राकेश कुमार अग्रवाल
अपने लिए तो सभी संघर्ष करते हैं लेकिन समय समय पर कुछ ऐसी विभूतियाँ भी हुईं हैं जिन्होंने व्यवस्था से पंगा लेकर समाज में व्याप्त कुरीतियों को बदलने का काम किया है.
आज ऐसे ही समाज सुधारक व शिक्षाविद ईश्वरचंद बंदोपाध्याय की 200 वीं जयंती है. 26 सितम्बर 1820 को जन्मे ईश्वरचंद को बहुविवाह व बाल विवाह पर अंकुश लगाने , महिला शिक्षा को बढावा देने व विधवा के पुनर्विवाह का कानून के बनने में योगदान के लिए आज भी याद किया जाता है.
ईश्वरचंद बंदोपाध्याय ने केवल कुरीतियों के विरुद्ध संघर्ष नहीं किया बल्कि उन्होंने हर उस व्यवस्था के खिलाफ अपने तरीके से प्रतिरोध किया जो उन्हें नागवार गुजरी।
ईश्वरचंद के जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग उनकी विद्वता और विरोध के तरीके की दाद देने के लिए काफी है.
ईश्वरचंद कोलकाता विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए चंदा मांगने ( आर्थिक मदद ) अवध के नवाब नसीरउद्दीन हैदर के पास गए थे। अवध का नवाब अपनी कंजूसी और अक्खडपन के लिए जाना जाता था। ईश्वरचंद अपनी दान की झोली लेकर जब नवाब के पास पहुंचे तो नवाब ने आभूषण या मोहरें देने के बजाए अपने पैर की जूती उतारकर उनकी झोली में डाल दी। नवाब की यह हरकत बौखलाने वाली थी लेकिन विद्यासागर झोली और जूती लेकर वापस आ गए . अगले दिन नवाब के महल के बाहर ईश्वरचंद नवाब की जूती की नीलामी करने पहुंच गए . नवाब की जूती खरीदने वालों की होड लग गई . आखिरकार सबसे बडी बोली लगाकर एक व्यक्ति ने वो जूती खरीद ली . जब यह खबर नवाब तक पहुंची तो वह ईश्वरचंद के इस उपक्रम पर न केवल खुश हुआ बल्कि जितनी स्वर्ण मुद्राओं में जूती नीलाम हुई थी उतनी ही स्वर्ण मुद्रायें नवाब ने दान स्वरूप ईश्वरचंद को अलग से सौंपीं . 24 जनवरी 1857 को कोलकाता विश्वविद्यालय की स्थापना हुई . यह उस समय एशिया की पहली उच्च शिक्षण संस्था बनी थी .
ईश्वरचंद के जीवन में अनगिनत ऐसी घटनायें घटीं जो लोगों को अविश्वसनीय लग सकती हैं . 1851 में ईश्वरचंद सहकारी संस्कृत कालेज के प्रिंसिपल बने . एक बार कालेज के काम से ईश्वरचंद अंग्रेज अफसर से मिलने उसके दफ्तर गए . वह अफसर सामने रखी मेज पर जूतों समेत अपने पैर फैलाए बैठा रहा . ईश्वरचंद को अंग्रेज अफसर का यह व्यवहार नागवार गुजरा लेकिन वह बिना किसी विरोध के दफ्तर से वापस आ गए . संयोग से कुछ महीनों बाद वही अंग्रेज अफसर आफिस के काम से एक दिन ईश्वरचंद विद्यासागर से मिलने उनके कालेज जा पहुंचा . ईश्वरचंद को जब सूचना मिली कि वही अफसर मिलने आया है तो ईश्वरचंद ने चप्पल पहने हुए अपना पैर सामने मेज पर रख दिया . वो कुर्सी में सिर झुकाए बैठे कालेज के कागज पलटते रहे . अंग्रेज अधिकारी की तरफ उन्होंने देखा तक नहीं और हाँ , हूं में उससे बात करते रहे . पैर पटकता हुआ वह अफसर बडे साहब के पास पहुंचा और उन्हें ईश्वरचंद की कार्यप्रणाली बताई . ईश्वर बाबू को बडे साहब के दफ्तर में बुलाया गया . वहाँ उन्होंने उसी शिकायतकर्ता अंग्रेज के तौर तरीके का हवाला देते हुए बताया कि दफ्तर में बैठने का यह मेरा सलीका नहीं है न ही मेरे ऐसे संस्कार हैं . यह तो अंग्रेज अफसर को उसी के अंदाज में समझाने का उपक्रम था, कि यह अशिष्टता है . और यह कृत्य क्षम्य नहीं है . इसके बाद वह अंग्रेज निरुत्तर हुआ उसने बडे साहब के समक्ष ईश्वरचंद से माफी मांगी और आइंदा इस तरह की हरकत न करने का वादा भी किया .
ईश्वरचंद विद्यासागर समय के मूल्य को समझते थे . इसलिए समय के बेहद पाबंद थे . वो जब कालेज जाया करते थे तो वहां के स्थानीय लोग अपनी घडियों का समय मिलाया करते थे . क्योंकि उनके आने – जाने का समय सुनिश्चित होता था .
बंगाल ने देश को एक से बढकर एक हस्तियाँ दी हैं. लेकिन 2004 में बंगाल में हुए एक सर्वेक्षण में उन्हें बंगाल का अब तक का सर्वश्रेष्ठ बंगाली मानुष चुना गया था .
अपने जीवनकाल में 52 पुस्तकों को रचने वाले ईश्वरचंद ने 17 पुस्तकें संस्कृत में 5 अंग्रेजी में और शेष बंगला भाषा में लिखीं .
अपने जीवन के आखिरी दो दशक झारखंड के जामताडा जिले के करमाटांड में संताल आदिवासियों के कल्याण के लिए समर्पित करने वाले ईश्वरचंद के नाम पर करमाटांड रेलवे स्टेशन का नाम विद्यासागर रेलवे स्टेशन कर दिया गया .
ईश्वरचंद ने ताजिंदगी अपने लडाकू विद्रोही तेवरों को अपनाए रखा . और तो और उन्होंने न केवल विधवा पुनर्विवाह की वकालत की बल्कि अपने इकलौते बेटे की शादी भी एक विधवा से की थी .
उनकी कथनी और करनी में अंतर नहीं था . यही कारण है कि ईश्वरचंद विद्यासागर को दो सौ वर्षों बाद भी हम उतनी ही शिद्दत से याद कर रहे हैं .