कोरोना नहीं भूख बनेगी मानव की बड़ी दुश्मन

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– शासन व प्रशासन के द्वारा किए गए इंतजामों में आम लोगों के साथ ही एनजीओ को भी मदद करनी होगी

– भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ अन्य पार्टियों के कार्यकर्ता भी जुटने चाहिए

संदीप रिछारिया

कोरोना के रूप में आई वैश्विक महामारी की चपेट में लगभग पूरा विश्व आ चुका है। अब ताकतवर अमेरिका के साथ अन्य सभी विकसित देशों का हाल यह है कि वह खुद अपनी मदद के लिए भगवान की तरफ लाचारी से देख रहे हैं। हमारा 130 करोड भारतीयों वाला देश भी कोरोना की चपेट में आ चुका है। भले ही अभी कोरोना पाजिटिव के आंकड़े बहुत कम दिखाई देे रहे हैं, पर शनिवार की रात व उसके पहले के दृश्य जो दिल्ली के आनंद बिहार बसस्टैंड व सड़कों पर दिखाई दिए वे आंखें खोल देने वाले हैं। अभी तक तमाम सामर्थ्यवान लोग प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री राहतकोष में धन देने के साथ ही अपनी -अपनी तरफ से मदद करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन यह मदद कैसे व किस प्रकार की जाएगी, इसका पूरा प्लान अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। विचारणीय बात यह है कि इस वैष्विक महामारी से जंग की तैयारी किसी भी देश ने कभी की ही नहीं। इसका कारण भी साफ है कि अभी तक जंग केवल अपनी सामाजिक शक्ति के प्रदर्शन को लेकर ही की जाती रही है। उसके लिए सब इंतजाम किए जाते थे, दूसरी जंग दूसरे गृहों पर जाने को लेकर की जा रही थी। लेकिन अब अगली जंग हमें कोरोना के साथ भूख की महामारी को लेकर करनी होगी।

यहां पर यह बताना जरूरी है कि भारत कृषि प्रधान देश है। आज भी यहां की 85 फीसद आबादी गांवों में रहती है। गांवों में रोजगार की कमी के कारण लोग मौसमी या पूर्ण रूप से पलायन कर शहरों की ओर जाते हैं। ऐसे में जब लाॅक डाउन हुआ और शहरों में काम समाप्त हो गया तो वहां से गांव वापस आने का रास्ता ही लोगों के लिए बचा तो वह लोग क्या करेंगे। आनंद विहार व के साथ ही देश के लगभग हर बडे व छोटे शहर से वापसी के लिए लोग परेशान हैं। दिल्ली के हंगामें को देखकर राज्य सरकारों ने लोगों को उनके घरों में भेजने का प्रबंधक भी किया। लेकिन मामला यहीं पर नही खत्म होता, क्योंकि अभी भी देश के 90 फीसद लोग न तो सरकारी नौकरी करते हैं और न ही वह पूर्ण कालीक प्राइवेट नौकरियों में हैं। अब ऐसे में रोज कमाकर अपना पेट भरने वालों के हाल यह है कि उन्हें सरकार ने एक हजार रूपये देने का काम किया है, लेकिन उनमें भी कितने लोग रजिस्टर्ड है , इसकी संख्या भी जान लेना जरूरी है। क्योंकि इनमें भी 80 फीसद से ज्यादा का रजिस्ट्रेशन हुआ ही नहीं। रेहडी लगाने वाले, बैठकर अपना छोटा मोटा व्यवसाय कर पेट भरने वाले लोग भी देश में भारी मात्रा में हैं। इन सभी की हालत देखी जाए तो इनके पास दो से तीन दिनों का ही भोजन घरों में होता है। अब लाॅक डाउन और जनता कफर्यू को जाड़ दिया जाए तो एक सप्ताह से उपर का समय बीत चुका है। इस समयांतर में अब इन परिवारों के पास भी राशन खत्म हो गया होगा। आने वाले समय में जब यह लोग घर से नही निकल सकते और न ही इनके पास पैसा है तो इनका परिवार कैसे जीवित रहेगा। इसकी कल्पना करके ही दिल बैठ जाता है। प्रशासन को चाहिए कि सामुदायिक रसोई के जरिए बिना किसी प्रचार के इस तरह के सभी लोगों को चिन्हित कर उनके पास प्रतिदिन दो समय का भोजन उपलब्ध कराएं जिससे कम से कम उनका जीवन भूख से तो सुरक्षित रह पाए। सामथ्र्यवान लोगों को चाहिए कि वह लोग अपनी तरफ से इस तरह के परिवारों को चिन्हित कर उनको भोजन उपलब्ध कराएं। लोगों को चाहिए कि भोजन उपलब्ध कराने वालों की सूची प्रशासन को दें ताकि प्रशासन के वालिंटियर दूसरे जरूरतमंदों को भोजन दे सकें। जिलाधिकारी को चाहिए कि इस मामले में एक विस्तृत कार्य योजना बनाकर उसको अमल में लाएं ताकि लोगों का जीवन भूख से बच सके।

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