आओ राजनीति-राजनीति खेलें

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राकेश कुमार अग्रवाल

कृषि विधेयकों को लेकर चल रही रस्साकसी नित नए रूप लेती जा रही है . सरकार बनाम किसान रूपी दोनों ध्रुवों bमें लगातार इजाफा होता जा रहा है . विदेशी दखल के नए कोण के बाद बुद्धिजीवियों और सेलेब्रिटी के प्रलाप के बीच माननीय प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में यह कहकर कि श्रमजीवी , बुद्धिजीवी के बाद देश में एक नई बिरादरी सामने आई है जिसे आप आंदोलनजीवी कह सकते हैं .
इस वक्तव्य के पीछे प्रधानमंत्री जी के अपने निहितार्थ हो सकते हैं . लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सत्ता और सरकार के हर फैसले में हां में हां मिलाना जरूरी है ? सरकारी नीतियों से मतभिन्नता रखना गलत है क्या ? मतभिन्नता को लेकर अपना विरोध जताना , सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए आंदोलन करना गलत है क्या ? आंदोलन और अनशन करने जैसे मारक हथियार तो महात्मा गांधी के आजादी के आंदोलन के सबसे बडे अस्त्र थे जिनके दम पर गांधी जी ने चंपारन बिहार में नील की खेती से लेकर नोआखाली दंगों में बखूबी आजमाया था .
कृषि विधेयकों को लेकर किसानों और सरकार दोनों तरफ से जमकर हठधर्मिता दिखाई गई . और तो और इन विधेयकों पर समाधान खोजने के बजाए प्राण प्रतिष्ठा का विषय बना लिया गया .
लोकतंत्र में किसी भी विचार या कदम पर असहमति हो यह स्वाभाविक है लेकिन असहमति का हल आपसी चर्चा और विचार विमर्श से ही निकलेगा . वार्ता की टेबल पर निकलेगा . मजे की बात यह है कि इस वितंडा के पीछे दोनों ही पक्ष किसानों की बेहतरी चाहते हैं .
1970 में शर्मिला टैगोर और फीरोज खान अभिनीत एक फिल्म आई थी ‘ सफर ‘ . इस फिल्म का एक गीत जिसे इंदीवर ने लिखा था बहुत लोकप्रिय हुआ था . गीत के बोल थे ‘ जो तुमको हो पसंद वो ही बात करेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे .’ प्रेम , प्यार , इश्क , मोहब्बत और वात्सल्य में हो सकता है कि गाने के यह बोल सटीक बैठते हों लेकिन सरकार का क्या हर फैसला शुद्ध सोने सा खरा 24 कैरेट का हाॅलमार्क युक्त होता है ? इसकी कोई गारंटी है क्या ? इस लिहाज से तो 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा थोपा गया आपातकाल भी जायज ही ठहराया जाना चाहिए . नोटबंदी को भी सही बताया जाना चाहिए . आपरेशन ब्लू स्टार से लेकर देश में केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों में थोपे जाने वाले राष्ट्रपति शासनों को भी उचित ठहराया जाना चाहिए .
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी यही है कि वह सरकार के फैसलों पर सवाल खडे करे . सरकार को संसद से लेकर सडक तक कठघरे में खडा करे . जिस काम को विपक्षी दलों को करना चाहिए था उस काम को किसान संगठनों को करना पड रहा है . लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि सरकार के फैसलों पर संशय या असहमति जताने से उन्हे आंदोलनजीवी का तमगा मिल सकता है . लोकतंत्र में सरकारों के फैसलों पर सवाल खडे करने का काम विपक्ष के अलावा मीडिया करता है . लेकिन देश में इन दिनों सबसे विकट संकट में मीडिया है . हालात इस कदर हो गए हैं कि जो मीडिया हाउस सरकार के पक्ष में लिखता है वह भाजपाई भोंपू कहलाने लगा है एवं जो मीडिया हाउस सरकार की लानत मलानत करता है वह अगेन्स्ट बीजेपी या अगेन्स्ट गवर्नमेंट कहलाने लगा है . पाठक , दर्शक सभी कनफ्यूज हैं क्योंकि इससे भी विकट हालात सोशल मीडिया के हैं जहां पोस्ट से ही पता चल जाता है कि संबंधित व्यक्ति किस विचारधारा का पोषक है . रिपोर्टरों की न्यूज की जगह व्यूज ने ले ली है . असल खबर क्या है इसका किसी को भान तक नहीं है .
बीते कुछ वर्षों में राजनीति में एक नई प्रवृत्ति जन्मी है जिसके तहत सरकारें अपने लिए फैसलों पर कोई सवालिया निशान लगाए उन्हे बरदाश्त नहीं है . एक पूरी की पूरी सेल ऐसे विरोध करने वालों पर इस कदर पिल पडती है कि उसे छठी का दूध याद दिला दे .
बात बेबात पर ट्वीट करना अब खतरे से खाली नहीं है क्योंकि हर जगह राजनीति राजनीति खेलें का खेल शुरु हो जाता है . भारत रत्न से सम्मानित क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर , पार्श्व गायिका लता मंगेशकर व अभिनेता अक्षय कुमार भी सरकारों और सत्ता प्रतिष्ठानों की जंग का हिस्सा बन गए हैं . क्योंकि विदेशी पाॅप स्टार रिहाना , पर्यावरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग और पोर्न स्टार मियां खलीफा के ट्वीट के जवाब में ट्वीट करने पर अब महाराष्ट्र सरकार जांच कराने जा रही है कि इन दिग्गजों ने किस के इशारे पर ट्वीट किए हैं . सरकार और किसानों का झगडा कमोवेश उसी मुकाम तक पहुंचता जा रहा है जैसे पति पत्नी के झगडे का अंत अकसर बच्चे की पिटाई पर आकर खत्म होता है .
कहते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी . लेकिन किसान आंदोलन की यह बात राजनीतिक बियाबान में इतनी भी दूर नहीं जानी चाहिए कि असल मुद्दा ही खो जाए .

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