वो बालपन का सपना

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बचपन की बात है . जब मैं शायद कक्षा 4 का विद्यार्थी था . चतुर्वेदी पंडित जी के घर में संचालित स्कूल में पढता था . तब हिंदी में एक कहानी थी ‘ दीपदान ‘ . पन्नाधाय के त्याग , ममता और बलिदान की यह कहानी जब पढाई गई थी तभी मन ही मन एक संकल्प लिया था कि कभी मौका लगा तो एक बार शूरवीरों एवं बलिदानियों की धरती मेवाड को नमन करने जरूर जाऊँगा . वो सपना हकीकत में भी बदला जब मुझे चितौडगढ से बीएससी व उदयपुर से बीफार्मा करने का मौका मिला .

उदयपुर के संस्थापक महाराणा उदयसिंह ( द्वितीय ) की 498 वीं जयंती दो दिन पूर्व मनाई गई . 1522 में जन्मे उदयसिंह जब महज 6 साल के थे तब उनके पिता महाराणा संग्राम सिंह का देहांत हो गया था . जब वे महज 12 वर्ष के रहे होंगे तब माता महारानी कर्णावती ने जौहर कर लिया था . 1535-36 की वह घटना थी जब धाय माता पन्नाधाय द्वारा अपने पुत्र चंदन का बलिदान व कुंवर उदयसिंह के प्राणों की रक्षा की गई थी .

महाराणा उदयसिंह ने 1553 में पिछोला झील के किनारे मेवाड की नई राजधानी की स्थापना कर मेवाड को सुरक्षित कर लिया था . मेरे जिस बालमन ने जिस मेवाड को एक बार देखने व नमन करने का सपना संजोया था , कुदरत का करिश्मा तो देखिए उसी मेवाड की धरती पर मुझे सात वर्ष बिताने का अवसर मिला . ये सातों वर्ष मेरी जिंदगी की अनमोल यादों का हिस्सा हैं. सिटी पैलेस , जगदीश मंदिर , कुंभलगढ , एकलिंग जी , नाथद्वारा , दूध तलाई , मोती डूंगरी , हल्दीघाटी , लेक पैलेस , सुखाडिया सर्कल , गुलाब बाग , सहेलियों की बाडी , हमारा अपना भूपाल नोबल्स कालेज , नेहरू गार्डन , लोक कला मंडल क्या भूलूं क्या याद करूं ? झीलों की नगरी को मैं कभी नहीं बिसरा सकता . यह खूबसूरत शहर मेरे रग रग में है . बहुत कुछ पाया है मैंने मेवाड की इस पवित्र धरा से . बारम्बार नमन् . वीर भोग्या वसुंधरा।

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