जो हारता नहीं … वही पाता है मुकाम

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राकेश कुमार अग्रवाल
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति थियोडोर रुजवेल्ट ने कहा था कि ” इतिहास में कभी भी आसानी से जीवन जीने वाले किसी आदमी ने याद करने लायक नाम या काम नहीं छोडा .”
जी हाँ ! हम बात कर रहे हैं विकट हालात में जीवटता की मिसाल बनी अरुणिमा सिन्हा की . उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर के शहजादपुर इलाके के पंडाटोला में 1988 में जन्मी अरुणिमा वाॅलीबाल की नेशनल प्लेयर थी . 12 अप्रैल 2011 को लखनऊ से दिल्ली जाते समय अरुणिमा को पदमावत एक्सप्रेस में सवार कुछ गुंडों ने लूटपाट के बाद उसे ट्रेन से बाहर फेंक दिया था . अरुणिमा सारी रात रेलवे ट्रैक पर पडी रही . सुबह स्थानीय नागरिकों ने उसे अस्पताल पहुंचाया . जब अरुणिमा की पहचान नेशनल वाॅलीबाल प्लेयर के रूप में हुई और मीडिया ने घटना को प्रमुखता से उठाया तो अरुणिमा को वहां बेहतर उपचार के लिए दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ( एम्स ) में भेजा गया . अरुणिमा के बुरी तरह जख्मी पैर को एम्स में डाक्टरों ने काटने का फैसला लिया . क्योंकि इन्फैक्शन फैलने का खतरा पैदा हो गया था . फुटबाॅल और वाॅलीबाल जैसे खेलों में जो पैर खिलाडी की सबसे बडी पूँजी होेते हैं एवं जिन पैरों से अरुणिमा ने नेशनल लेवल तक का सफर तय किया था उसी पैर को खोने का मतलब था कि अरुणिमा का कैरियर खत्म . दर्द -पीडा , तडप अपनी जगह जिसके चलते इंसान की जान निकलती है . उसे ऐसे हालात में लगता है कि सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया . ऐसे में अब जीकर क्या करेंगे ? तमाम पीडित तो मरने की दुआ माँगने लगते हैं . लेकिन अरुणिमा के दिमाग में तो कुछ और ही पक रहा था क्योंकि उसका दिल और दिमाग बार बार कह रहा था कि यदि कुदरत को उसे मारना होता तो ट्रेन से फेंके जाने के बाद वह जिंदा न बचती . उसके दिमाग में बार बार आ रहा था कि ईश्वर ने उसे जानबूझकर बचाया है . इसके पीछे ऊपर वाले का कोई प्रयोजन जरूर है . अरुणिमा यह भी जानती थी कि –

जो किनारे से करते हैं तूफाँ का नजारा
उनके लिए तूफाँ यहां भी है और वहाँ भी
जो सागर में मिल के बन जाते हैं धारा
उनके लिए जहाँ यहां भी है और वहाँ भी

अरुणिमा ने अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद घर जाने के बजाए प्रथम भारतीय एवरेस्ट विजेता महिला बछेन्द्री पाल से मिलने उनके पास जमशेदपुर जा पहुंची . बछेन्द्री ने अरुणिमा को आठ महीने लेह लद्दाख व नेपाल कडाके की ठंड में पर्वतारोहण का कडा प्रशिक्षण दिया .
दो साल बाद 21 मई 2013 को वह दिन भी आया जब जमाने की नजर में लाचार , बेबस व विकलाँग अरुणिमा ने इतिहास रचते हुए देश की पहली विकलांग महिला बनने का रिकार्ड अपने नाम करते हुए एवरेस्ट पर फतह हासिल की .
अरुणिमा जब एवरेस्ट चढ रही थी तब अंत की सौ मीटर की चढाई के दौरान अरुणिमा का आक्सीजन सिलिंडर खत्म होने वाला था . अन्य पर्वतारोहियों ने अरुणिमा को वापस लौट जाने की सलाह दी थी लेकिन हौसलों की धनी अरुणिमा का साथ किस्मत ने दिया . ब्रिटिश पर्वतारोही ने मौसम खराब होने की वजह से अपना एक आक्सीजन सिलिंडर अरुणिमा को दे दिया और वापस नीचे लौट आया . अरुणिमा जब नीचे उतर रहीं थी तब उसका आक्सीजन सिलिंडर पूरी तरह खाली हो गया था . उसका कृत्रिम पैर भी खराब हो गया था . लेकिन तब तक अरुणिमा इतिहास रच चुकी थी .
हालातों से हार न मानने वाली अरुणिमा ने दुनिया को बताया कि इंसान शरीर से नहीं दिमाग से विकलांग होता है . अरुणिमा एवरेस्ट के अलावा दुनिया की दूसरी सबसे ऊँची चार पर्वत चोटियों को फतह कर चुकी हैं .
केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल में हैड कांस्टेबल के पद पर तैनात अरुणिमा को उनके इस साहसिक , रोमांचक , हैरतअंगेज व जीवट भरे कारनामे पर भारत सरकार ने उन्हें देश के प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान पद्म श्री से नवाजा .
अरुणिमा जैसे जीवट वाले लोगों के लिए ही कहा गया है कि –

मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं
जिनके सपनों में जान होती है
पंखों से कुछ नहीं होता
हौसलों से उडान होती है .
इसलिए बहाना बनाना छोडिए और जीवटता के साथ अपने लक्ष्य के प्रति डट जाइए तभी आप कुछ ऐसा छोडकर जाएँगे जिन्हें आपके जाने के बाद भी पीढियां याद करेंगीं .

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