राकेश कुमार अग्रवाल
1971 में ऋषिकेश मुखर्जी की एक फिल्म सुपर हिट हुई थी जिसका नाम था आनंद . राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत इस फिल्म में गुलजार का लिखा एक डायलाॅग आज भी लोगों की जुबाँ पे है , ” बाबूमोशाय , जिंदगी और मौत ऊपरवाले के हाथ है . उसे न आप बदल सकते हैं , न मैं ! ” इस मार्मिक फिल्म को देखने के बाद तमाम लोगों ने अपनी संतानों का नाम आनंद रख दिया था . फिल्म का उक्त संवाद भले जीवन और मौत के सच को उजागर करता हो लेकिन सामाजिक व प्रशासनिक व्यवस्था में यह संवाद लिखा जाएगा तो बदल जाएगा और यह संवाद कुछ इस तरह लिखा जाएगा , बाबूमोशाय , जिंदगी और मौत लेखपाल के हाथ में है और उसे बदलवाने के लिए 15 से 20 साल तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पडेंगे .”
हो सकता है आपको यह अतिश्योक्ति या व्यंग्य लगे लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था की इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता है . उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के अमोई गांव निवासी 65 वर्षीय श्यामनारायन उर्फ भोला पुत्र बसंतलाल को उनकी खतौनी 1427- 1432 खाता संख्या 198 में तत्कालीन लेखपाल , कानूनगो और भोला के भाई राजनारायन ने मिलकर भोला को मृत घोषित कराकर सारी जमीन हथिया ली . तब से भोला गले में तख्ती लटकाए जिसमें लिखा है कि
” साहब मैं जिंदा हूं
साहब मैं आदमी हूं , भूत नहीं !
न्याय के लिए 2005 से गुहार लगा रहा था . मामले की जानकारी जब जिलाधिकारी प्रवीण कुमार को लगी तो उन्होंने अपर जिलाधिकारी को जांच सौंपी . तीन सदस्यीय जांच कमेटी ने अंतिम निर्णय पर पहुंचने के पहले दोनों भाइयों का डीएनए टेस्ट कराने का फैसला लिया . डीएनए टेस्ट कराने के लिए श्यामनारायन उर्फ भोला ने तो अपना सैंपल दे दिया लेकिन राजनारायन ने सैंपल देने से इंकार कर दिया . तब सबूतों और गवाहों के बयानों के आधार पर जांच टीम ने भोला को पुन: जिंदा करने की सिफारिश की . इस तरह भोला को सरकारी दस्तावेजों में पुनर्जीवित करने में 15 साल लग गए . भोला अगर आजमगढ के लालबिहारी की तरह ढीठ न होता तो शायद कभी जिंदा ही न हो पाता .
सरकारी दस्तावेजों में किसी को मारने का खेल कब से चल रहा इसे तो शायद सटीक बता पाना मुश्किल होगा . लेकिन पहली बार इस मामले को सुर्खियां तब मिलीं जब उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के चर्चित जिले आजमगढ के खलीलाबाद निवासी लालबिहारी को राजस्व विभाग के रिकार्ड में 1976 में मृत घोषित कर उसकी सारी संपत्ति रिश्तेदारों में बांट दी गयी . अशिक्षित लालबिहारी उस समय महज 21 वर्ष का था . लाल बिहारी ने खुद को जिंदा साबित करने के लिए 18 वर्ष तक लम्बी कानूनी लडाई लडी . यह लडाई उसने कार्यपालिका , न्यायपालिका व विधायिका तीनों मोर्चों पर लडी . कार्यपालिका में उसने सभी आला अधिकारियों की ड्योढी पर गुहार लगाई . तो न्यायपालिका में निचली अदालत से लेकर उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया . और तो और हाईकोर्ट में उसकी जब पुकार लगती थी तो उसे ‘ मृतक लाल बिहारी हाजिर हो ‘ कहकर पुकारा जाता था . विधायिका तक अपनी बात पहुंचाने के लिए उसने 9 सितम्बर 1986 को विधानसभा में परचे उसी तर्ज पर फेंके जिस तरह कभी क्रांतिकारी भगत सिंह और उनके साथियों ने सदन में गूंगी बहरी ब्रितानी हुकूमत को जगाने के लिए फेंके थे . लालबिहारी ने दिल्ली के वोट क्लब में 56 घंटे तक धरना भी दिया था . और तो और उसने 1986 में पूर्व प्रधानमंत्री व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ चुनाव लडा . और 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ भी चुनाव लडा . 18 वर्षों तक चले संघर्ष के बाद आखिरकार 1994 में लालबिहारी को पुनर्जीवन मिला .
