आज़ादी का अग्रदूत और वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप

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भारत माँ की धरा पर समय समय पर कई नरपुंगवो ने जन्म लिया है। उनमे वीर शिरोमणि प्रातःस्मरणीय महाराणा प्रताप का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।अतीत मनुष्य का बहुत बड़ा सहारा है अतित में झांक कर अपना, समाज का और राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त करता है। इसका अनुपम उदाहरण हैं आज़ादी के मतवाले, प्रेरणा पुंज और अद्वितीय योद्धा महाराणा प्रताप। सोनगरी रानी जयवंती देवी की कोख से कुंभलगढ़ दुर्ग में रविवार ज्येष्ठ सुदी तृतीया संवत1597 (9 मई 1540 ई. ) में जन्म लेने वाले उदीयमान नक्षत्र ने अपने पुरखों बप्पा रावल, हमीर, महाराणा कुंभा, महाराणा सांगा, पिता श्री उदय सिंह के उज्जवल व्यक्तित्व से प्रेरणा ली और दृढ़ निश्चय किया कि वह कभी आतताइयो के आगे झुकेगा नहीं, संघर्ष कर उनसे लोहा लेता रहेगा, चाहे राज्य खोकर उसे वन में ही क्यों न भटकना पड़े। इसी प्रण को लेकर उसने राष्ट्र में एक नई ज्योति जगाई, जिसके उजाले ने समय-समय पर भारत मां के सपूतों को स्वाधीनता की राह दिखाई। भक्तिमती मीराबाई प्रताप की बड़ी माँ थी। प्रताप को आरम्भिक अस्त्रशस्त्र की शिक्षा उनकी माता और राठौड़ जयमल ने दी थी। उनका राजतिलक गोगुन्दा में महादेव जी की बावड़ी पर 28 फरवरी 1572 को हुआ। एक षड्यंत्र के तहत उनका छोटा भाई जगमाल गद्दी पर बैठ गया था पर मेवाड़ के स्वाभिमानी सरदारों और जांबाज नायको ने जगमाल को हाथ पकड़ गद्दी से उतार संकटो से घिरे नाजुक वक़्त को देखते हुए बड़े काबिल पुत्र प्रताप को मेवाड़ की रक्षा के लिए गद्दी पे बिठाया। जिससे जगमाल अकबर से जाकर मिल गया था।
उस आदर्श पुरुष के जीवन पहलुओं का दृष्टिपात करें तो त्याग, निष्ठा व देशभक्ति के समुज्ज्वल बिम्ब उभर कर हमारे सामने आते हैं । लेखनी उठाते है तो उस विरात्मा के यश मंडित शब्द चित्रों का अंबार लग जाता है । अपने देश व कुल मर्यादा की रक्षा के लिए उसने राजगद्दी को त्याग कर भौतिक सुख सुविधाओं को तिलांजलि दे दी। जन-जन से नाता जोड़कर संगठन की भावना जागृत की। परिणामतः बड़े-बड़े उमरावो से लेकर वन में भटकने वाले भीलो ने आजादी के पुनीत यज्ञ में सम्मिलित होकर उन्होंने हवन में घृत का काम किया। एक और कर्तव्यपरायणता, समता, एकता और राष्ट्रीयता का शंखनाद करने वाले प्रताप ने अपने योद्धाओं का कुशल नेतृत्व किया तो दूसरी और मेवाड़ के सपूतों ने अपने रक्त से मेवाड़ माटी के कण-कण को सींचकर गौरवमय संस्कृति को जीवित रखने में अभूतपूर्व योगदान दिया। गोगुंदा, हल्दीघाटी, कुंभलगढ़, दिवेर (राजस्थान का मैराथन)और चावंड को अपनी कर्मस्थली के बिंदु बनाकर मेवाड़ के चप्पे-चप्पे को अपने पसीने से सींचा और समग्र हिंद के जन-जन को अथाह बल प्रदान कर वह उनके हृदय में बस गया।
पग पग भमया पहाड़, धरा छोड़ राख्यो धरम। महाराण अर मेवाड़, हृदय बसिया हिंद रे।
उस मर्यादा पुरुष ने अपने आदर्शो को बनाए रखने के लिए अकबर के आगे सर नहीं झुकाया। अपना मस्तक ऊपर उठाएं स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ता रहा। सभी राजा महाराजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अपने धर्म से डीग गए परंतु परंतु प्रताप अडिग रहा। उनकी आत्मचेतना व स्वाधीन भावना को सर्वप्रथम कविवर पृथ्वीराज राठौड़,जो प्रताप का मौसेरा भाई लगता था, ने दर्शाया है:-
