भगवान श्रीमन्नारायण ही संसार के आदि गुरु : धर्माचार्य ओमप्रकाश

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अस्मद् गुरुभ्यो नमः अस्मद् परम गुरुभ्यो नमः अस्मद् सर्व गुरुभ्यो नमः श्रीमते रामानुजाय नमः
प्रतापगढ़। परम पूज्य प्रातः स्मरणीय गुरुदेव नारायण के श्री चरणों में दास का कोटि कोटि साष्टांग स्वीकार हो। गुरु पूर्णिमा की बहुत-बहुत बधाई बहुत-बहुत मंगलकामनाएं।

3 जुलाई दिन सोमवार को गुरु पूर्णिमा के दिन स्नान-ध्यान एवं गुरु पूजन संपन्न हुआ। दो जुलाई को सायंकाल 7:30 बजे गुरु पूर्णिमा प्रारंभ हो गयी थी।

” गुरु विनु भव निधि तरहिं न कोई, जौ बिरंचि संकर सम होई”। इस संसार रूपी भवसागर से यदि कोई तार सकता है तो वह गुरु ही तार सकता है गु माने अंधकार रू माने प्रकाश जो अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है उसे गुरु कहते हैं। माता बालक की सर्वप्रथम गुरु होती है विद्यालयों में पढ़ाने वाले अनेक शिक्षक भी गुरु कहे जाते हैं, किंतु जिस गुरु के द्वारा हम संस्कारित होकर दीक्षा प्राप्त करते हैं किसी ना किसी संप्रदाय में हमें वह समाश्रित करते हैं और भगवान श्रीमन नारायण की शरण में ले जाते हैं वही हमारा सनातन धर्म में गुरु माना गया है।
गुरु पद नख मणि गण ज्योति। सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवहि जासू।।

भगवान श्रीमन्नारायण ही इस जगत के माता पिता ,परम ब्रह्म एवं आदिगुरु है। सर्वप्रथम आपने ब्रह्मा जी को उपदेश दिया जिसके कारण उसका नाम ब्रह्म संप्रदाय पड़ा, तत्पश्चात शंकर जी को उपदेश दिया और वह रुद्र संप्रदाय कहलाया, इसी प्रकार सनक सनंदन सनातन सनत कुमार ऋषियों को उपदेश दिया वह कुमार संप्रदाय कहलाया, उसके पश्चात भगवान के श्री चरणों की जो सदा शेषसायी शैय्या पर विराजमान होकर सदा सेवा करती हैं।

संसार का भरण पोषण करती रहती हैं ऐसी माता जी श्री लक्ष्मी जी को उपदेश दिया, इसलिए उस का नाम श्री संप्रदाय पड़ा। आगे चलकर यह संप्रदाय श्री रामानुज संप्रदाय के नाम से विख्यात हुआ। इन्हीं में अनेक संत और महात्मा अल्वार हुए जिन्होंने सनातन धर्म को आगे बढ़ाया।

भगवान श्रीमन्नारायण के साक्षात अवतार हैं कृष्णद्वैपायन वेदव्यास आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते है। इसे व्यासपूर्णिमा भी कहा जाता है। इसी दिन भगवान व्यास का जन्म हुआ था। इस श्वेतवाराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर में २८ द्वापर अब तक बीत चुके हैं। अतएव व्यास भी २८ हो चुके हैं जिनमें ब्रह्मा,वशिष्ठ,वाल्मीकि ,शक्ति ,पराशर और अंतिम व्यास भगवान कृष्ण द्वैपायन मुख्य हैं।

यह गुरुपूर्णिमा भगवान कृष्ण द्वैपायन का जन्म दिवस है। इसीलिए इस व्यासपूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा भी कहा जाता है .क्योंकि भगवान व्यास की ही प्रदर्शित पद्धति का उनके परवर्ती कवियों एवं विद्वानों ने अनुसरण किया है ? इसीलिये कहते है कि जो कुछ विद्वानों ने लिखा है वह व्यास जी का उच्छिष्ट ही है —-
“व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम् ।।”
२८व्यासों में यही भगवान नारायण के साक्षात अवतार हैं —

“कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम् ।।” —विष्णु पुराण ३/४/५.इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनकी परंपरा में कई व्यास हो चुके है जैसे भगवान ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति और आपके पिता स्वयं पराशर। अर्थात आज तक आपकी परंपरा में जो प्रकट हुए वे व्यास ही हुए हैं। इसलिए परंपरा से चले आ रहे सभी ज्ञानों की प्राप्ति इन्हें सरलतया हो गयी और श्रीहरि के अवतार वाला वैशिष्ट्य तो इनमें है ही। आपके उपदेष्टा गुरु देवर्षि नारद जी हैं। नारद जी के ४ शिष्य हैं २ बालक और २ वृद्ध,.बालक शिष्यों में ध्रुव तथा प्रह्लाद आते हैं और वृद्ध शिष्यों में भगवान वाल्मीकि और ये व्यास जी है।
व्यासजी के अवतार का कारण

