बंगाल – ये कौन सा खेला होबे

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राकेश कुमार अग्रवाल
पश्चिमी बंगाल के बारे में जितना पढा व सुना था उसका फलसफा यही था कि बंगाली भद्रजन होते हैं . यह सोचकर भी मन इस बात को गवारा करने को तैयार नहीं है कि चुनावी राजनीति ने बंगालियों के मिजाज में इतनी कडवाहट व कसैलापन ला दिया होगा कि जिसके चलते बंगाल पूरे देश में चुनावी हिंसा का सिरमौर बन गया है .
चुनावों के पहले भी पश्चिमी बंगाल में हिंसा की बडी संख्या में घटनाएँ हुई थीं जिनमें एक सैकडा से अधिक भाजपा कार्यकर्ता मारेे गए थे . पांचों राज्यों की चुनावी प्रक्रिया संपादित होने के बाद जिस राज्य से लगातार हिंसा की घटनाएं व इस हिंसा में मारे गए लोगों की मौत की खबरें आ रही हैं वे वाकई राजनीति के विद्रूप होते चेहरे को ही बयां कर रही हैं . भाजपा ने चुनाव बाद हुई हिंसा में अब तक उसके 9 कार्यकर्ताओं के मारे जाने की बात कही है . केवल पार्टी विशेष के लोगों , कार्यकर्ताओं को निशाना ही नहीं बनाया जा रहा है बल्कि जान से मारने व आगजनी जैसी घटनाएं बता रही हैं कि हालात कितने विकट हैं . हिंसा की घटनाओं को देखते हुए पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा कोलकाता पहुंच गए हैं . वे हिंसा में मारे गए कार्यकर्ताओं के घर जाकर उनके परिजनों को ढाढस बंधा रहे हैं . प्रधानमंत्री ने राज्यपाल से फोन पर बात कर चुनाव बाद हिंसा पर चिंता जताई है . उन्होंने ममता बनर्जी से राज्य में बेरोकटोक रूप से हो रही हिंसा पर अपनी चिंता साझा की . बंगाल के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने आरोप लगाते हुए कहा है कि टीएमसी के गुंडे चुन चुन कर भाजपा कार्यकर्ताओं पर हमले कर रहे हैं . दूसरी तरफ टीएमसी के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन हिंसा की घटनाओं पर कहते हैं कि प्रधानमंत्री स्टंट करना बंद करें और कोरोना से देशवासियों को बचाएं .
भाजपा प्रवक्ता गौरव भाटिया ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी दायर कर बंगाल में हो रही हिंसक घटनाओं की सीबीआई जांच की मांग की है . अभिनेत्री कंगना रानौत ने तो बंगाल की हिंसा के विरोध में मुखर होते हुए अपने ट्वीट में हिंसा को लोकतंत्र की मौत बताते हुए बंगाल में अविलम्ब राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर डाली . ट्विटर ने कंगना के ट्वीट को भडकाऊ और आपत्तिजनक मानते हुए उनका ट्विटर एकाउंट निलम्बित कर दिया है .
जिस तरह शादी के लिए कहा जाता है कि शादी वो लडडू है जो खाए वो पछताए जो न खाए वो पछताए . कमोवेश उसी तरह से राजनीति का लड्डू भी हर पाॅलिटीशियन खाना चाहता है . लेकिन लोकतंत्र के इस दंगल में हर किसी के लिए जीतना इतना आसान भी नहीं होता है . ऐसे में सवाल यह उठता है कि राजनीति में हिंसा कहां से आई . वो भी भद्र बंगालियों के राज्य में . अतीत में झांके तो इसके सूत्र राज्य में नक्सलवाद के उभार से मिलते हैं . बंदूक की गोली के दम पर सत्ता तक पहुंचने का यह खेल पांच दशक बाद भी जारी है . कांग्रेस के सत्ता से बेदखल होने के बाद सीपीएम ने राज्य में सत्ता की चाबी हासिल की . माकपा ने 34 सालों तक बंगाल में राज किया . माकपा का अंतिम दौर आने के पहले माकपा का कैडर भी इसी हिंसक राजनीति का शिकार हो गया था . उस समय माकपा के गुंडों की गुंडई का विरोध करना भी मौत को दावत देना सरीखा था . ममता बनर्जी ने माकपा की इस हिंसक राजनीति को ललकारा भी . धीरे धीरे ही सही ममता माकपा की जगह लेती गई और ऐसा वक्त भी आया कि जब माकपा बंगाल की राजनीति में किनारे लग गई . लेकिन दुर्भाग्य से जिस हिंसक राजनीति से ममता पंगा लेकर सत्ता की दहलीज तक पहुंचीं उनकी पार्टी भी उसी हिंसक राजनीति के व्यामोह का शिकार हो गई .
सत्ता हथियाने के लिए डरा धमका कर , मार पिटाई या उपद्रव करके वोट हथियाने या बूथ कैप्चरिंग का तीन दशक पहले दौर रहा है . बिहार और यूपी इसमें अग्रणी थे . राजनीतिक विरोधियों से झगडा भी होना आम बात थी . आज भी चुनावी खुन्नस में इक्का दुक्का हत्यायें हो जाती हैं जहां दबंग प्रत्याशी और उसके समर्थक कमजोर को निशाना बना लेते हैं . लेकिन बडी पार्टी के कार्यकर्ता कबीलाई अंदाज में हिंसा पर उतर आएं और इस हिंसा को शीर्ष नेतृत्व मूक दर्शक बन देखता रहे ऐसा कभी नहीं हुआ था . बंगाल में ही नहीं केरल में भी राजनीतिक हिंसा व हत्यायेें हुई हैं . भाजपा का जिस तेजी से ग्राफ बढा है उससे बौखलाहट होना स्वाभाविक है . लेकिन इस खीझ को उतारने के लिए हत्या व आगजनी की राजनीति को जायज नहीं ठहराया जा सकता है . राजनीति विचारों व मुद्दों का मंच है . तथ्यों व तर्कों की कसौटी पर संवाद का मंच है न कि हथियारों व गिरोहबंद होकर खूनखराबा करना. कोई नेता या पार्टी अजेय नहीं है . ऐसे में यदि आज किसी एक दल की जमीन खिसक रही है तो उसे याद रखने की जरूरत है वह भी किसी की जमीन को हथिया कर उस पर काबिज हुआ था . याद रखने की जरूरत है कि राजनीति में सत्ता किसी दल की बपौती नहीं होती है .

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