जासी हाट बात रहसी जग, अकबर ठग जासी एकार। रह राख्यो क्षत्री धर्म राणै, सारा ले बरतो संसार।। सत्य सत्य है और सत्य की हमेशा जीत हुई है । अकबर ने बहुत प्रलोभन दिए, कई सन्धि प्रताव भेजे जिनमे सितम्बर 1572 में जलाल खां कोरची, जून 1573 में कुंवर मान सिंह,ऑक्टोबर 1573 में जयपुर राजा भगवान दास और दिसम्बर 1573 में चौथा प्रस्ताव राजा टोडरमल के द्वारा भेजा पर राणा ने मुगलों के सामने दासता स्वीकार करना सीखा न था। युद्द अनिवार्य था हुआ। जून 1576 में मानसिंह ने गोगुन्दा पर कब्जा किया जिसे राणा ने सेप्टेंबर 1576 में पुनः अपने कब्जे में किया। प्रताप ने घोर संघर्ष कर इसको फिर से सिद्ध कर दिया। इस तरह 1576 से 1584 तक आक्रमण प्रत्याक्रमण चलते रहे। महाराणा ने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाया और अधिकांश मेवाड़ के भाग पुनः पुनर्विजय किया। जीवन भर संघर्ष करने के बाद भले ही उसे पूरा राज्य नहीं मिला परंतु आत्मसम्मान की रक्षा हो गई , कुल गौरव बना रहा, हिंदू धर्म और संस्कृति जीवित रहे, परिणामत: उसके वंश की पावन धारा आज दिन तक बहती रही है जबकि मुगलों का विशाल साम्राज्य ध्वस्त हो गया । प्रताप की कीर्ति भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में फैल गई और हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत बन गए। भारत के स्थानीय इतिहासकारों ने ही नहीं, जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकारों ने भी प्रताप के आदर्शों को अपनी लेखनी में ढालकर उस विरात्मा को देशवासियों के लिए रोशनी का पुंज होना स्वीकारा। साहित्यकारों को अटूट खजाना मिल गया। राजस्थान, गुजरात ,दक्षिण बंगाल, पंजाब, उड़ीसा आदि भारत के कोने कोने में प्रताप के यशस्वी जीवन परअनेकों पुस्तके लिखी गई और प्रताप भारतीय साहित्य के राष्ट्रदेवता के रूप में उभर कर हमारे सामने आये। अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों ने निरंतर विफलताओं निराशा को झेलते हुए प्रताप के आदर्श को अपनाया और संघर्ष करते रहे । निराश होने वाले स्वतंत्र सेनानियों का जब साहस टूट जाता तब हमारे देश के आजादी के सूत्रधार लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी ,वीर सावरकर, सुभाष आदि स्वतंत्रता के समय सच्चे पुजारी के साथ जीवन के उदाहरण देकर उन्हें प्रोत्साहित करते। भगवतगीता की तरह प्रताप का जीवनवृत्त उनके लिए प्रेरक बन गया। अंतत: भारत मां की गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने में उन्हें सफलता मिली। सरदार वल्लभभाई पटेल ने राजस्थान राज्य के उद्घाटन भाषण के समय ठीक ही कहा था कि “आज हम प्रताप के स्वप्न को साकार कर रहे हैं ” स्वतंत्र होने के बाद भी आज प्रताप के आदर्श मूल्यों की प्रासंगिकता बनी हुई है। हमारा देश आजाद हुआ है परंतु देश पर गुलामी का कोहरा छाया हुआ है। राजनीतिक तंत्र भ्रष्टाचार का अखाड़ा बना हुआ है । प्रशासन की सारी व्यवस्था लड़खड़ा रही है, मानव मूल्य में तेजी से गिरावट आ रही है। त्याग की भावनाएं लुप्त हो रही हैं, मानव