हाल में फिल्मकार सतीश कौशिक ने लालबिहारी के जीवन संघर्ष पर कागज नाम से फिल्म का निर्माण किया . पंकज त्रिपाठी और मोनल गज्जर अभिनीत इस फिल्म में सलमान खान ने फिल्म की शुरुआत में ही स्टारिंग के साथ चल रहे कथ्य में कागज की महत्ता को कुछ इस तरह बयां किया कि ‘ कहने को कागज इस दुनिया में सबसे कमजोर माना जाता है , कभी हवा से उड जाए तो कभी एक झटके में फट जाए , लेकिन इसी कागज पर चली एक कलम कई बार व्यथा व संघर्ष की ऐसी कहानियां लिख जाती है , जिसे चाहकर भी मिटा पाना आसान नहीं होता है .
प्रशासनिक व्यवस्था में लेखपाल और दरोगा को सबसे छोटी इकाई माना जाता है . लेकिन लोक प्रशासन और उसकी कार्यप्रणाली को जानने वाले बेहतर तरीके से जानते हैं कि यदि लेखपाल और दरोगा अपना काम पूरी ईमानदारी से करने लगें तो गांवों , कस्बों में होने वाले आधे विवाद , मुकदमे और अपराध स्वत: खत्म हो जायेंगे . क्योंकि सभी अधिकारी लेखपाल , कानूनगो , बीट इंचार्ज और दरोगा की रिपोर्ट पर ही निर्णय लेने को बाध्य होते हैं . प्रदेश में वर्तमान में लेखपालों के स्वीकृत 30837 पदों में से राजस्व लेखपाल के 7019 व चकबंदी लेखपाल के 1200 से अधिक पद रिक्त पडे हैं . थोडी बहुत भर्तियां भी होती हैं तो चयनित तमाम लेखपाल कुछ माह काम करने के बाद अन्य विभागों में ज्वाइन कर लेते हैं . लेखपालों की समुचित नियक्तियां न होने के कारण एक एक लेखपाल पर कई कई गांवों का दायित्व आ गया है . ऐसे में लेखपाल गांव के ही तमाम बेरोजगार युवा को अपनी मदद के लिए लगाए हैं एवं उन्हें उनकी मदद के बदले भुगतान करते हैं . लेखपालों का भी इतना रुतबा है कि प्रदेश के तमाम लेखपाल जिलास्तरीय अधिकारियों को छकाए रहते हैं क्योंकि उनकी शासन तक सीधी पहुुंच है . लगभग 12 साल पहले जब मैं बरेली में था तब तत्कालीन डीएम ने एक लेखपाल की ओर इशारा करते हुए कहा था कि मैं आईआईटी , आईआईएम और आईएएस पास आउट हूं फिर भी इस लेखपाल का कुछ नहीं बिगाड पाया .
मुद्दा केवल इतना सा है कि जब आपकी कलम में इतनी ताकत है कि आप किसी का भी भूत और भविष्य बना और बिगाड सकते हैं तो आप पहले से ही मजबूर और मजलूम व्यक्ति के साथ ऐसा क्यों करते हैं ? चंद रुपयों की खातिर कृपया किसी को जीवन और मौत का सर्टिफिकेट बांटकर उसकी पहचान तो न खत्म करिए .