पहले १०० करोड़ श्लोकों का एक ही पुराण था जो लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट हुआ —
“पुराणां सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ।।”-मत्स्य पुराण ३/३-४,
यह अति विशाल था जो आज हम लोगों के द्वारा धारण =पढकर स्मरण नहीं किया जा सकता था। इसीलिए व्यासजी का अवतरण होता है कि उसे 4लाख श्लोकों में संक्षिप्त करके हम लोगों को सुख पूर्वक धारण योग्य बनाया।मत्स्यपुराण में इस तथ्य का इस प्रकार उद्घाटन किया गया है–

“कालेनाग्रहणं दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप । व्यास रूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे ।। चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा ।–53/8-9,इस श्लोक की व्याख्या करते हुए भगवन्नामकौमुदीकार श्रीलक्ष्मीधर जी लिखते हैं – “पूर्वसिद्धमेव पुराणम् सुखग्रहणाय संकलयामीत्यर्थः “अर्थात् पूर्वकाल से विद्यमान पुराण का सुखपूर्वक ज्ञान कराने के लिए मैं संक्षिप्तरूप में इसका संकलन करता हूँ ।आज भी १०० करोड़ श्लोकों का पुराण ब्रह्मलोक में स्थित है। देखें –स्कन्द पुराण आ० रे० १/२८-२९ ! वेदों के विषय में भी यही स्थिति है। प्राणियों के तेज बुद्धि बल आदि को अल्प देखकर व्यासजी वेदों का विभाजन करते हैैं जिससे लोग सुख पूर्वक उसे धारण कर सकें — “हिताय सर्वभूतानां वेदभेदान् करोति सः —विष्णु पुराण ३/३/६.जिन लोगो का अधिकार वेदों मे नही माना गया है, ऐसे लोगोके लिये धर्म आदि का ज्ञान कराने हेतु विपुलकाय महाभारत की रचना भगवान व्यास ने की। पातंजलयोग दर्शन पर व्यास भाष्य लिखकर ये योगमार्ग को सर्व सुलभ कर दिए हैं। उपनिषदों के गाम्भीर्य में डूब जाने वाले मनीषियो के अवलंबन हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना करके उपनिषद महासागर के संतरण हेतु ब्रह्मसूत्र रूपी सुदृढ़ नौका प्रदान करके जो उपकार भगवान बादरायण ने किया है, उसका ऋण आचार्य शंकर , श्रीरामानुजाचार्य निंबार्काचार्य श्रीरामानंदा चार्य आदि ही उतारने का कार्य किया है।

श्रीमदभगवद्गीता तो महाभारत के ही अंतर्गत है। इसलिए हम उसकी पृथक चर्चा नहीं कर रहे हैं। इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भगवान व्यास का अवतरण होता है।

चेदि देश में एक राजा थे जिनका नाम था उपरिचर वसु उनकी पत्नी का नाम गिरिका था वे परम सौंदर्यवती थीं। महाराज देवराज इन्द्र की उपासना से एक दिव्य विमान प्राप्त किये थे। जिससे इधर-उधर सपत्नीक विचरण करते थे। एक दिन उनका तेज स्खलित हुआ।
यमुना के जल में एक मछली के रूप में अद्रिका नाम की एक अप्सरा रहती थी जो किसी ऋषि के शाप से मत्स्य योनि को प्राप्त हुयी थी। वह उस तेज को निगल गई। जिसके फलस्वरूप वह गर्भवती हुई और अंत में जब मल्लाहों ने उसे पकड़कर देखा तो उसके उदर से एक बालक और एक बालिका निकली। बालक को महाराज ने स्वयं ले लिया तथा उसका नाम मत्स्य रखा जो बाद में राजा बना।

बालिका में चूँकि मछली की गंध आती थी इसलिए उसे धीवरों ने लेकर लालन-पालन किया यह कृष्ण वर्ण की थी। इसीलिए लोग इसे काली भी कहते थे ,वास्तविक नाम सत्यवती था। द्वापर कलि का संधि का काल था ,इसके पिता भोजन कर रहे थे। उसी समय महर्षि पाराशर पहुंचे और यमुना को पार करने के लिए नाविक को आवाज दिए ,विलम्ब होने से ऋषि क्रुद्ध हो जायेंगे इसलिए उसने पुत्री सत्यवती को नौका द्वारा महर्षि को पार उतारने की आज्ञा दी ,सत्यवती ने तत्काल पिता के मनोभाव को समझ लिया और नाव लेकर महर्षि के समीप पहुँच गयी।

