आसान नहीं है कांग्रेस की वापसी की राह
राकेश कुमार अग्रवाल
मध्यप्रदेश में उप चुनावों का संग्राम पूरे शबाब पर है . भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां ऐडी चोटी का जोर लगा रही हैं . 28 सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव में कांग्रेस के लिए सत्ता में वापसी का संघर्ष लोहे के चने चबाने की तरह हो गया है . क्योंकि कांग्रेस के लिए सभी 28 सीटें जीतना जरूरी है तो भाजपा को बहुमत हासिल करने के लिए 9 सीटों पर विजय हासिल करना होगा .
2018 में सत्ता में आई कांग्रेस की कमलनाथ सरकार महज 15 महीने ही सत्ता सुख भोग पाई थी कि 10 मार्च को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस से नाता तोड लिया . म.प्र. कांग्रेस की प्रमुख धुरी ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से विदा लेते ही उनके समर्थन में कांग्रेस के 22 विधायकों ने पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया था . एक साथ 22 विधायकों के पार्टी से त्यागपत्र देते ही कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ गई . जिन 28 सीटों पर उपचुनाव होने जा रहा है उनमें से 27 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा रहा है . 28 सीटों में से 25 सीटें में ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक विधायक काबिज थे . जबकि जौरा से विधायक बनवारीलाल शर्मा , ब्यावरा से विधायक गोवर्धन दांगी व आगर से निर्वाचित विधायक मनोहर ऊंटवाल का निधन हो जाने के कारण इन तीनों सीटों पर भी उपचुनाव होने जा रहा है .
मार्च के बाद कांग्रेस में एक बार फिर टूट हुई जब जुलाई में कांग्रेस के तीन और विधायकों बडा मलहरा से प्रदुम्न सिंह लोधी , नेपानगर से सुमित्रादेवी कसडेकर , व मांधाता विधायक नारायण पटेल ने भाजपा का दामन थाम लिया था .
कमलनाथ यदि अपनी स्पष्ट बहुमत की सरकार चाहते हैं तो उनके समक्ष सभी सीटें जीतने की चुनौती मुंह बाये खडी है . यदि स्पष्ट बहुमत नहीं पा पाते हैं एवं कमलनाथ सत्ता में पुनर्वापसी चाहते हैं तो उनके समक्ष कम से कम बीस सीटें जीतने का दबाब होगा ताकि अन्य दलों के साथ मिलकर वह सरकार बना सकें . इस मामले में भाजपा अपने को बेहतर स्थिति में पा रही है क्योंकि मामा के जोडीदार महाराज हो गए हैं . भाजपा के पक्ष में एक और महत्वपूर्ण फैक्टर यह है कि जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है उनमें से 16 सीटें ग्वालियर – चंबल संभाग की हैं जहां सिंधिया परिवार का अपना प्रभुत्व है . ऐसे में सिंधिया के गढ से कांग्रेस के 74 वर्षीय नेता कमलनाथ के लिए सीटें निकालना इतना सहज भी न होगा .
2018 का चुनावी अभियान कमलनाथ व ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मिलकर चलाया था . दिग्विजय सिंह भी इस चुनावी अभियान के सह भागीदार थे . लेकिन इस बार सिंधिया के भाजपा खेमे में जाने से कांग्रेस के पास कोई ऐसा युवा चेहरा भी नहीं है जिसकी पूरे प्रदेश में छवि व पकड हो . जबकि भाजपा के पास एकाधिक प्लस पाइंट हैं . पार्टी वर्तमान में सत्ता में है . महाराज और मामा साथ साथ हैं तीसरा केन्द्र में भाजपा की सरकार है एवं उसके पास मोदी जैसा भीड जुटाऊ नेता है . जबकि कांग्रेस की पूरी आस राहुल – सोनिया के इर्द गिर्द सिमटी हुई है .
दोनों पार्टियों की जद्दोजहद दलित व अनुसूचित जनजाति की सीटों को हथियाने की है . क्योंकि जिन 28 सीटों पर चुनाव हो रहा है उनमें से 10 सीटें अनुसूचित जाति 3 सीटें अनुसूचित जनजाति की हैं . इसलिए सभी की नजर इन दलित – आदिवासी सीटों पर जीत हासिल करने की है .
मतदाताओं को भरमाने के लिए पार्टियां और सरकारें नए नए प्रयोग करती रहती हैं . 2019 में जब कमलनाथ प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब 70 प्रतिशत नौकरियाँ पर स्थानीय लोगों के आरक्षण का ऐलान कर चुके थे . इससे दो कदम आगे बढते हुए शिवराज सरकार ने मध्य प्रदेश में सरकारी नौकरियाँ मध्य प्रदेश के मूल निवासियों को देने का ऐलान करके कर दी थी .
कांग्रेस से भाजपा में आए सिंधिया समर्थक विधायकों को आरोप था कि कमलनाथ सरकार का 15 माह के कार्यकाल में अपने क्षेत्र छिंदवाडा में विकास पर फोकस था बाकी प्रदेश बुरी तरह उपेक्षित था . इसलिए क्षेत्रीय विकास की खातिर उन्होंने कांग्रेस को छोडा था . जबकि कमलनाथ का कहना था कि यह विकास के लिए नहीं बल्कि सीधा – सीधा पीठ में छुरा भोंकना था. आप इसे छल , कपट और धोखा कह सकते हैं . हालांकि कांग्रेस को छोडने के बाद भाजपा सरकार में शामिल होने पर ज्योतिरादित्य सिंधिया से जमकर सौदेबाजी हुई थी . इसका परिणाम यह हुआ था कि कांग्रेस छोडकर भाजपा में आए 22 विधायकों में से 14 विधायक मंत्रीपद हासिल करने में सफल रहे थे . इसके बाद विकास परियोजनाओं को लेकर भी अच्छी खासी जद्दोजहद चली . एक माह पूर्व सिंधिया खेमे के विधायकों ने ग्वालियर – चम्बल संभाग के लिए छोटी – बडी लगभग एक सैकडा परियोजनाओं की मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान व केन्द्रीय कृषि मंत्री के माध्यम से सार्वजनिक घोषणा करवा कर यह संकेत दिया कि वे क्षेत्रीय विकास के लिए गंभीर हैं . अंतिम फैसला मतदाता को करना है . देखना यह है कि मध्यप्रदेश की राजनीति का ऊँट किस करवट बैठता है .