मिश्रित पैथी से उपचार, आखिर दिक्कत क्या है?

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राकेश कुमार अग्रवाल
आयुर्वेद चिकित्सकों को शल्य चिकित्सा की मंजूरी देने के विरोध में शुक्रवार को देश भर के निजी क्लिनिक , नर्सिंग होम , सुपर स्पेशियलिटी , मल्टी सुपर स्पेशियलिटी हाॅस्पिटल के डाॅक्टर हडताल पर रहे . देश के प्रतिष्ठित अस्पतालों के डाॅक्टरों ने काली पट्टी बाँध कर इंडियन मेडीकल एसोसिएशन के द्वारा आहूत की गई हडताल का समर्थन किया . दूसरी ओर इंडियन मेडीकल एसोसिएशन की हडताल के विरोध मे आयुष चिकित्सकों ने गुलाबी फीता बाँधकर काम किया .
इस हडताल से देखा जाए तो देश में यह संदेश जा रहा है कि एलोपैथी बनाम आयुर्वेद या आईएमए ( इंडियन मेडीकल एसोसिएशन ) बनाम सीसीआईएम ( सेंट्रल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडीसिन ) का विवाद उठ खडा हुआ है . जबकि यह पूरा विवाद विश्व स्वास्थ्य संगठन के उस सुझाव पर उठ खडा हुआ है जिसमें परम्परागत उपचार पद्धति और आधुनिक चिकित्सा पद्धति के समन्वय से मरीजों के उपचार को अपनाने की बात कही गई है . विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ट्रेडीशनल मेडीसिन स्ट्रेटिजी 2014-2023 ( ISBN 9789241506090 ) में इसका विस्तार से उल्लेख किया है . विश्व स्वास्थ संगठन का मिश्रित पैथी के इस सुझाव पर सरकार ने ऐलोपैथी के एमबीबीएस पाठ्यक्रम में आयुर्वेद को एक विषय के रूप में समाहित करने की पहल की . सरकार की इस पहल पर आईएमए भडक गया उसने 5 नवम्बर 2020 को जारी अपने पत्र में इसे धर्मक्षेत्रे – कुरुक्षेत्रे की संज्ञा दे डाली . स्थिति तब और विस्फोटक हो गई जब आयुर्वेद के पीजी स्टूडेंट को सरकार ने एलोपैथिक सर्जन से सर्जरी सिखवाने व उन्हें सर्जरी करने की अनुमति देने का प्रस्ताव रखा . इस प्रस्ताव के आते ही आईएमए जैसे बिफर ही पडी उसने 21 नवम्बर 2020 को जारी पत्र में ‘ फायरवाल ‘ बनाने की बात कही . फायरवाल से उसका तात्पर्य ठीक उसी तरह से है जैसे अपने कम्प्यूटर को वायरस से बचाने के लिए लोग एंटीवायरस इंस्टाॅल करते हैं कमोवेश उसी तरह की अपील आईएमए ने अपने ऐलोपैथिक सर्जन से की है कि वे किसी भी सूरत में आयुर्वेदिक चिकित्सकों को सर्जरी नहीं सिखायेंगे . शल्य चिकित्सा करना उनका विशेषाधिकार है . जबकि पूरी दुनिया जानती है कि आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है . जिन्होंने हजारों वर्ष पहले शल्य चिकित्सा की शुरुआत कर दी थी .
एक अच्छी दुनिया गढने का मतलब है कि लोग शिक्षित व स्वस्थ हों . शिक्षा व स्वास्थ्य न केवल देशों व राष्ट्रों की प्रगति का पैमाना हैं बल्कि ये विकास के भी सबसे बडे पैरामीटर हैं . सबको शिक्षा मिले और सभी स्वस्थ रहें इस से कोई इंकार नहीं कर सकता . एक चिकित्सक का मूल कर्तव्य भी यही है कि वह मरीज को निरोगी बनाए न कि उसे अपने कारोबार को फैलाने व बढाने का माध्यम समझे . वैसे भी जिस ऐलोपैथी चिकित्सा पद्धति पर आईएमए अपना एकाधिकार समझ रही है वह भी पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति है जिसे हूबहू हमारे देश में उन्हीं विदेशी मानकों के साथ अपना लिया गया है . इस चिकित्सा पद्धति के विकास के बाद अब विकट समस्या जो पैदा हुई है वह है ऐलोपैथिक डाॅक्टर में सुपीरियरिटी का भाव आ जाना . वह अन्य चिकित्सा पद्धति से जुडे चिकित्सकों को हीन भाव से देखता है . भले उसके नर्सिंग होम और सुपर स्पेशियलिटी हाॅस्पिटल की बैक बोन बीएएमएस डाक्टर ही हों . जिन्हें कम सैलरी पर उन्होंने घोषित – अघोषित रूप से तैनात कर रखा है .