ऋषि के पादपद्मों में प्रणाम करके नौका में चढ़ने का संकेत किया। सर्वज्ञ महर्षि नौकारूढ़ हो गए , भगवच्चिन्तन करने वालो में अग्रगण्य ऋषि ने ध्यान में देखा कि इस समय इस देश मे इस मुहूर्त में यदि गर्भाधान किया जाय तो साक्षात नारायण का अवतार होगा। जिनसे विश्व का परम कल्याण होगा किन्तु मेरी पत्नी पास में है नहीं , क्या करूँ , जो पास में है वह अपरिणीता है और इसके शरीर से भयंकर दुर्गन्ध भी निकल रही है। जिससे आज तक इसके साथ किसी ने विवाह तक नहीं किया।
 

इसी ऊहापोह में पड़े महर्षि ने विश्व के भावी कल्याण को ध्यान में रखकर शीघ्र ही उसे सम्पूर्ण रहस्य बताया ,वह तो अपने दुर्गंधमय शरीर के कारण स्वतः हीनभावना से ग्रस्त रहती थी! जब अपने उदर से भगवान नारायण के प्रादुर्भाव का होना वह भी एक ब्रह्मवंशी सर्वज्ञ महर्षि के द्वारा सुनी तो उसका मनमयूर प्रसन्नता से नृत्य करने लगा।

अब उसने अपने भावों को व्यक्त करते हुए प्रकाश की ओर संकेत किया। त्रिकालद्रष्टा महर्षि ने अपने तीव्र तपोबल का प्रयोग घटिति किया कि कहीं वह दिव्य वेला निकल न जाय , संकल्प मात्र से सघन कुहरे की सृष्टि कर दी ,और भगवान का स्मरण करके गर्भाधान किया।

विश्व कल्याण का कार्य तो हो गया किन्तु इस कन्या का कन्यात्व भगवान के प्रकट होने बाद सुरक्षित रहे और इसके साथ विवाह हेतु बड़े से बड़े राजा लालायित रहें –इसकी व्यवस्था भी कर दी ,अब उसके शरीर से दुर्गन्ध की जगह सुगंध निकल रही थी। कुछ काल के उपरान्त भगवान व्यास का जन्म हुआ एक द्वीप में और ये कृष्ण वर्ण के थे जैसे माता थी—“काली पराशरात जज्ञे कृष्ण द्वैपायनं मुनिम्—”

अग्नि पुराण (कृष्ण वर्ण के कारण इनकी माता का एक उपनाम काली भी था ) इसलिए रूप और स्थान को दृष्टि में रखकर इनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा।

यही भगवान कृष्णद्वैपायन हैं। जिनका जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ। विद्वज्जन तो इसे “व्यासपूर्णिमा” नाम से जानते है, पर चूँकि व्यास जी ने विश्व के सकल कवियों लेखकों और अन्य ऋषियों की अपेक्षा इतना गुरुतर कार्य किया कि यह पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा नाम से विख्यात हो गयी।

काशी वाशी आज भी वर्ष में एक बार व्यास काशी गाँव जाकर व्यास मंदिर में उनकी पूजा एवं दर्शन करते है। वहाँ के विद्वानों में ऐसी प्रसिद्धि है कि वर्ष में एक बार जो काशी निवासी “व्यासकाशी” जाकर व्यास जी का दर्शन नहीं करता उसे काशीवास का फल नहीं मिलता है। इस पूर्णिमा को व्यासजी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

जो लोग वर्ष में एकबार भी अपने गुरुदेव के समीप नहीं पहुँच सकते वे यदि गुरुपूर्णिमा को गुरु की पूजा कर लें तो कल्याण ही कल्याण है। भगवान बादरायण कि महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता —

वे चार मुख वाले न होकर भी लोकस्रष्टा ब्रह्मा हैं। चतुर्भुज न होकर भी द्विभुज दूसरे विष्णु हैं। ५मुख तथा १५नेत्र न होने पर भी साक्षात भगवान शंकर हैं।

3 जुलाई दिन सोमवार को प्रातः काल 9:00 बजे से गुरु पूर्णिमा श्री जीयर स्वामी मठ में श्री जगन्नाथपुरी में मनाई गई।
धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास। ट्रस्टी नैमिषनाथ भगवान रामानुज कोट अष्टम भू वैकुंठ नैमिषारण्य दिव्यदेशम। रामानुज आश्रम संत रामानुज मार्ग शिवजी पुरम प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।
कृपा पात्र परम पूज्य श्री श्री 1008 स्वामी श्री इंदिरा रमणाचार्य पीठाधीश्वर श्री जीयर स्वामी मठ जगन्नाथपुरी एवं पीठाधीश्वर श्री नैमिषनाथ भगवान रामानुज कोट अष्टम भू वैकुंठ नैमिषारण्य।

  • अवनीश कुमार मिश्रा
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