वाराणसी में जलजमाव

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मंदिर ही नहीं बल्कि कभी झील और तालाब का भी शहर था काशी

रिपोर्ट – सुरेश प्रताप

मानसून की पहली बरसात ने ही काशी की सीवर व्यवस्था की पोल खोल दी. हजारों करोड़ रुपये शहर की सीवर व्यवस्था को सुधारने पर खर्च हुआ है लेकिन परिणाम शून्य है. विगत एक साल से भी अधिक समय से यहां के शाहीनाले की सफाई हो रही है. इस पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च हो चुका है. मुगलों के शासनकाल में यह नाला बना था, जिसके कारण इसे शाहीनाला भी कहते हैं.

जलजमाव का कारण

बनारस में बारिश के दिनों में जलनिकासी के लिए हजारों करोड़ का प्रोजेक्ट आया था. शहर की सड़क और गलियों को खोदकर पाइप बिछाई गई लेकिन कई जगह पर उन्हें कहीं लिंक नहीं किया गया है. इसका परिणाम यह हुआ कि बारिश के समय पानी उमड़-घूमड़ कर वहीं जमा हो जाता है. मसलन लखनऊ-बनारस राष्ट्रीय राजमार्ग पर हाई-वे के दोनों किनारे सीवर लाइन बनाई गई है लेकिन भोजूबीर के पास विगत एक साल उसका मुंहाना खुला छोड़ दिया गया है.

इस शहर में कई नाले, तालाब व झील थी, जिससे बरसात का पानी उसमें बहकर चला जाता था. अब उसे पाटकर कालोनियां बना दी गई हैं. यहां महमूरगंज के पास एक मोतीझील थी, उसे पाटा जा चुका है. झील अब एक छोटे तालाब में तब्दील हो गई है. बंगाला की रानी भवानी ने यहां कई तालाब बनवाया था, जिसमें ब्रिटिश काल में वे कछुआ छोड़वाई थीं, ताकि पानी की सफाई होती रहे. खोजवां मेॆ शंकुलधारा तालाब, सोनिया तालाब, अस्सी-भदैनी के पास 5-6 तालाब हैं. अभी भी उनका अस्तित्व है लेकिन उसके किनारे को पाटकर कब्जा किया जा चुका है. इन तालाबों के किनारे पक्केघाट बनाए गए थे.

बेनियाबाग में एक बड़ी झील थी, जो अब लगभग खत्म हो गई है. लहुराबीर, नईसड़क बेनिया व आसपास के मुहल्लों का पानी गलियों से बहता हुआ पहले इसी झील में आता था. यही कारण है कि अधिक बारिश होने पर भी एक-दो घंटे में पानी निकल जाता था. बनारस की बनावट ऐसी है कि यहां की गलियां व सड़के जो गंगा की तरफ जाती हैं, उससे भी बरसात का पानी निकलता था. अब वह व्यवस्था लगभग चरमरा गई है. यह सिर्फ मंदिरों का ही नहीं बल्कि कभी तालाब व झीलों का भी शहर था. इसीलिए इसे काननवन भी कहा जाता है. जंगल तो अब हैं नहीं. झील खत्म हो गई. तालाब भी मर रहे हैं.

विकास का असर

विकास करते हुए हम इतना आगे निकल चुके हैं कि अब पीछे लौटना मुश्किल है. मसलन गोदौलिया से दशाश्वमेध घाट जाने वाले मार्ग को खोदकर उस पर पत्थर की पटिया लगा दी गई है. पहले जो फुटपाथ था, उसे खोद दिया गया और पुन: नया फुटपाथ बना है. फुटपाथ का पानी किधर जाएगा, इस पर ध्यान नहीं दिया गया और 17 जून को हुई बारिश में उसका पानी दुकानों में घुस गया. पानी का बहाव इतना तेज था कि सड़क और फुटपाथ सब एक हो गया था.

गोदौलिया-दशाश्वमेध मार्ग का उदाहरण इसलिए दे रहे हैं कि यहीं पर इस बूढ़े शहर को “क्योटो” बनाने का प्रयोग विगत एक साल से हो रहा था. जिसकी कलई 17 जून की बारिश में खुलकर सामने आ गई. बारिश होने पर पानी कहां जाएगा, इसका ध्यान ही नहीं रखा गया. ऐसा नहीं है कि इसके पहले बारिश नहीं होती थी. लेकिन तब पानी बह कर गंगा की तरफ चला जाता था. बाढ़ आने पर ही बारिश का पानी दुकानों में घुसता था.

उधर, मैदागिन से चौक तक भी एक साल पहले फुटपाथ को तोड़कर पक्की नाली बनाई गई थी. बाद में उसे पुन: तोड़ दिया गया. लखनऊ-बनारस राष्ट्रीय राजमार्ग पर भी पहले इंटरलाॅकिंग ईंट लगाकर फुटपाथ बनाया गया और फिर गैस की पाइप लाइन लगाने के लिए उसे खोद दिया गया है. कभी बिजली तो कभी पेयजल की पाइप लगाने के लिए इसे बूढ़े शहर की खोदाई 6-7 साल से लगातार होती रहती हैं. इसके कारण कई जगह सड़कें भी अक्सर धंस जाती हैं. विभिन्न विभागों के बीच आपस में कोई तालमेल नहीं है, जिसका खामियाजा यहां के लोग अब भुगत रहे हैं. अभी तो साल 2021 के मानसून की शुरुआत हुई है. आगे-आगे देखते चलिए कि क्या होता है.

पुनश्च : बनारस का गोदौलिय-दशाश्वमेध मार्ग मानसून की पहली बारिश में ही लबालब भर गया.

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