राकेश कुमार अग्रवाल
आम हो या खास सभी के जीवन में तमाम बार ऐसे मौके आते हैं जब उसे मौजूद कई विकल्पों में से एक का चुनाव करना होता है . यह चुनाव कभी पढाई को लेकर , कभी शिक्षण संस्था के चयन को लेकर तो कभी कैरियर को लेकर होता है . शादी को लेकर आ रहे तमाम रिश्तों में भी उसे एक का चुनाव करना होता है .
चुनना जितना आसान लगता है दरअसल उतना होता नहीं है . मेरा हमेशा से मानना रहा है कि चुनाव हमेशा दोधारी तलवार से कम नहीं होता है . चुनने वाले के लिए चुनाव करना भी हमेशा उतना ही कठिन होता है जितना एक उम्मीदवार के लिए अपने को चयन के लिए पेश करना . क्योंकि सही उम्मीदवार का चयन जहां नियोजक के लिए जैकपाॅट की तरह होता है वहीं गलत उम्मीदवार का चयन नियोजक के लिए गले की हड्डी भी बन जाता है .
चुनाव यदि सरकारी सेवाओं में चयन का हो तो फिर बिना आरोप प्रत्यारोप , भाई भतीजावाद के निपट जाए यह टेढी खीर से कम नहीं होता है . वर्तमान में जब बेरोजगारी सुरसा के मुंह की तरह बढती जा रही है ऐसे में एक पद के लिए हजारों दावेदार क्यू में ठीक उसी तरह होते हैं जैसे अनार एक होता है और बीमारों की तादात सैकडों में होती है . अनार शरीर में खून की मात्रा बढाता है , हीमोग्लोबिन बढाता है और बीमार को इंस्टैन्ट एनर्जी देता है ठीक उसी तरह बेरोजगार के लिए रोजगार का विज्ञापन और समाचार पत्रों में क्लासीफाइड के विज्ञापन होते हैं जिनको देखकर बेरोजगार व्यक्ति की आँखें खुशी के मारे चमक उठती हैं . हाल ही में हरियाणा के पानीपत में कोर्ट में चपरासी के 13 पदों पर भर्ती के लिए 14871 युवाओं ने आवेदन किए थे . जिनमें से 12670 आवेदक इंटरव्यू के लिए पहुंचे . चपरासी पद के लिए योग्यता कक्षा 8 पास मांगी गई थी जबकि आवेदकों में एमए , एमएससी , एमकाॅम के 164 , बीए , बीएससी वाले 1084 , एक एम टेक और 29 बी टेक इंजीनियर शामिल थे . जजों को जितना मुकदमे का फैसला करने में उलझन न होती होगी उससे कहीं ज्यादा उलझन चपरासियों का चुनाव करने में हुई होगी .
चुनाव कमोवेश उसी टाॅस की तरह होता है जिस तरह मैच हारने पर खिलाडियों के खराब खेल के बजाए टाॅस हारने को मैच हारने का दोषी ठहरा दिया जाता है . हमारा देश चुनावमय देश है . इंसान पूरे जीवन इसी चुनावी मोहमाया में उलझा रहता है . एक चुनाव सम्पन्न होता है तो दूसरा चुनाव सिर पर आ जाता है . और तीसरे की तैयारी शुरु हो जाती है . कभी विधानसभा चुनाव तो कभी लोकसभा चुनाव , इनसे निपटे तो नगर निकाय चुनाव . यूपी में तो अब पंचायत चुनाव की बारी है . चुनाव आने से तमाम निठल्लों की लाॅटरी निकल आती है . जिन निठल्लों को घर परिवार के लोग पानी पी पीकर कि काम के न काज के दुश्मन अनाज के कहकर कोसते हैं वे चुनावों में फुल टाइम बिजी हो जाते हैं . वोट मांगने के नाम पर घूमने के लिए गाडी , शाम को रोजाना दारू मुर्गा पार्टी मतलब पांचों उंगलियां घी में और सर कडाही में . वोटों के ठेकेदारों की तो इन चुनावी बल्ले बल्ले हो जाती है क्योंकि ये थोक में वोट दिलाने के सौदागर जो होते हैं भले ऐसे सौदागर के कहने पर उसकी पत्नी भी वोट न डाले .
सैकडों साल पहले चुनाव करने के लिए स्वयंवर जैसी युक्ति खोज निकाली गई थी . निर्धारित समय में जो भी व्यक्ति दी गई चुनौती पर खरा उतरता था वही चुने जाने का अधिकारी होता था .
चुनाव जुए की तरह भी होता है . लाखों रुपए फूंकने के बावजूद आप चुन लिए जाएं इसकी कोई गारंटी नहीं होती . इसका सीधा तात्पर्य यह है कि आप को बडा जुआरी भी होना चाहिए . जीत गए तो तीर नहीं तो तुक्का . लाखों लाख रुपए गंवाने का कलेजा भी होना चाहिए . जो हारने की और पैसा गंवाने की चोट बर्दाश्त कर सके . चुनावों में हार का ठीकरा फोडकर हार की चोट को सहलाया जाता है . जिस तरह नौकरी के लिए चयन न हो पाने पर आवेदक रिश्वत या फिर भाई भतीजावाद पर ठीकरा फोडता है उसी तरह चुनाव में न जीत पाने का ठीकरा बीते दो दशक से बूथ कैप्चरिंग या फिर चुनाव आयोग पर फोडने के बजाए इसका शार्टकट ढूंढ लिया गया है . हारने वाली पार्टी या फिर प्रत्याशी हार का ठीकरा ईवीएम मशीन पर फोड देता है . यदि मतपत्र से मतदान हुआ होता तो मेरी साॅलिड जीत होती .
चुनाव जितना प्रत्याशी के लिए चुनौतीपूर्ण होता है उतना ही मतदाता के लिए भी . क्योंकि उसे समझ ही नहीं आता कि चुनूं तो किसे चुनूं कोई सांपनाथ है तो कोई नागनाथ . दूसरी तरफ कुछ प्रत्याशी ऐसे भी होते हैं जो जीत हार के लिए नहीं बस लडने के लिए लडते हैं . काका जोगिंदर सिंह उर्फ धरतीपकड जैसे कई नेता ऐसे हैं जिन्होंने पार्षद से लेकर राष्ट्रपति तक का चुनाव लडा . उनका कहना था कि जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला .
जल्दी ही चार राज्यों और एक केन्द्र शासित प्रदेश में चुनाव की बिसात बिछने वाली है . चुनाव तो जीवन में कदम कदम पर हम आपको करना ही पडता है . आप चुनाव लडें या न लडें लेकिन चुनाव करने के अपने अधिकार का उपयोग जरूर करें .
चुनाव – चुनना इतना भी नहीं आसां
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