राकेश कुमार अग्रवाल
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों का वक्त ज्यों ज्यों करीब आता जा रहा है त्यों त्यों राजनीतिक समीकरणों का खेल ध्रुवीकरण की ओर बढता प्रतीत हो रहा है . जिस तरह के हालात बन रहे हैं उनके मुताबिक राज्य में इस बार का चुनावी ध्रुवीकरण मुस्लिम और ब्राह्मणों को लेकर होने जा रहा है . यह ध्रुवीकरण टिकट बंटवारे से लेकर मतदाताओं को भरमाने तक सभी ओर नजर आएगा .
शुक्रवार से बसपा ने इस ध्रुवीकरण की विधिवत शुरुआत अयोध्या से कर भी दी है . पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्र ने अयोध्या में रामलला व हनुमान गढी में दर्शन करने के बाद तारा रिसोर्ट पहुंचकर प्रबुद्ध वर्ग विचार गोष्ठी में प्रबुद्ध वर्ग का सम्मान , सुरक्षा व तरक्की कैसे हो इस विषय पर चर्चा करना है . बसपा सुप्रीमो पहले ही पूरे प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन करने की घोषणा कर चुकी हैं जिसकी शुरुआत अयोध्या से हुई है . पार्टी महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र चुनावों के पहले प्रदेश के सभी 75 जिलों में पहुंचकर न केवल ब्राह्मण सम्मेलन करेंगे बल्कि उन्हें बसपा के पक्ष में लामबंद होने के न केवल फायदे गिनायेंगे बल्कि बसपा में ब्राह्मणों का भविष्य सुरक्षित है इसकी गणित भी समझायेंगे . उत्तर प्रदेश 2022 का चुनाव दरअसल भाजपा , सपा व बसपा तीनों प्रमुख दलों के लिए करो या मरो का प्रश्न बन गया है . सत्ता की देहरी तक पहुंचने के लिए जातियों और वर्गों के ध्रुवीकरण के बिना यह संभव भी नहीं है . क्योंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस तरह से आत्मविश्वास से लबरेज हैं एवं उन्हें अपने कामकाज व नीतियों के भरोसे दूसरी ईनिंग खेलने की न केवल महत्वाकांक्षा जाग गई है बल्कि वे दूसरी पारी खेलने के लिए बहुत हद तक आश्वस्त भी नजर आ रहे हैं .
योगी का जिस तरह का अंदाज है उससे इस बात के भी पूरे आसार नजर आ रहे हैं कि योगी दूसरी बार जनादेश मांगने के लिए जब जनता की अदालत में जाएंगे तो वे बैकफुट पर खेलने के बजाए अपने कामों के दम पर फ्रंट फुट पर खेलना पसंद करेंगे . योगी जिस तरह से कांफिडेंट हैं उससे उसने सपा व बसपा के खेमे में असमंजस व चिंता के हालात बना दिए हैं .
बीते दो दशकों का चुनावी आकलन किया जाए तो किसी भी सरकार ने अकेले दम पर दोबारा जीत कर सत्ता में पुनर्वापसी नहीं की है . लेकिन योगी की कार्यप्रणाली ने प्रदेश में एक नई तरह की तेजतर्रार कार्यशैली को जन्म दिया है . वे ऐसा कुछ कर जाते हैं जो अभी तक प्रदेश की राजनीति में अकल्पनीय व अविश्वसनीय था . ऐसा माना जाता है मतदाता बदलाव चाहते हैं इसलिए कई बार सत्तारूढ सरकार एंटी इंकमबैन्सी फैक्टर का शिकार हो जाती है और सत्ता में वापसी नहीं कर पाती है . हालांकि भाजपा आश्वस्त है कि बाबा एक बार फिर जीत का जश्न मनाने का मौका देंगे . ऐसे में सत्ता में वापसी को लेकर सपा और बसपा कोई कोर कसर नहीं छोडना चाहते हैं . क्योंकि इन दोनों दलों का वजूद और संभावनायें केवल उत्तरप्रदेश तक सीमित हैं . इसके पहले भी ये दोनों दल प्रदेश में अकेले व गठबंधन की सरकार बना चुके हैं . बसपा 2006 में ब्राह्मणों को पार्टी के पक्ष में जोडकर 2007 में अकेले दम पर बहुमत की सरकार बना चुकी है . बसपा का दलित , मुस्लिम और ब्राह्मण का फार्मूला कारगर रहा था . दस सालों से बसपा प्रदेश की सत्ता से दूर है इसलिए पुराने आजमाए हुए समीकरण को फिर से धार देने के लिए वह ब्राह्मणों की शरण मे जाने को मजबूर हुई है . क्योंकि मुस्लिमों पर बसपा की पकड कमजोर हुई है . नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे कद्दावर मुस्लिम नेता भी बसपा के पास नहीं हैं . मुस्लिमों पर बसपा से ज्यादा हक सपा अपना समझती है . ऐसे में ब्राह्मणों को बसपा के साथ एकजुट करने की रणनीति में चौंकाने जैसा कुछ भी नहीं है . प्रदेश में ब्राह्मण किसी एक दल का कट्टर वोटर या सपोर्टर नहीं है . जहां ब्राह्मणों को लगेगा कि उसके सजातीय को मौका मिला है वहां अपने प्रत्याशी के पक्ष में वे एकजुट हो सकते हैं .
ब्राह्मणों की बडी खूबी यह भी है कि उन्हें किसी पार्टी से परहेज नहीं है . वे कांग्रेस , भाजपा , सपा व बसपा सभी दलों में हैं एवं सभी दल उन्हें इसलिए तवज्जो भी देते हैं क्योंकि उन्हें पैरवी करना , अपनी बात रखना , एकजुट होना और दूसरों के मुकाबले ज्यादा बेहतर तरीके से आता है . समीकरणों का बनना बिगडना तय करेगा कि किस पार्टी का ऊँट किस करवट बैठ सकता है . बसपा सुप्रीमो मायावती ने महासचिव सतीश चन्द्र मिश्र के कंधों पर बडा दायित्व डाल दिया है लेकिन बसपा के लिए इस बार 2007 का चुनाव परिणाम दोहराना इतना आसान भी नहीं होगा .