स्कूली पाठ्यक्रम को कमजोर कर तैयार करा रहे हैं बोर्ड, डॉक्टर और इंजीनियर

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राकेश कुमार अग्रवाल

शिक्षा विभाग के नीति नियंता और नामी गिरामी कोचिंग संस्थान मिलकर ऐसे खेल खेल रहे हैं जिसके तहत केवल स्कूल – कालेज के भरोसे तैयारी कर रहे छात्रों को डाक्टर या इंजीनियर बनने का सपना भूलवश भी नहीं पालना चाहिए.

सभी बोर्ड लगातार पाठ्यक्रम को कमतर करते जा रहे हैं . समीक्षा के नाम पर समय समय पर तमाम पाठों को हाईस्कूल के पाठ्यक्रम से हटा दिया है . जिन पाठों को स्टूडेंट हाईस्कूल में पढ और समझ लेता था . अब वही पाठ हाईस्कूल से हटाकर इंटरमीडिएट के पाठ बन गए हैं . इसके सम्बन्ध में बोर्ड के बडे रटे रटाए तर्क होते हैं कि छात्रों पर अनावश्यक बोझ डालने से बचाने का फैसला लिया गया है . ताकि बच्चे मानसिक रूप से परेशान न हों . और बोर्ड परीक्षा का दबाब भी उन पर न हो . अकसर जिन टाॅपिक को सिलेबस से हटाया जाता है वे गूढ टाॅपिक होते हैं एवं स्टूडेंट को उन्हें सहजता से आत्मसात करना आसान नहीं होता है . दरअसल वही टाॅपिक बाद में इंटरमीडिएट के पाठ बन जाते हैं . ऐसे गूढ टाॅपिक प्रतियोगी परीक्षाओं में जरूर शामिल होते हैं . ऐसे में पूरा खेल यहीं से शुरु होता है . एकेडमिक्स में टापिक रस्म अदायगी के रूप में होते हैं या वहां से हट जाते हैं वहीं दूसरी ओर उन्हीं टापिक से आईआईटी जेईई और नीट में सवाल पूछे जाते हैं . ऐसे में बच्चे स्कूलों में पढकर बोर्ड परीक्षा तो पास कर सकते हैं . मार्क्स भी स्कोर कर सकते हैं लेकिन प्रतियोगी परीक्षाओं लायक उनकी तैयारी कतई नहीं होती है . ऐसे में उनके पास एक ही आप्शन बचता है कि वे कोचिंग संस्थानों की शरण में जायें .
सवाल यह भी है कि इंजीनियर और डाक्टर बनाने के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षाओं का मानक क्या है ? इन परीक्षाओं को संपादित कराने वाली एजेंसी का मकसद क्या है ? यदि बोर्डों के पाठ्यक्रम को आधार बनाया गया है तो फिर बोर्ड परीक्षा के स्तर और प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा के प्रश्न पत्रों के स्तर में इतना अंतर क्यों है ? जबाब सीधा सा है कि बोर्ड परीक्षा के पेपर केवल नंबरों की दौड तक सीमित हैं . इन परीक्षाओं में हासिल किए गए नंबर जरूरी नहीं है कि आपको डाक्टर , इंजीनियर बनाने वाली प्रवेश परीक्षा में चयनित होने का पासपोर्ट हों . आपका डाक्टर , इंजीनियर बनने का सपना है तो आपको कोचिंग संस्थानों की शरण में जाना ही पडेगा . कोचिंग संस्थान तो परिणाम आते ही एक हफ्ते तक छाती ठोक ठोककर अपने सफल छात्रों की सूची भारी भरकम विज्ञापन के साथ प्रकाशित करते हैं .

इसके इतर देश का किसी भी बोर्ड से संबद्ध एक भी स्कूल या कालेज क्यों नहीं इस तरह का विज्ञापन छापता है कि उसके स्कूल या कालेज में पढने से एकेडमिक्स के साथ डाक्टर / इंजीनियर की प्रवेश परीक्षा में सफलता की गारंटी है . दरअसल जबाब सीधा सा है . देश के विभिन्न बोर्डों द्वारा स्कूल , कालेजों को सिलेबस और प्रक्टिकल पूरे कराने में उलझा दिया गया है . ताकि वे नंबरों की रेस में दौड लगाते रहें . किस विद्यालय के बच्चे ने स्कूल टाॅप किया , जिला , प्रदेश टाॅप किया , मेरिट सूची में स्थान बनाया बस इसी मकडजाल में उलझे रहें .

सवाल यह भी है कि कोचिंग संस्थानों के पास कोई जादू की पुडिया है या उनकी फैकल्टी में सुरखाब के पंख लगे हैं कि संबंधित कोचिंग में पहुंचते ही स्टूडेंट को अपना श्योर शाॅट सलेक्शन नजर आने लगता है . और पेरेंट्स अपने बच्चे के चयन के लिए आश्वस्त हो जाते हैं. एक और बडा सवाल यह भी है कि क्या ये कोचिंग संस्थान पूरा पाठ्यक्रम तैयार कराते हैं या फिर सेलेक्टिव स्टडी पर फोकस किया जाता है . जिसका केवल और केवल उद्देश्य स्टूडेंट को महज इतनी तैयारी कराना होता है वह काम्पटीशन की प्रवेश परीक्षा पास कर ले .

सवाल यह भी है कि सबका साथ सबका विकास का दम भरने वाली सरकारों ने क्या कभी ये सोचा है कि जो अभिभावक आर्थिक रूप से कमजोर हैं एवं वे कोचिंग संस्थान का दो से पांच लाख का खर्च वहन करने की स्थिति में नहीं है , जो बडे बडे कोचिंग संस्थानों में जाने की स्थिति में नहीं हैं वे क्या डाक्टर , इंजीनियर बनने का सपना न पालें ? क्या आपको सरकारों , शिक्षा नियामकों , बोर्डों और परीक्षा संपादित कराने वाली एजेंसी की यह दोहरी नीति नहीं लगती ?

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