डेढ़ माह बाद भी मारे-मारे फिर रहे प्रवासी मजदूर

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कोई पैदल तो कोई साईकिलों से दूरी नाप रहा घर की

राकेश कुमार अग्रवाल

कुलपहाड (महोबा) – सीने में जलन आंखों में तूफान सा क्यूं है , ये हालात इस समय देश के ज्यादातर उन मजदूरों के हैं जो डेढ माह बाद भी दर दर मारे फिर रहे हैं। हालात अभी भी इतने विकट हैं कि कोई मजदूर पैदल तो कोई साइकिलों से भूखे प्यासे अपने घर पहुंचने का सपना संजोए अनथक चले जा रहे हैं।
कोरोना वायरस गरीब प्रवासी मजदूरों पर कहर बन कर टूटा है। डेढ माह से हजारों किमी. दूर हाथ पर हाथ धरे बैठे मजदूरों पर जब सरकार ने भी ध्यान नहीं दिया और कंपनी मालिकों ने हाथ जोड लिए तो पैदल ही चल पडे कामगार। कोई दिन नहीं बीत रहा जिस दिन सैकडों की संख्या में कामगार अपने अपने घर पहुंचने की आस में न निकल रहे हों। गनीमत है कि स्थानीय प्रशासन ऐसे प्रवासी श्रमिकों को रोक कर उन्हें खिला पिला कर यहां से रवाना कर रहा है।
महाराष्ट्र के नासिक में एक पाइप कंपनी में काम करने वाले रामप्रसाद और कामता साईकिलों से १५ दिन पहले अपने घर कौशाम्बी के लिए निकले हैं। एक माह तक तो कंपनी मालिक ने खिलाया इसके बाद बोला कि अब आप लोग अपने घर चले जाओ। रोजाना १०० से १२० किमी. चलने वाले ये कामगार सुबह तीन बजे अंधेरे में सफर पर निकल पडते हैं। ११ बजे तक साईकिल पर पैडल मारते हैं , थकने पर रास्ते में थोडा सुस्ता लेते हैं। नीरज के अनुसार इसके बाद आराम करते हैं। दोपहर बाद चार बजे फिर निकल पडते हैं फिर रात में १०-११ बजे तक साईकिल चलाते हैं। दयाराम के मुताबिक आज दो दिन बाद खाने को अन्न मिला। मिल गया तो खा लिया नहीं तो पानी पी पीकर चलते रहते हैं। किशनपाल के अनुसार अब वह वापस महाराष्ट्र काम के लिए नहीं जाएगा. जिंदगी के बहुत रंग देख लिए। उसके अनुसार साहब गरीबी से बडा रोग कोई नहीं है। यही हाल राजस्थान से आ रहे बांदा के इंदौरा के उमेश, सतेन्द्र, रामकीरत, उमाशंकर, गुरुप्रसाद, मिथलेश व विनय का है जो १२ दिन से चले आ रहे हैं। ये सभी राजस्थान में पत्थर घिसाई का का करते थे। कहते हैं कि साहब हम लोग तो न घर के रहे न घाट के ।

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