क्यों शिक्षक नहीं बनना चाहती नई पीढ़ी?

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राकेश कुमार अग्रवाल
भारतीय प्राद्यौगिकी संस्थान ( आईआईटी ) कानपुर के वरिष्ठ वैज्ञानिक और एनआईटीटीटीआर कोलकाता के निदेशक प्रोफेसर डी पी मिश्रा जिन्हें स्पेस क्राफ्ट के लिए ग्रीन ईंधन की खोज का श्रेय जाता है ने फरवरी 2019 से दिसम्बर 2020 के बीच एक सर्वे किया है . सर्वे के खुलासे आँखें खोलने वाले हैं . प्रोफेसर डी पी मिश्रा ने यूपी के 250 सरकारी और निजी स्कूलों के 35000 छात्रों के बीच जो सर्वे किया है उसके तथ्यों के मुताबिक महज दो फीसदी छात्रों ने शिक्षक बनने की ख्वाहिश बताई है .
सर्वे के मुताबिक 30 फीसदी छात्र इंजीनियर बनना चाहते हैं . 25 फीसदी छात्र डाॅक्टर बनने का सपना पाले हुए हैं . 30 फीसदी छात्रों का सपना सरकारी नौकरी करने का है . सर्वे की इससे भी चौंकाने वाली बात यह है कि शिक्षक बनने का सपना पाले हुए छात्रों से पांच गुना छात्र तो व्यवसाय / कारोबार करने के इच्छुक हैं . शिक्षक बनने से ज्यादा तीन फीसदी छात्रों ने बतौर करियर अन्य विकल्प बताए हैं . सर्वे के मुताबिक नौकरी की चाह रखने वाले लोगों की तादात 85 फीसदी है .
सवाल यह है कि वह छात्र जो बचपन से ही
गुरु गोविंद दोऊ खडे काके लागूं पांए
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए .
कबीर के इस दोहे की अपने ही गुरु से सन्दर्भ सहित व्याख्या पढता रहा हो . जिसने प्रत्येक शिक्षक दिवस पर अपने गुरु को श्रद्धा के साथ सिर नवाया हो उस गुरु से महज इक्का दुक्का छात्र ही उन जैसा बनने की प्रेरणा ले पाए हों . यह परिदृश्य वाकई डरावना है .
जिस भारतीय संस्कृति में गुरु को लेकर यहां तक कहा गया है कि
गुरूर ब्रह्मा गुरूर विष्णु
गुरूर देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात परब्रह्म
तस्मै श्री गुरुवे नम:
गुरु की महत्ता का इतना बखान होने के बावजूद कोई गुरु नहीं बनना चाहता .
यह बहुत ही गंभीर विषय पर जिस पर देश , समाज व शिक्षा जगत से जुडे लोगों को तत्काल चिंतन मनन करने की आवश्यकता है . कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि व्यक्ति निर्माण करने वाली इकाई के प्रति किसी भी छात्र का लगाव तो छोडिए झुकाव तक नहीं है . माना कि बच्चे डाक्टर , इंजीनियर बनना चाहते हैं लेकिन डाॅक्टर , इंजीनियर भी तो कोई फैक्टरी या मशीन नहीं गुरु ही बनाता है .
मुझे यह लिखने में कोई गुरेज नहीं है कि जब मैं पढता था तब बचपन में बुंदेलखंड में यह माना जाता था कि जो पढ लिखकर कुछ नहीं बन पाता है वो अंतत: वकील बन जाता है . मतलब पढे लिखे व्यक्ति का उस समय लास्ट ऑप्शन वकालत होती थी . लेकिन वर्तमान में पढे लिखे व्यक्ति का लास्ट ऑप्शन टीचिंग ( अध्यापन ) हो गया है . इसका भी एक बडा कारण सरकारी शिक्षक का वेतन भी पहले से बेहतर हो गया है . कोई एकाउंटेबिलिटी नहीं है . अधिकतम छह घंटे ड्यूटी ऑवर है . राजनीति करने के भी आप पात्र हैं . बडी कक्षाओं में तो पठन पाठन का भगवान मालिक है . कालेजों में तो रिक्त पदों की संख्या तैनात पदों के सापेक्ष में भी कम है . बडी कक्षाओं के स्टूडेंट्स पूरी तरह से कोचिंग और ट्यूशन पर निर्भर हैं . जो शिक्षक तैनात हैं भी वो भी अपने प्रोफेशन के प्रति कितने ईमानदार हैं यह किसी से छिपा नहीं है . तिस पर शिक्षकों के ढेर सारे संघ बने हुए हैं जो उनकी छतरी बनकर तन कर खडे हो जाते हैं .
पश्चिमी देशों में शिक्षक बनना सबसे नोबेल प्रोफेशन माना जाता है . वहां पर कैरियर की टाॅप च्वाइस टीचिंग मानी जाती है . टीचिंग वहां पर सबसे रिस्पेक्टबल जाॅब मानी जाती है . जबकि हमारे समाज में यह लास्ट ऑप्शन बनकर रह गया है . मरता क्या न करता ? मरता टीचिंग करता . बुंदेलखंड में ऐसे तमाम सरकारी कालेज हैं जिनमें दसियों वर्षों से बल्कि जबसे कालेज खुले हैं तबसे शिक्षकों के पदों की शासन स्तर से तैनाती नहीं की गई है . दो चार शिक्षक तैनात भी होते हैं तो एक दो साल बाद शासन स्तर से स्थानांतरण कराकर अपने गृहनगर चले जाते हैं . चौंकाने वाली बात यह है कि महज दस से चालीस फीसदी स्टाफ की तैनाती , विषयों के शिक्षक न होने के , न के बराबर प्रक्टिकल होने के बावजूद भी छात्रों के परीक्षाओं में बेहतरीन अंक आ रहे हैं .
नई पीढी का शिक्षक न बनना पहली च्वाइस नहीं है तो इसका मतलब साफ है कि न तो सरकारें , न उनके शिक्षा नियामक न शिक्षण संस्थायें न ही शिक्षक ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर पा रहे हैं जिसे देखकर नई पीढी में शिक्षक बनने की ललक या लालसा पैदा हो . बार बार यह समझने की जरूरत है कि शिक्षक पेशे को लेकर यह हालात एक दो दिन में पैदा नहीं हुए हैं . इस कोरोना काल में सबसे ज्यादा दुर्गति भी निजी स्कूलों में शिक्षण कर रहे शिक्षकों की हुई है . जो दाने दाने को मोहताज हो गए हैं . जिस पेशे से जुडकर खुद शिक्षक का भविष्य अंधकार में हो ऐसे में भला कौन इस पेशे में जाना चाहेगा ?

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