राकेश कुमार अग्रवाल
इन दिनों देश में एक तरफ कोरोना की मार पड रही है तो दूसरी तरफ कई राज्यों में इस कोरोना से मुकाबले के लिए रैलियाँ चल रही हैं . रैलियों की हुंकार भी बिल्कुल सीधी साधी है उसी तरह है कि
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कोरोना में है .
हमारे देश में एक परम्परा सी चल पडी है सत्तारूढ दल को गरियाने की . जब भी कोई विसंगति पैदा होती है तब सभी दल और लोग सरकार पर पिल पडते हैं . माना कि कोरोना का भौकाल सवा साल बाद भी कायम है . लेकिन इस अदृश्य शत्रु से हमारी सरकारें मुकाबला कर रही हैं . इसके लिए पहले अपने को चाक चौबंद करते हुए पूरे देश को खुद लाॅक किया . क्या गांव , क्या मजरा , क्या नगर , क्या महानगर सभी जगह लाॅकडाउन रहा . पूरे देशवासी घोषित रूप से अपने अपने घरों में कैद रहे थे . वह भी एक दो दिन के लिए नहीं कई कई महीनों के लिए . कोरोना से निपटने का सरकार का यह पहला फार्मूला था . जिसमें सरकार ने सभी देशवासियों को अपने अपने बंकरों में रहने का फरमान सुनाया था .
लेकिन चीन देश से आया यह कोरोना 1965 की तरह गुरिल्ला युद्ध पर उतारू हो गया . अब वह लोगों पर छिप – छिपकर वार कर रहा है . और हमारे तमाम वीर सैनिक इस छापामार युद्ध में हताहत हो रहे हैं . इसलिए सरकार ने इस बार आर – पार की लडाई लडने की ठानी . सरकार ने घरों में कैद लोगों को रैलियों के माध्यम से बाहर निकाला और उन पर हल्ला बुलवा दिया . जिन जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उन राज्यों को रैली मय कर दिया गया है . ताकि भय के इस भूत से खुले मैदानों , स्टेडियमों में निपटा जा सके . इन राज्यों की सभी पार्टियां कोरोना नाश रूपी इस यज्ञ में बढ चढकर भाग ले रही हैं . कोई पार्टी रैली , कोई भारी भरकम रैला तो कोई नुक्कड सभा करके कोरोना से निपटने में अपने अपने स्तर से योगदान दे रहा है .
भीड जुटाना लोकतंत्र का सबसे बडा हथियार माना जाता है . एक पार्टी की तो बुनियाद ही इसी नारे पर थी कि
जिसकी जितनी संख्या भारी
उसकी उतनी हिस्सेदारी .
कहते हैं कि लोकतंत्र में सिर गिने जाते हैं .
और भीड का अपना कोई जनतंत्र नहीं होता .
भीड का नेताओं से सीधा रिश्ता है . भीड जुटाने के लिए वे क्या क्या पापड बेलते हैं यह भी राजनीति विज्ञान में शोध का एक रोचक विषय है .
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने पश्चिमी बंगाल में चुनावों के अंतिम चरण में अपनी बाकी बची रैलियां कोरोना की वजह से रद्द कर दीं . उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि बाकी नेता भी ऐसा ही करें . इस पर भाजपा के बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय उन पर बरसते हुए बोले कि राहुल रैली करें या न करें इससे फर्क क्या पडता है . उनकी रैली को सुनने के लिए भीड आती नहीं है .उन्होंने तो राहुल गांधी पर पलटवार करते हुए यहां तक कह डाला कि वे अपनी सूरत बचाने को ऐसा कह रहे हैं . टीएमसी के नेता सौगत राय ने तो खरी खरी कह डाली . उनके अनुसार भाजपा राज्य में रैलियां कर रही है . जब तक वे करेंगे , हम भी करेंगे .
याद रखिए रैलियां लोकतंत्र की आत्मा हैं . रैलियों से पता चलता है कि लोकतंत्र जिंदा है . रैलियां आती हैं तो बहार आती है . भीड जुटाने वाले लोगों को काम मिल जाता है . जो लोग बैठे ठाले निठल्ले और बेरोजगार लोग हैं उन्हें रैलियों में जाने के लिए आवागमन हेतु वाहन , लंच पैकेट और तीन चार सौ रुपए झंडा – ठंडा उठाने , और जिंदाबाद के नारे लगाने पर दिहाडी मजदूर के रूप मिल जाते हैं . रैली यदि सरकार की तरफ से हो तो पार्टी पदाधिकारियों से ज्यादा भीड जुटाने का सारा इंतजाम अधिकारियों के जिम्मे आ जाता है . बसों , वाहनों का इंतजाम , ईंधन डलवाना , लंच पैकेट का इंतजाम सभी कुछ अधिकारियों को करना होता है .
लोकतंत्र में रैली सर्वव्यापी है लेकिन दुर्भाग्य की बात भी ये है कि रैली बदनाम भी उतनी है . हमारे देश में तो रैलियों का भरा पूरा इतिहास है . स्वतंत्रता संग्राम में पूरा जनजागरण रैलियों के माध्यम से हुआ . गांधी जी तो फादर ऑफ रैली थे . उन्होंने नमक तोडो कानून के खिलाफ जो रैली निकाली उसे दांडी मार्च के नाम से जाना जाता है .
पोलियो उन्मूलन पूरे देश में दसियों साल तक चलीं पल्स पोलियो रैलियों से हुए जनजागरण के बल पर सफलता के अंजाम तक पहुंच पाया . स्कूलों में बच्चों का नामांकन बढाना हो तो स्कूल चलो रैली . मतदाताओं को जागरुक करना हो तो मतदाता दिवस रैली , एड्स दिवस रैली और तो और सेना को जवानों की नई भर्ती करना हो तो सेना रैली आयोजित की जाती हैं . कृषि विधेयकों को रद्द कराना हो तो किसानों की रैली .
रैलियों की महिमा अपरम्पार है . इसलिए रैलियों से घबराइए नहीं . घबराने की बारी तो कोरोना की है . यदि पांच राज्यों में यह प्रयोग सफल रहा हो तो मेरा तो सुझाव है कि देश में मध्यावधि चुनाव हो जाने चाहिए . जिससे देश में रैलियों की बहार आ जाएगी फिर तो कोरोना को भागने के लिए गली तक न मिलेगी .
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