‘द कश्मीर फाइल्स’ फ़िल्म देखकर,जो कुछ मैंने महसूस किया, वह ज़िन्दगी में पहली बार हुआ।मेरा दिमाग सुन्न हो चुका था, कुछ भी महसूस करने की जैसे शक्ति ही नहीं थी।निश्चित रूप से यह एक फ़िल्म नहीं थी, एक ऐसा सच था, जिससे सम्पूर्ण मानव-जाति को शर्मिंदा होना चाहिए।
हम सभी ने तमाम कहानियां पढ़ीं हैं,जिनमें बर्बरता की हदें पार हुईं।हिटलर, मुसोलिनी को पढ़ा है, लेकिन उन कहानियों से भी अधिक बर्बर कृत्य पर्दे पर देखना-
1- जब 24 कश्मीरी पंडितों को एक कतार में खड़ा करके आतंकियों द्वारा एक-एक करके गोली मारी जाती है, जिनमे महिलाएं और बच्चे भी हैं।
2- आरे से किसी महिला को चीरा जाना…….
3– शिवा नामक बच्चे का गोली से मारा जाना, बर्बरता का वह रूप, जहां बच्चे और औरतें भी उनका शिकार हुए, यह कौन सा ज़ेहाद है, कौन सा धर्म युद्ध है ?इन दृश्यों को देखकर सिसकी निकलती है।
4- एक पत्नी के सामने उसके पति को गोलियों से छलनी कर देना, फिर उसके बच्चों और बूढ़े ससुर की जान बचाने की शर्त पर उसे अपने पति के खून से सने चावल खाने को देना।
यह सब एक कहानी के कुछ हिस्से नहीं, बल्कि ऐसा सच में घटित हुआ है, मैंने स्वयं वहां के लोगों से बात की, जिन्होंने यह सब देखा और सहा है।
हम सब खुद को इंसान कहते हैं और 32 साल से चुप बैठे हैं, शर्म आती है, खुद को इंसान कहते हुए।
फ़िल्म में एक संवाद है कि “यहूदियों के दर्द को पूरी दुनिया जानती है, क्योंकि उन्होंने कभी भूलने ही नहीं दिया, जो कुछ भी उनके साथ हुआ”, पर कश्मीरी पंडितों के दर्द को दुनिया ने जाना ही नहीं, इस बात का दर्द फ़िल्म के इस डायलॉग से झलकता है कि “हमारा दर्द जानने की किसी ने कोशिश ही नही की, किसी ने हमसे कुछ पूछा ही नहीं।”
इस कथोपकथन ने मुझे झकझोर दिया, सोचने पर विवश किया कि इतना नरसंहार, इतना बर्बर कृत्य वहां हुआ, लेकिन हम बाकी देश के लोग यूं रहे जैसे हमसे क्या लेना देना? क्यों हमें कुछ पता नहीं चला ? ठीक है, उस समय सोशल मीडिया नही था, पर रेडियो, टेलीविजन, प्रिंट मीडिया सब होते हुए भी कश्मीर की बात हम तक नहीं आ सकी, जबकि कश्मीर हमारे देश का अभिन्न अंग है।उस समय भी आज से 30-35 साल पूर्व, विदेशों की भी खबरें हमलोगों तक आतीं थी, कोई कश्मीर त्रासदी प्राचीन काल की घटना नहीं है कि हमसब छुट्टी पा लें यह कहकर कि उस समय की बात है, जब मीडिया था ही नहीं।यह बात मैं इसलिए लिख रही हूं कि ज़रा सोचिए कि क्यों पूरे देश को इस घटनाक्रम से दूर रखा गया ? क्यों आज तक कश्मीरी पंडित अपने ही देश मे शरणार्थी का जीवन जी रहे हैं और सत्ता मौन है ?
मैंने कुछ तथाकथित सेक्युलर लोगों को फ़िल्म देखकर यह कहते भी सुना कि इस फ़िल्म से धार्मिक उन्माद फैलेगा, दो वर्गों को आपस मे लड़ाने की साजिश है, आदि, आदि।तो मैं उन लोगों से पूछना चाहूंगी कि जब हमारे निर्दोष कश्मीरी पंडितों के ऊपर ऐसी बर्बरता की गई, तब क्यों नहीं धार्मिक उन्माद फैलने की बात की गई, जिन लोगों ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा, बल्कि उनको अधिक निशाना बनाया, उनके इस दुष्कृत्य को क्यों नहीं सरेआम करके, उनको सज़ा दी गयी ? मेरे विचार से तो कोई भी घाव जब लगता है, तो उसका समय पर इलाज न करो या उसे छुपाकर रखो तो वह नासूर बन जाता है।देर से ही सही लेकिन विवेक रंजन अग्निहोत्री ने इस फ़िल्म को बनाकर 32 साल पहले हमारे कश्मीरी पंडितों के घाव जो नासूर बन चुके हैं, उन पर मलहम लगाने का सार्थक प्रयास किया है।ऐसे निर्देशकों को सलाम, जो सच को पर्दे पर दिखाने की हिम्मत रखते हैं।
फ़िल्म का निर्देशन, सिनेमेटोग्राफी भी बहुत अच्छी है।हिमालय की चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को भी दिखाया गया है पर उनको ऐसे प्रस्तुत किया गया है जैसे धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को किसी की बुरी नज़र लग गयी हो।
फ़िल्म में कृष्णा नामक चरित्र के द्वारा निर्देशक ने यह भी बताने की कोशिश की कि शंकराचार्य, ललद्यद, विष्णु शर्मा और ऋषि कश्यप जैसे मनीषियों की भूमि कैसे आतंकवाद का अड्डा बन गयी, कैसे वहां गोली बारूद की बातें होने लगीं, कैसे सामूहिक बलात्कार और मासूम बच्चों को भी बंदूक का निशाना बनाया गया ?