जानने और समझने की जरूरत यह है कि जिस आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का भारत को जनक माना जाता है उस पद्धति को ऊँचाइयों तक न ले जा पाने में सरकार और स्वयं इस पद्धति से जुडे चिकित्सक – वैद्य दोनों दोषी हैं . बेहतर तो यह होता कि आयुर्वेद में भी ऐलोपैथ की तर्ज पर विभिन्न बीमारियों के उपचार के मानक प्रोटोकाॅल तैयार किए जायें . आयुर्वेदिक दवाओं के फार्मूलों का भी मानकीकरण उतना ही जरूरी है . अभी सभी आयुर्वेदिक दवा कंपनियों का अपना स्वयं का दवा फार्मूला है जो पूरी तरह गुप्त और गोपनीय होता है . जिन जडी – बूटियों का फार्मूलेशन में जिक्र होता है हो सकता है उस कंपनी में उक्त जडी बूटियाँ उपलब्ध ही न हों . आयुर्वेदिक चिकित्सालयों को उसी तर्ज पर सुसज्जित किया जाए जिस प्रकार ऐलोपैथिक हास्पिटल की ओपीडी , आईपीडी व बैड होते हैं . इन चिकित्सालयों में पूरी तरह आयुर्वेदिक पद्धति से मरीज का उपचार किया जाए . सबसे बडी समस्या आयुर्वेद शिक्षा में प्रवेश देने से जुडी है . जिस स्टूडेंट का माइंडसेट आयुर्वेद में जाने का नहीं है . जो स्टूडेंट एमबीबीएस की तैयारी कर रहा था अंकों की होड में पिछड जाने के कारण उसे मजबूरी में बीएएमएस करना पडा . समस्या यहीं से शुरु होती है . सरकार को आयुर्वेद चिकित्सक के लिए अलग से प्रवेश परीक्षा कराना चाहिए . ऐसे छात्र जो आयुर्वेदिक चिकित्सक बनना चाहते हों वे ही इस परीक्षा में बैठें . ऐसे स्टूडेंट को संस्कृत का ज्ञान भी होना जरूरी है . जिन छात्रों ने इंटरमीडिएट तक संस्कृत एवं बायलाॅजी को विषय के रूप में ले रखा हो वही इस पात्रता परीक्षा में प्रतिभाग कर सके . इससे एक्सीडेंटल आयुर्वेदिक चिकित्सक पैदा नहीं होंगे . आयुर्वेद को दरअसल अपने ही देश में जो मुकाम मिलना चाहिए था लेकिन नहीं मिल पाया इसका प्रमुख कारण जिन पुराने वैद्यों को जो आयुर्वेद का ज्ञान था उन्होंने इसे पीढी दर पीढी आगे नहीं बढाया . दूसरा कारण देश में ब्रिटिशर्स का सैकडों साल तक राज करना रहा . ब्रिटिशर्स ने ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति का यहां भी विस्तार किया . सभी बडे शहरों में मिशन हाॅस्पिटल खोले गए जो कुछ ही समय में अपनी गुणवत्ता के कारण लोकप्रिय हो गए . तीसरा बडा कारण नए दौर में भी आयुर्वेदिक चिकित्सकों का ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति से मरीजों का उपचार करना है .
तारीफ करनी होगी विश्व स्वास्थ्य संगठन की जिसने मिश्रित चिकित्सा पद्धति की वकालत की है . आईएमए अपना अहम त्याग कर अन्य पद्धतियों को साथ में जोडकर यदि काम करे तो हो सकता है कि भारत योग की भांति नई मिश्रित चिकित्सा पद्धति में विश्व में अगुआ बनकर लोगों को निरोगी बनाने में , कई असाध्य रोगों का उपचार करने व एक नई एवं सस्ती चिकित्सा पद्धति से दुनिया को रूबरू कराने में कारगर भूमिका अदा कर सकता है . आज चिकित्सा के क्षेत्र में भारत के न के बराबर पेटेंट हैं लेकिन हो सकता है कि मिश्रित पैथी अपनाने के बाद आईएमए के पास पेटेंट की भरमार हो जाए और चिकित्सा सेवा का एक नया चेहरा दुनिया के सामने आए .

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