राकेश कुमार अग्रवाल
वो समय दूर नहीं जब भारत को परेड मय देश कहा जाएगा . 26 जनवरी को दिल्ली में होने वाली गणतंत्र दिवस परेड ने बीते सत्तर सालों में जितनी सुर्खियां नहीं बटोरीं उससे कहीं ज्यादा सुर्खियाँ इस बार किसानों की प्रस्तावित ट्रेक्टर परेड बटोर रही है .
आजादी के समय किसानों के सबसे बडे साथी उनके हल और बैल होते थे . इन्हीं बैलों के उपयोग से बैलगाडी बनी जो कृषि उपज , घास , बीज , भूसा आदि को खेत तक लाने ले जाने के काम आती थी . आजादी के समय का युग बैलगाडी युग कहलाता था . बैलगाडी और तांगा उस दौर के आवागमन के बडे माध्यम थे . आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी जब 1930 में मेरे गांव कुलपहाड आए थे . उन्हें कुलपहाड से 40 किमी. दूर राठ जाना था . उस समय आवागमन की सुविधाओं व साधनों का नितांत अभाव था . बतातें हैं कि महात्मा गांधी बैलगाडी पर सवार होकर राठ गए थे . जिस तरह से नेता जी की एम्बेसडर की जगह फार्चूनर , पजेरो व स्कार्पियो ने ले ली है उसी तरह किसानों के हल और बैलगाडी की जगह अब ट्रेक्टरों ने ले ली है . जिनका उपयोग किसान जुताई , बुबाई , फसल को घर लाने से लेकर फसल को मंडी बेचने के लिए ले जाने के अलावा सपरिवार धार्मिक स्थानों और मेला – ठेला में ले जाने के लिए इस्तेमाल करते हैं . एक तरह से देखा जाए तो ट्रेक्टर किसानों की लाइफ लाईन की तरह है . खेत खलिहानों या घरों के बाडे में नजर आने वाला ट्रेक्टर पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में नुमायां होने जा रहा है . दिल्लीवासियों के लिए तो ये बडा कौतुहूल का विषय होगा जब हजारों की संख्या में ट्रेक्टरों और किसानों को बच्चे अपनी नंगी आँखों से देखेंगे . मर्सिडीज , बीएमडब्ल्यू , ऑडी , जगुआर जैसी गाडियों और मैट्रो को देखने वाले बच्चे जब ट्रेक्टरों पर लदे फदे किसानों को देखेंगे तो देखते रह जाएंगे . हो सकता है कि दिल्ली के बच्चों ने 6 पहिए वाली बसें और ट्रक तो देखें हों लेकिन दो पहिए आगे , दो पहिए मध्य में व दो पहिए पीछे और वह भी सभी पहिए अलग अलग साइज के देखकर दिल्ली के लोगों को बडा मजा आएगा . उनके लिए यह वाहन किसी अजूबा से कम नहीं होगा . दिल्ली के बच्चे पहली बार आँखों के सामने किसानों को देखेंगे जिनके बारे में उन्होंने अभी तक किताबों में पढा था . क्योंकि राजपथ पर परेड देखने वाले दिल्ली के बच्चे टाई सूट धारी साहबों या फिर झक सफेद खद्दर धारी नेताओं या फिर गोरी चमडी वाले राजनयिकों को देखने के आदी रहे हैं उन्हें पहली बार किसान और उनका ट्रेक्टर देखने को मिलेगा .
देश में परेड तो 1950 से निकल रही है . पहली परेड तत्कालीन इरविन स्टेडियम में निकाली गई थी जिसका नाम बदलकर नेशनल स्टेडियम हो गया है . 1954 में तीन अलग अलग स्थानों किंग्सवे , लाल किला , रामलीला मैदान पर परेड निकाली गई . आज कल जो परेड निकाली जाती है यह रायसीना हिल से राजपथ , इंडिया गेट होते हुए लालकिला पहुंचती है . यह परेड 8 किमी. लम्बी होती है . लेकिन ट्रेक्टर परेड इससे कहीं ज्यादा दूरी तय करेगी . जिससे दिल्ली के तमाम वंचित लोग किसान और ट्रेक्टर देख लेंगे .
परेड केवल राजपथ पर होती हो ऐसा भी नहीं है . अब तो साल में दो तीन बार देश के किसी न किसी प्रांत में राजभवन में विधायकों की परेड हो जाती है . जब विपक्षी सांसदों की सरकार नहीं सुनती है तो परेड करते हुए तमाम पार्टी के सांसद महामहिम के पास पहुंच जाते हैं . परेड और मीडिया का चोली दामन का साथ है . परेड चाहे राजपथ पर हो , राजभवन में या रायसीना हिल पर मीडियाकर्मी ओ बी वैन और कैमरों के साथ मौजूद रहते हैं ताकि जो व्यक्ति झुमरीतलैया में बैठा है और परेड नहीं देख पा रहा हो तो वो भी परेड से वंचित न रह जाए . वो दिन दूर नहीं जब समाचार पत्रों और चैनलों में परेड रिपोर्टरों की विशेष तौर पर नियुक्ति होगी . जिसके लिए धक्का मुक्की करते हुए 10-15 किमी. पैदल चलना अनिवार्य होगा . लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि जय जवान जय किसान . जवानों को तो सधे कदमों से कदमताल करते हुए परेड में हम लोग सत्तर सालों से देखते आ रहे हैं . किसान जरूर गणतंत्री परेड से गायब था . अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी में जय विज्ञान और जोड दिया था . वैज्ञानिक ज्यादातर अपनी लैब में ही परेड करते रहते हैं . उन्होंने कोविड 19 से निपटने के लिए वैक्सीन बनाकर अपनी परेड की सार्थकता साबित कर दी है .
मुझे तो डर है कि कहीं बेरोजगारों ने भी परेड में हिस्सा लेने की घोषणा कर दी तो ऐसी स्थिति में तब क्या होगा ? दिल्ली में तो परेड का महाकुंभ हो जाएगा . तब तो दिल्ली वालों को घर बैठे मुफ्त में सर्कस रूपी परेड देखने को मिलेगी .
आओ परेड-परेड खेलें
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