कोरा अर्थ के पीछे भागता हुआ नजर आ रहा है, आतंकवादियों का आतंक बढ़ रहा है, संस्कृति के पहलू धूमिल हो रहे है, ऐसे में प्रताप के आदर्शों पर चलकर देश, समाज और मानव धर्म की रक्षा करने का संकल्प लेना है। विशेषतः नई पीढ़ी को साहस और हिम्मत से काम लेना है। समर्पित भाव से कार्य कर राष्ट्र को मजबूत बनाना है। सत्य के मार्ग पर चलकर फिर से आदर्श मूल्यों को स्थापित करना है। अत्याचार, भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाकर स्वार्थी तत्वों को को जड़-मूल से खत्म करना है और भाईचारे की भावनाए फिर से जगानी है। इसके लिए हमें प्रताप के पद चिन्हों पर चलकर संघर्ष व त्याग करने का बीड़ा उठाना है और सुसंगठित होकर एक ऐसी मशाल जला देना है जिसके प्रकाश से भारत के नागरिकों में नव चेतना जागृत हो जाए। राणा प्रताप ‘अकबर की शरण में जाने से पहले मुझे मौत आ जाए’ यही प्रार्थना एकलिंगजी से आजन्म करते रहे और सिर हथेली पर लेकर आधे से अधिक मेवाड़ अकबर से वापस जीत लिया। पर नियति का खेल , योद्धा महाराणा प्रताप को ईश्वर लंबी जिंदगी नहीं दे सके। अपने अंतिम दिनों में एक और आधा मेवाड़ मुगलों की जंजीरों से मुक्त करने का आनंद तो दूसरी और राजपूतों की प्रतिष्ठा- राजधानी “चित्तौड़” मुक्त न कर पाने का दुख , ऐसी दुविधापूर्ण अवस्था महाराणा प्रताप की थी। इसलिए आज भी मातृभूमि पर जान न्योछावर करने वाले का हर हिंदुस्तानी के जेहन से यही आवाज उठती है कि “काश! महाराणा प्रताप आपके पास जिंदगी के थोड़े दिन और होते।” मेवाड़ की आन और शान बढ़ाने में महाराणा सांगा का अमूल्य योगदान रहा। मातृभूमि की रक्षा करते करते उनके शरीर इतने जख्म हुए की जिस्म का कोई भी हिस्सा बिना ज़ख्म का न रहा। इस वस्तुस्थिति का उस महान योद्धा को बड़ा गर्व था। उनके बाद उदयसिंह आये उस समय अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया, रानियों ने जौहर किया, वीर राजपूत केसरिया बाना पहन जयमल पत्ता के नेतृत्व में जान की परवाह किये बगैर दुश्मन पर टूट पड़े और साका किया। अकबर ने चित्तौड़ में 40000 निर्दोष लोगो का कत्लेआम कराया। राणा उदय सिंह चित्तौड़ छोड़ 1559 मेंअक्षय तृतीया के दिन उदयपुर बसाया। उनके बाद अकबर की विशाल सेना से मुठ्ठीभर जिगरबाज़ों के बल पर प्रताप ने जिस निडरता और आत्मविश्वास के साथ युद्ध किया, उसकी मिसाल इतिहास में कंही नही। मुगलों के साम्राज्य को दरार पहुंचाना हिंदुस्तानीयों के आपसी द्वेष के कारण उस वक्त मुश्किल बन गया था। एक और एक के बाद एक हिंदुस्तानी राजा अकबर के दास बनते गए लेकिन इस प्रवाह को खंडित किया और स्वाभिमान स्वतंत्रता और मातृभूमि के प्रेमज्योत को सदा दिलों में समाए और जलाये रखने वाले राणा प्रताप ने परीक्षा के कठिन दौर से गुजरते हुए उन्होंने अपनों की गद्दारी और दुश्मनों के सामने घुटने टेकने वाले देशद्रोही राजाओं का भी मुकाबला करना पड़ा। अपने बच्चों और धर्मपत्नी अजबदे पंवार को दर-दर की ठोकरें खाकर जीवन यापन करने से उनका तन विदीर्ण हो गया था, फिर भी उनके मन को अकबर का आधिपत्य स्वीकार करने का विचार कभी नहीं छू सका। मेवाड़ के इतिहास में ‘ना भूतो ना भविष्यति’ ऐसा हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. को हुआ उसमे मेवाड़ की 22000 की सेना मुगलों की 80000 की सेना से अपूर्व साहस से लडी। राणा प्रताप लड़ते-लड़ते जख्मी हुए तो उनके प्रिय चेतक घोड़े ने घायल होते हुए भी रणक्षेत्र से उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला।