राकेश कुमार अग्रवाल
4 करोड की आबादी वाला देश इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ अफगानिस्तान फिर से सुर्खियों में है . एशिया ही नहीं पूरी दुनिया में अफगानिस्तान की चर्चा व चिंता का कारण कट्टर तालिबानी संगठन का फिर से काबिज होना माना जा रहा है . जिससे फिर से आतंकवाद के सिर उठाने का खतरा मंडराने लगा है .
20 फरवरी 2020 को अमेरिका और तालिबान के मध्य हुए समझौते में अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी पर मुहर लगी थी . लगभग 19 सालों से अमेरिका अफगानिस्तान में काबिज था . 2001 में अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण शुरु किया था और तालिबानी शासन का खात्मा किया था . जुलाई आते आते अमेरिका ने अफगानिस्तान से सैनिकों की न केवल वापसी शुरु कर दी बल्कि तमाम एयरफील्ड जिन पर अमेरिका का कब्जा था उनको भी अमेरिका ने अफगान सैनिकों के हवाले कर दिया . देखा जाए तो अफगानिस्तान 1979 से रणक्षेत्र बना हुआ है . जब 42 साल पहले सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया था . जिससे बौखलाए अमेरिका की सीआईए ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ अफगानी मुजाहिदीनों को पैसा व हथियारों की आपूर्ति शुरु कर दी थी . अफगानिस्तान पर लगभग 10 साल तक सोवियत सेनाओं का कब्जा रहा . 1989 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान छोड दिया था . इस बीच तालिबानी इतने सशक्त हो गए थे कि 1996 में उन्होंने काबुल पर कब्जा कर लिया था . अमेरिका की सेना की घर वापसी के बाद अफगानिस्तान 25 साल बाद वापस उसी मोड पर पहुंच गया है जहां अधिकांश क्षेत्रों पर तालिबानी काबिज हो गए हैं .
तालिबान दरअसल अफगानियों का एक कट्टर संगठन है जो इस्लामिक शरीया कानून को सख्ती से लागू कराने का हिमायती है . 1994 में अस्तित्व में आए इस संगठन ने महज दो साल में ही अपनी धमक से सभी को थर्रा दिया था . शरीया कानून को न मानने वाले महिलाओं और पुरुषों को तालिबानी कडा दंड देने से नहीं हिचकते हैं . अमेरिकी में 9/11 की घटना की घटना के बाद बौखलाए अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबानी शासन को ध्वस्त जरूर कर दिया था . लेकिन तालिबानियों का वे समूल सफाया नहीं कर सके . आज भी अफगानिस्तान में तालिबानियों की बडी तादात है .
अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोडने के बाद तालिबानियों के निरंकुश हो जाने का खतरा फिर मंडराने लगा है . भारत , पाकिस्तान और चीन ही नहीं समूचे दक्षिण एशिया में इस खतरे को महसूस किया जा रहा है . अफगानिस्तान में तालिबान के जख्मों के इतर पुनर्निर्माण का काम भी जोरों पर चल रहा था . ताकि फिर से अफगानिस्तान खडा हो सके . इस कार्य में भारत भी महती भूमिका निभा रहा था . सडक निर्माण , पुल निर्माण , बांध निर्माण , शिक्षा , आवास निर्माण , स्वास्थ्य , कृषि , सिंचाई , पेयजल जैसे तमाम बुनियादी कामों पर भारत काम कर रहा था . इन कामों में भारत ने तीन अरब डाॅलर से ज्यादा का निवेश कर रखा है . भारत अफगानिस्तान की संसद का भी निर्माण करा रहा है . भारत की चिंतायें इसलिए और भी बढ गई हैं कि यदि तालिबानी हुकूमत में आते हैं तो न केवल परियोजनाओं को संचालित करना और उन्हें पूरा कराना मुश्किल होगा . दूसरा तालिबानियों का जैश ए मोहम्मद , लश्कर ए तैयबा समेत दो दर्जन आतंकी संगठनों से सम्बन्ध हैं . ऐसे में कुछ वर्षों से शांत कश्मीर में फिर से आतंकवाद सिर उठा सकता है .
अमेरिका के अफगानिस्तान से हटने के बाद तालिबानियों की भी बडी जिम्मेदारी है कि वे कोई ऐसा संदेश विश्व बिरादरी को न दें कि तालिबानी वैसे के वैसे ही हैं . क्योंकि यदि विश्वव्यापी आतंक का यदि अफगानिस्तान फिर से केन्द्र बनता है तो अमेरिका फिर से अफगानिस्तान में जरूर दखल देगा . 14 अप्रैल को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइ़डन सैनिकों की वापसी की घोषणा के साथ यह भी चेता चुके हैं कि यदि अफगान की धरती से अमेरिका में आतंकी गतिविधि को अंजाम दिया गया तो इसकी जिम्मेदारी तालिबान की होगी . जहां तक भारत का सवाल है भारत और अफगानिस्तान के व्यवसायिक व सांस्कृतिक संबंध रहे हैं . भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में बढ चढकर काम किया है ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि तालिबानी ऐसा कोई कदम न उठाएं जिसका खामियाजा पूरे राष्ट्र को भुगतना पडे . फिलहाल सभी की निगाहें तालिबानियों के अगले कदमों पर हैं जो तय करेगा कि अमेरिका सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान का भविष्य क्या मोड लेगा .