बिहार विधानसभा चुनाव

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चुनावी सर्कस का नया दौर – प्रत्याशी और पार्टी से ज्यादा मतदाता असमंजस में


राकेश कुमार अग्रवाल
चुनावों को लोकतंत्र का पर्व कहा जा सकता है . चुनावों की दृष्टि से देश के सबसे संवेदनशील , जागरुक व चर्चित राज्य बिहार में कोरोना काल में सबसे तगडा चुनाव होने जा रहा है . क्योंकि इन चुनावों में जितना प्रत्याशी और पार्टियां भ्रमित हैं उससे ज्यादा भ्रम में बिहार का वोटर है . एक तरफ चुनाव में युवा बनाम अधेड राजनीतिज्ञों में मुकाबला होने जा रहा है . दूसरी तरफ इन चुनावों में ढेर सारे गठबंधन किस्मत आजमा रहे हैं . बिहार की राजनीति के दो दिग्गजों लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान की नामौजूदगी में हो रहे चुनावों में रोचकता और सस्पेंस पहले की तरह बरकरार है .
इस बार चुनाव नीतीश कुमार और लालूयादव का न होकर गठबंधनों का पिटारा है .
चुनावों में एक गठजोड में जनता दल यूनाइटेड – भाजपा , मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी व हम हैं तो दूसरे गठजोड में राष्ट्रीय जनता दल – कांग्रेस व वामदलों का गठबंधन है . एक गठबंधन बसपा – रालोसपा – व एआईएमआईएम का है . पप्पू यादव की जनाधिकार पार्टी भी चुनावी मैदान में है.
243 निर्वाचन क्षेत्रों के 7.29 करोड मतदाताओं को नई सरकार को चुनना है .
2015 के विधानसभा चुनावों से इस बार का चुनाव पूरी तरह अलग होगा क्योंकि 2015 के चुनावों में पार्टियों के जो गठबंधन व चेहरे थे उनमें से बहुत कुछ बदल गया है . 2015 में तीन दिग्गजों के महागठबंधन ने जीत की इबारत लिखी थी . नीतीश कुमार , लालू प्रसाद यादव व कांग्रेस पार्टी का महागठबंधन था . लालू की राजद को 80 , नीतीश की जदयू को 71 और कांग्रेस पार्टी ने 27 सीटें जीतकर भाजपा और उसके गठबंधन का सूपडा साफ कर दिया था . इस चुनाव में भाजपा को महज 53 सीटें हासिल हुई थीं . भाजपा ने रामविलास पासवान की एलजेपी , उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की हम ( हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा ) से गठबंधन कर रखा था . महागठबंधन की आंधी में भाजपा के गठबंधन के सहयोगी महज पांच सीट जीत सके थे .
बिहार की राजनीति ने एक बार फिर तब पलटा खाया जब जुलाई 2017 में नीतीश कुमार महागठबंधन को टाटा बाॅय बाॅय बोलकर फिर से भाजपा के एनडीए गठबंधन का हिस्सा बन गए . जिसका तात्कालिक लाभ भाजपा व एनडीए को लोकसभा चुनाव में मिला जब बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 सीटें एनडीए की झोली में आ गिरीं .
इस बार का चुनाव बिहार की राजनीति की धुरी लालू प्रसाद यादव की गैर मौजूदगी में हो रहा है . लालू प्रसाद यादव मई , 2018 से जेल में हैं . उनके बेटे तेजस्वी प्रताप यादव 2017 से पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं . लालू को बीच में महज छह सप्ताह की अस्थाई जमानत मिली थी . लालू के दांवपेंच , मुद्दों का ध्रुवीकरण करना , ठेठबिहारी अंदाज में मतदाताओं से जुडना , नए नए जुमले गढना इन चुनावों में मतदाता सब कुछ मिस करने जा रहा है. चुनाव परिणामों के बाद जरूरत पडने पर गठबंधन को अंतिम रूप देना भी नए नवेले तेजस्वी के लिए सहज नहीं होगा . कमोवेश ऐसी ही स्थिति लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान की है . बिहार चुनावों के दौरान ही लोकजनशक्ति पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान का निधन हो गया . पार्टी की बागडोर उनके बेटे चिराग पासवान के पास है . 2015 की तरह इस बार भी 42 सीटों पर चुनाव लडने का दावा चिराग ने किया था . लेकिन सीटों के बंटवारे में उनके पक्ष में इतनी सीटों पर सहमति न होने पर उन्होंने नीतीश कुमार से दूरी रखने और गठबंधन में शामिल न होने का फैसला लिया . अलबत्ता भाजपा और मोदी से उन्हें कोई शिकायत नहीं है . और तो और वे बिहार की अगली सरकार भाजपा और लोजपा गठबंधन की सरकार का दावा कर रहे हैं . कहां 42 सीटों की मांग कर रही चिराग की लोजपा अब 143 सीटों पर अपने प्रत्याशी लडाने जा रही है . रामविलास पासवान का न होना उनके पक्ष में थोडी बहुत सहानुभूति पैदा कर सकता है . ” बिहार फर्स्ट , बिहारी फर्स्ट ” का नारा देकर उन्होंने समूचे बिहारियों का जुमला उछाला है .
जिस तरह से इन चुनावों में पार्टियों और गठबंधनों की बहार है .मुकाबला आमने सामने का या फिर त्रिकोणीय नहीं बल्कि बहुकोणीय होने जा रहा है . कोरोना काल में जो पार्टी मतदाताओं को बूथ तक लेकर जाएगी वह निश्चित तौर पर फायदे में रहेगी .

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