प्रताप ने युद्ध मे हाथी पर सवार मानसिंह पर भाले से शक्तिशाली प्रहार किया था पर मानसिंह हौदे में छुप गया और हाथी ने सूंड में तलवार से चेतक के पिछले पैर पर वार किया था। अपने प्राणों की आहुति देकर चेतक ने अपने स्वामी की जान बचाई। मनुष्य से ज्यादा इंसानियत और ईमानदारी उस मुक जानवर ने दिखाई , मातृभूमि की शान बढ़ाई चेतक की समाधि आज भी हल्दीघाटी में बही हुई है। इसी तरह उनका हाथी रामप्रसाद दुश्मनों के कब्जे में जाने के बाद भी भूखा मर गया पर अकबर का चारा नही खायाऔर अकबर को इसका मलाल जिंदगी भर रहा। बड़ीसादड़ी के राजराणा झाला मन्ना ने वक़्त की नजाकत देखते हुए प्रताप को युद्व भूमि से निकाला और उनके छत्र चँवर धारण किये और युद्ध मे अप्रितम शौर्य का परिचय देते हुए अपने प्राणों को उत्सर्ग किया। इसी तरह प्रताप की सेना के सेनापति हक़ीम खां सुर, ग्वालियर के नरेश राजा रामशाह तंवर और उनके तीन पुत्रों शालिवाहन, भवानी सिंह, प्रतापसिंहऔर एक पौत्र ने भी अपना बलिदान दिया। इन सभी वीरों की छतरिया रक्त तलाई, खमनोर में बनी हुई है।
अकबर का दरबारी कवि दुरसा आड़ा ने भी 76 दोहे बिना डरे अकबर को सुनाए जिसमे राणा की वीरता और स्वाभिमान की चर्चा थी। हल्दीघाटी युद्ध के बाद राणा प्रताप ने दुगुने उत्साह से नई सेना का गठन करने में लग गए । इस वक्त उनका साथ भील युवक योद्धाओ ने दिया। राणा पूंजा सोलंकी ने अपनी सेना के साथ राणा के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने की शपथ ग्रहण की। राणा प्रताप ने भी प्रतिज्ञा ली के चित्तौड़ जब तक मुक्त नहीं होगा तब तक जमीन पर सोना और पत्तल पर खाकर सामान्य सैनिक का जीवन जीऊँगा। प्रताप जंगल जंगल पहाड़ पहाड़ पर घूमते रहे, कभी आवरगड़ कमलनाथ, कभी कोलियारी, कभी मायरे की गुफा, कभी मचिंद के राणा चौरा। घास की रोटी खाई पर झुके नही। मातृभूमि के प्रेम से आकंठ भरे हुए रणबाँकुरो की सेना का गठन करते करते राणा प्रताप ने सुख-दुख सब भूल बैठे थे। उनका पुत्र अमर बड़ा हो चला था, पिता की तरह शौर्य, धैर्य, साहस इत्यादि गुणों से वह ओतप्रोत था। जब भी राणा अपने पुत्र को देखते थे तो उन्हें आत्मबल प्राप्त होता था । अपना लक्ष्य अमर सिंह अवश्य प्राप्त कर लेगा और मातृभूमि की सेवा करेगा, ऐसा उन्हें आत्मविश्वास बनने लगा था । युवक भील योद्धा समर सिंह के प्रयास से संगठित भील सेना, अमर का साथ और भाई शक्ति सिंह की वापसी से राणा प्रताप के मेवाड़ मुक्ति अभियान को नया बल मिला। राजस्थानी बड़े-बड़े राजपूत योध्दा हुए, पर महाराणा प्रताप के समान धीर-वीर, राष्ट्र प्रेमी और स्वाभिमान दूसरा कोई नहीं हुआ ।सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अकबर जैसे शक्तिशाली सम्राट से युद्ध करना और वह भी अपने ही भाई-बंधु अकबर की सत्ता स्वीकार कर चुके थे और खज़ाना खाली था,ऐसी अवस्था में भामाशाह ने चूलिया गांव में महाराणा को खज़ाना सौंप कर चमत्कार कर दिखाया, महाराणा प्रताप ने मुठ्ठीभर स्वामीनिष्ठ देशप्रेमी साथियों के बल पर अपने प्रचंड विश्वास, असीम साहस तथा प्रखर देशभक्ति के जोर पर।
