-हमारा लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है ?
-इस बार भी उप्र में वही सब कुछ हुआ जो पिछले कई दशकों से पंचायत चुनाव में होता आया है। ज़िला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में जीत के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने प्रत्याशियों को धमकी, वोटरों का कथित तौर पर अपहरण और फिर खरीद-फरोख्त। सब कुछ खुल्लम-खुल्ला।
– अब जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी स्थिति हो गई है।
हालांकि ये बात कुछ एक दलों को छोड़कर तथाकथित राजनीतिक पार्टियों पर लागू होती है।
निर्विरोध होकर आने से तानाशाही पैदा होती है।
सियासी दल भले ही जिम्मेदारी न लें, लेकिन उनकी शह पर ज़िला पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों ने तरह-तरह के हथकंडे अपना रहे है। कहीं दारू की नदियां बहाई जा रहीं है तो कहीं पैसा और देशाटन हो रहा है अगर कोई इनसे भी न माना तो उस पर गुंडों और पुलिस के डंडे बज रहे है। यही कारण है कि पंचायत चुनाव में जिसकी लाठी उसकी भैंस का मुहावरा सत्यार्थ होता दिख रहा हैं। कुछ एक जगहों को छोड़ दिया जाए तो सत्तारूढ़ दल के आगे सभी ने घुटने टेक दिए।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पंचायत चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं लड़े जाते। इसीलिए सत्तारूढ़ दल की दबंगई इसमें चलती है। पहले तो जोर-जबरदस्ती निर्विरोध निर्वाचन कराया जाता है। इसमें सफलता नहीं मिलती तो जीत के संभावित उम्मीदवार को अपना प्रत्याशी बता दिया जाता है। मतदान के दिन जिस पार्टी के पक्ष में ज्यादा वोट पड़ रहे होते हैं दबाव में उसे चुनाव जितवाने की कोशिश की जाती है। कमोबेश यही हाल ब्लाक प्रमुख के चुनाव का भी है।
कुछ अपवाद भी होंगे, लेकिन अधिकाँश चुने हुए पंचायत प्रतिनिधिगण खरीद बिक्री के खेल में दिन रात लगे हुए है… जो ‘बिक’ जायेंगे वे उन्हें अपने इलाके के लिए विकास निधि में हिस्सा मांगने का नैतिक साहस नही बचेगा और पांच साल दरबारीगिरी में गुजारेंगे… जो कुछ नही बिकने वाले होंगे वे अधिकार के साथ अपने हिस्से का विकास कार्य करवा पायेंगे… चर्चा के अनुसार कई जिलो में खरीद बिक्री का यह खेल 50-100 करोड़ तक होने की सम्भावना है… खैर उसके बारे में अधिकारी, सरकार, आयकर विभाग आदि समझे…. मुझे तो बस इतना ही लगता है कि ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव भी ग्राम प्रधान की तरह जनता के सीधे वोट से होना चाहिए….
धन्यवाद
द्वारा
राजकुमार गुप्ता
पूर्व ब्लाक प्रमुख प्रत्याशी आराजी लाईन वाराणसी