोनिया का अपना प्रदेश है यहां की सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में घाटमपुर और उन्नाव सीटों पर कांग्रेस अपने प्रदर्शन पर संतोष कर सकती है क्योंकि इन दोनों सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही . अन्यथा देवरिया , मल्हनी व फिरोजाबाद की टूंडला सीट पर पार्टी टाॅप फोर में भी जगह नहीं बना पाई . उत्तर प्रदेश में तो पार्टी की स्थिति और भी खराब है . यूपी में आखिरी कांग्रेसी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे जो 1989 दिसम्बर में सत्ता से बाहर हो गए थे . तबसे यूपी की बागडोर सपा के मुलायम सिंह यादव , अखिलेश यादव , बसपा की मायावती , व भाजपा के कल्याण सिंह , रामप्रकाश गुप्ता , राजनाथ सिंह व अब योगी आदित्यनाथ के हाथ में है . कांग्रेस ने यूपी में बीते तीन दशकों में पार्टी को अपने पैरों पर खडा करने के लिए प्रदेश की कमान नए नए चेहरों को सौंपकर ढेरों प्रयोग किए हैं लेकिन काॅस्ट और मंदिर – मस्जिद की पाॅलिटिक्स में कांग्रेस सत्ता की लडाई में कोसों दूर हो गई . पार्टी ने बीते तीन दशकों में प्रदेश की कमान महावीर प्रसाद , बलराम यादव , एन डी तिवारी , जितेन्द्र प्रसाद , सलमान खुर्शीद , श्रीप्रकाश जायसवाल , अरुण कुमार सिंह मुन्ना , जगदम्बिका पाल , सलमान खुर्शीद , रीता बहुगुणा जोशी , निर्मल खत्री व राजबब्बर से लेकर अजय कुमार लल्लू तक ढेरों चेहरे बदले लेकिन प्रदेश में कांग्रेस के दिन नहीं बहुर सके . आगामी चुनाव तक कांग्रेस को एक और दल से जूझना पडेगा . यूपी में आम आदमी पार्टी जिस तरह से अपना विस्तार कर रही है हो सकता है कि आगामी चुनावों में वह भी प्रदेश में दमदारी से ताल ठोके . फिलहाल यूपी में भी कांग्रेस के उभार के दूर दूर तक आसार नजर नहीं आ रहे हैं .
गुजरात उपचुनाव में भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा . वहां भी पार्टी एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई . जबकि यहां कांग्रेस सत्तारूढ भाजपा से सीधे मुकाबले में थी . गुजरात में भी कांग्रेस 25 सालों से सत्ता से बाहर है . ऐसे में गुजरात में पार्टी का यह प्रदर्शन उसकी तैयारी व मनोबल को दर्शाता है . जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है पार्टी का शीर्ष नेतृत्व यदि राजनीतिक सूझ बूझ से काम लेता तो हो सकता है कि पार्टी को हाथ में आई सत्ता से विमुख न होना पडता . 2003 के बाद 15 सालों तक सत्ता से दूर रहने के बाद कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की थी . वापसी का बडा कारण कमलनाथ , दिग्विजय व ज्योतिरादित्य सिंधिया का टीम वर्क के रूप में चुनाव मैदान में उतरना था . लेकिन गद्दी की लडाई में पार्टी अपनों से ही हार गई . और 15 सालों बाद हाथ में आई सत्ता को पार्टी को डेढ साल में गंवाना पड गया . एक तरफ युवा राहुल गांधी को कांग्रेस ने पार्टी की बागडोर थमाने में संकोच नहीं किया तो फिर राज्यों में युवाओं को यदि मौका मिला होता तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में नेतृत्व के खिलाफ बगावत न हुई होती . सभी बडे राज्यों में पार्टी सत्ता से बाहर होती जा रही है . अगले साल पश्चिमी बंगाल में चुनाव होने वाले हैं वहां भी पार्टी बेहतर स्थिति में नहीं है . आज के लोकतांत्रिक ढांचे में उसी पार्टी से नेता व कार्यकर्ता जुडे रहते हैं जिसके सत्ता में पहुंचने के आसार होते हैं . फिर भी कांग्रेस नेतृत्व यह नहीं समझ पा रहा है कि पार्टी को प्रमुख राज्यों में कैसे खडा किया जाए ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहे और पार्टी से जुडाव भी . सोनिया गांधी की पार्टी से सक्रियता कम होती जा रही है. राहुल करिश्मा करने में नाकामयाब रहे हैं . प्रियंका गांधी भी अभी तक प्रदेश में अपनी छाप छोडने में असफल रही हैं ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष पार्टी के वजूद को बचाने की तगडी चुनौती मुंह बाये खडी है .

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