आज़ादी के दीवाने मेवाड़ी वीरों ने हल्दीघाटी और दिवेर युद्ध भूमि में अपने रणकौशल से वह पराक्रम दिखाया की स्वयं अकबर का इतिहास लेखक अबुल फजल तो इस युद्ध को देखकर चकित रह गया था। अकबर नामे में उसने लिखा कि, “यहां तो योद्धाओं ने जान सस्ती व इज्जत महंगी कर दी है”। इसी प्रकार अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने भी युद्ध के बारे में कहा है।” यूरोप में जो स्थान थर्मोपॉली का है उससे भी उज्जवल व ऊपर भारतीय इतिहास में हल्दीघाटी का है”। हल्दीघाटी नाम से प्रसिद्ध यह समूचा स्थान विकट पहाड़ियों से घिरा हुआ है और तंग दर्रेनुमा रास्ता है जिसकी मिट्टी हल्दी जी पीलापन लिए हुए चंदन सी वंदनीय है। प्रताप में इतनी ताकत थी कि उन्होंने दिवेर के युद्ध मे बहलोल खान जो सात फुट का था उसको घोड़े और जिरहबख्तर सहित आधा एक ही वार में चिर दिया था। प्रताप में मानव मूल्य कूट-कूट कर भरे थे, खानखाना रहीम के रानियों के डोले को जब अमर सिंह ने शेरगांव में घेर लिया था तो प्रताप ने नारी इज्जत को ससम्मान पुनः उनको अमर को फटकार लगाते हुएभेजा तो कवि हृदय रहीम की आँखों मे श्रद्धापूर्वक पानी आ गया और कहा-
धर्म रहसी, रहसी धरा, खुट जासी खुरसान।
अमर विसंभर उपरे, राख नहंचो राण।।
अर्थात- जब तक धर्म रहेगा, धरा रहेगी, मुग़ल भी एक दिन खत्म हो जाएंगे पर प्रताप का यश हमेशा कायम रहेगा।
प्रताप ने अपना शरीर चावंड में एक गाय को बचाने के लिए एक शेर को मारा था जिससे उनकी आंत में घाव हो गया था, एक बार धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते वक़्त वो घाव पुनः खुल गया जिससे अत्यधिक रक्तस्राव होने से प्रताप की मृत्यु माघ शुक्ल एकादशी संवत 1640 (29 जनवरी 1597ई.) को हुई। उनकी आठ खंभो की देवली(छतरी) बांडोली के केज़ड़ तालाब पर बनी हुई है। और चावंड में महलो के भग्नावशेष है और प्रताप का बनवाया हुआ चामुंडा माता का मंदिर भी है। कहते है प्रताप की मृत्यु पर उनका कट्टर दुश्मन अकबर भी रोया था। कवि ने कहा है- माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप। अकबर सुतो उजके, जाण सिराणे सांप।।
धन्य है ! वह मां जिसने राणा प्रताप जैसे देश प्रेमी पुत्र को जन्म दिया । धन्य है! पन्नाधाय जिसने अपने पुत्र चंदन का बलिदान देकर बालक उदयसिंह की रक्षा की, जिनसे हमे वीर प्रताप जैसा नायाब रत्न मिला जिसने महलों के सुखमय जीवन का त्याग कर मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवनपर्यन्त जंगलों में राह कर मुगलों से संघर्ष किया, उस स्वतंत्रता के पुजारी प्रताप के स्मरण मात्र से आज भी भुजायें फड़क उठती है। धन्य हैं! वह मेवाड़ भूमि जिसने गुलामी की जंजीरों से मातृभूमि को आजाद कराने के लिए सदैव तत्पर रहने वाला सुपुत्र दिया। इस धरातल पर जब तक वीरों की पूजा होती रहेगी तब तक राणा प्रताप (राणा कीका) का उज्ज्वल व अमर नाम जनमानस को स्वातंत्र प्रीति, देशाभिमान निरंतर पढता रहेगा। स्वतंत्रता के दीवानों के लिए चित्तौड़ तीर्थ और प्रताप देवता है।
डॉ कमल सिंह राठौड़, बेमला
भूपाल नॉबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर।
9828325713(M)

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