अभिनय की बात करूं तो मुझे लगा ही नहीं कि किसी भी कलाकार ने अभिनय किया है,क्योंकि इतनी नेचुरल एक्टिंग थी कलाकारों की कि हर अभिनेता अभिनेत्री उस चरित्र को जैसे जी रहा था।अनुपम खेर, पल्लवी जोशी, मिथुन चक्रवर्ती जैसे अनुभवी कलाकारों की तो बात ही क्या, लेकिन नए कलाकारों ने भी बहुत ही स्वाभाविक अभिनय किया है।फ़िल्म की अभिनेत्री भाषा सुम्बली, जिन्होंने शारदा पंडित के किरदार को फ़िल्म में जिया, उनके अभिनय की भी मैं प्रशंसा अवश्य करना चाहूंगी, जिन्होंने फ़िल्म में बहुत कम डायलॉग बोलकर, सिर्फ अपनी आंखों और चेहरे के एक्सप्रेशन से इतना कुछ कहा है, जिसे कोई घंटों बोलकर भी शायद न व्यक्त कर सके।उन्होंने अपने किरदार को इस खूबी के साथ प्रस्तुत किया कि शारदा पंडित को हम कभी भी भूल ही नहीं सकेंगे।उन्होंने दर्द दिखाया नही, उसे जिया है।
फ़िल्म में हर बात कही ज़रूर गयी, लेकिन इतनी संजीदगी से कि उसके लिए भी निर्देशक और कलाकारों को एक बार फिर साधुवाद।
जब से कल से मैं यह फ़िल्म देखकर आई हूं, तब से आज तक इस स्थिति में ही नहीं आ पा रही थी कि कुछ लिख सकूं और अब जब लिख रही हूं तो इतना कुछ है लिखने को कि समझ नही आ रहा कहाँ अंत करूं ?
पर बस अब एक बात अंत मे और कहना चाहूँगी कि मुझे ऐसा लगता है कि यह हमारे देश ही नहीं बल्कि दुनिया मे एक मात्र कश्मीरी पंडित कौम है, जिसने इतना कुछ सहा और 32 वर्षों तक इतने शालीन और सभ्य तरीके से अपना दर्द कहने की असफल कोशिश करते रहे।कभी नहीं कोई उग्रतापूर्ण कार्रवाई की।हम सभी एक नहीं हज़ार उदाहरण दे सकते हैं कि जब किसी सम्प्रदाय विशेष के साथ कोई बर्बरतापूर्ण कार्रवाई होती है तो कैसे प्रतिक्रिया दी जाती है ? ठीक है खून का बदला खून से लेना नहीं ठीक, लेकिन इतना सहना भी कैसे संभव है ?
मैंने हाल के वर्षों में कश्मीरी पंडितों के ऊपर हुए अत्याचार को काफी हद तक जाना है, लेकिन फ़िल्म देखकर तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए, 2 दिन हो गए मैं अपने आप में जैसे वापस नहीं आ पा रही हूं।मैं पूछना चाहूंगी सभी कश्मीरी पंडितों से, आप इतनी सहनशीलता कहाँ से लाये, इतना धधकता ज्वालामुखी दिल मे लेकर कैसे जिये ?
मैं एक बहुत ही सामान्य सी इंसान हूं, पर इतनी बात तो गारंटी से कह सकती हूं कि इतनी सहनशीलता, इतना धैर्य दुनिया की किसी भी कौम ने नहीं दिखाया।यह आपलोगों के अच्छे संस्कार, मां शारदा की विशेष कृपा ही आपलोगों पर है कि आप दुनिया से एकदम अलग हैं, तभी आप हम सबके लिए बहुत सम्मानित हैं, आप लोग तो सम्मान का सम्मान हैं, इसलिए आपको सम्मान देना भी मुझ जैसे अकिंचन के लिए संभव नहीं।
डॉ भावना घई