10 अक्टूबर – विश्व मानसिक सेहत दिवस पर विशेष

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उम्मीदें आसमान भर , परिणाम मुट्ठी भर – टेंशन ही टेंशन

दिमागी उलझनें आधुनिक दौर में सबसे बड़ी महामारी बनकर उभरी हैं। किशोरवय हों , युवा या फिर बुजुर्ग हर कोई इस कथित महामारी की चपेट में है। मानसिक उलझनें केवल गरीब देशों की समस्या नहीं है बल्कि विकासशील से लेकर विकसित देश सभी इसकी चपेट में हैं। समस्यायें आते ही लोग टूट जाते हैं , बिखर जाते हैं और अंतत: अवसाद या फिर मानसिक व्याधि का शिकार हो जाते हैं। और यह दायरा है कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। तभी तो पूरी दुनिया हर वर्ष 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक सेहत दिवस के रूप में मनाने लगी है। जिसका मकसद है लोगों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना। ताकि वे दिमागी बीमारियों से बचकर घर , परिवार व समाज में अपना योगदान दे सकें। न कि दिमागी उलझनों में उलझ कर मानसिक व्याधियों का शिकार हो जाएं।
इस बार के लिए जो थीम रखी गई है वह है ‘ हर किसी के लिए मानसिक सेहत की देखभाल। आइए इसे सच बनाएं। ‘ यह एक बड़ी विडम्बना का विषय है कि ज्यों ज्यों समाज में लोगों में शिक्षा व आर्थिक समृद्धि आती जा रही है त्यों त्यों लोगों की मानसिक सेहत बिगड़ती जा रही है। हालात यह हैं कि वर्तमान में अधिकांश लोग डिप्रेशन व अनिद्रा से जूझ रहे हैं। पुरुषों से कहीं ज्यादा महिलाओं को मानसिक व्याधियों ने घेर लिया है। ऐसी दवाओं की बिक्री का सबसे बड़ा बाजार खड़ा गया है। डाक्टरों के ज्यादातर परचों में एक दो दवाएं मरीजों को डिप्रेशन से उबारने के लिए जरूर होती हैं।
सवाल उठता है कि आखिर लोगों की मानसिक सेहत क्यों गड़बड़ा रही है। क्यों ज्यादातर लोग इस समस्या से जूझ रहे हैं। देखा जाए तो बीते तीन चार दशकों के मुकाबले लोगों के रहन – सहन , सुख- सुविधाओं , खान – पान , पहनावा , आर्थिक व शैक्षणिक स्तर में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। लेकिन जो चौंकाने वाला तथ्य है वह यह कि इस सब के बावजूद बड़ी संख्या में लोग प्रतिदिन जिंदगी से हारकर मौत को गले लगाकर आत्महत्या कर रहे हैं।
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ( एनसीआरबी ) में दर्ज मौतों के आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2019 में देश में 139, 123 लोगों ने आत्महत्या कर अपनी जान गंवाई। पूरी दुनिया में प्रतिवर्ष 9 से 10 लाख लोग मौत को गले लगा लेते हैं। जबकि 20 लाख से अधिक लोग आत्महत्या का प्रयास करते हैं। मानव की मृत्यु के जो तमाम कारण हैं उनमें दसवें नंबर का मौत का कारण आत्महत्या को माना जाता है। प्रत्येक 40 सेकण्ड में दुनिया के किसी न किसी कोने में कोई न कोई व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या करना या आत्महत्या का प्रयास करना साबित करता है कि व्यक्ति मानसिक रूप से कितने झंझावातों से जूझ रहा होगा एवं उसे अपनी उलझनों से बाहर निकलने या उबरने का कोई रास्ता न मिला होगा जिसके चलते उसे मौत को गले लगाना सबसे उत्तम विकल्प लगा होगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि हम जितने एडवांस होते जा रहे हैं उतने ही मानसिक रूप से कमजोर होते जा रहे हैं। तभी तो मौतों का आँकड़ा वर्ष दर वर्ष घटने के बजाए बढ़ता ही जा रहा है। 2017 में 129, 887 लोगों ने मौत को गले लगाया था। जो 2018 में बढ़कर 134, 516 एवं 2019 में 139, 123 पर जा पहुंचा। आत्महत्या करने वाले भी फांसी लगाकर जान देने को सबसे आसान तरीका मानते हैं। तभी कुल आत्महत्याओं में से 53.6 लोगों ने गले में फंदा डालकर मौत का रास्ता चुना।
बुंदेलखंड में तो आत्महत्याओं का एक लम्बा सिलसिला है। बीते दो दशकों से यहां आत्महत्या करने की प्रवृत्ति इस कदर पनप गई है कि लोग बात बेबात पर जान दे देते हैं। साल दर साल मौत का आँकड़ा बढ़ता रहता है लेकिन किसी भी सरकार ने मौत के वास्तविक कारणों को जानने का प्रयास तक नहीं किया। प्रशासन का काम केवल शव का पंचनामा कराकर पोस्टमार्टम कराना व परिजनों को उनका शव सौंपना रह गया है।
दूसरों से तुलना , दूसरे की देखादेखी होड करने की प्रवृत्ति आत्महत्याओं के लिए बड़ा कारण बन रही है। उपभोक्तावाद इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। हर कोई कम समय में ज्यादा कमाने की होड में है जबकि यह सब इतना आसान नहीं होता है। गलत तरीके से अगर कोई ऐसा करता भी है तो देर सबेर वह कानून के फंदे में फंस जाता है फिर उसे मौत ही आखिरी रास्ता नजर आता है। संयुक्त परिवारों का विघटन सबसे घातक साबित हुआ है। एकल परिवारों के कारण परिवार से मिलने वाला सभी प्रकार का सपोर्ट भी खत्म हो जाता है। अपनी ढपली अपना राग का परिणाम यह होता है कि कष्ट और दुख में उसे उबरने का कोई चारा नजर नहीं आता है। परिवारों में बच्चों को बचपन से प्रेशर मैनेजमेंट सिखाया नहीं जाता। लेकिन उच्च शिक्षा , जाॅब , कैरियर व परिवार के बीच में आए दिन विविध प्रकार के दबाबों का सामना करना पड़ता है ऐसे में तमाम लोग टूट जाते हैं और मौत को गले लगा लेते हैं।
याद रखने की जरूरत है आपाधापी भरे इस जीवन में तनाव व दबाबों के बीच में ही जिंदगी की गाड़ी आगे बढ़नी है। अगर आपको मंजिल तक पहुंचना है तो दबाबों व तनावों से निपटना सीखिए। विकट हालात में घबराइए नहीं। मानसिक दृढ़ता का परिचय कुछ इस अंदाज में दीजिए कि हर फिक्र को मैं धुंए में उडाता चला गया। पलायन या आत्महत्या कोई समाधान नहीं है।

राकेश कुमार अग्रवाल

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