राकेश कुमार अग्रवाल
देश की मीडिया का जो मिजाज है उसके मुताबिक सबसे बडी खबर राजनीति की मानी जाती है एवं राजनीति से जुडा कोई मसला हो तो वह सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरता है . ऐसे में यदि देश में कहीं चुनाव हो रहे हों तो मीडिया की तो जैसे सहालक आ जाती है . लाटरी खुल जाती है . इलेक्ट्रानिक मीडिया तो राज्यों के चुनाव को भी इतना उभार देता है कि स्टेट इलेक्शन भी नेशनल न्यूज बन जाती है .
वर्तमान में जब देश के 4 राज्यों एवं एक केन्द्र शासित प्रदेश में चुनाव चल रहे हैं . इनमें भी पश्चिमी बंगाल , असम और तमिलनाडु ऐसे राज्य हैं जो मीडिया की सुर्खियों के लिए हाॅट स्पाॅट थे . अभी जबकि चुनावी प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है और चुनाव का अंतिम चरण चल रहा है इसके बावजूद चुनावों से जुडी खबरें सुर्खियों से गायब हो गई हैं .
मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर चुनावों की खबरों की जगह कोरोना से जुडी खबरों ने ले ली है . और जिस तरह की खबरें आ रही हैं वे बडी ही भयावह और डरावनी हैं . ये सभी खबरें सच भी हैं . लेकिन मेरा सवाल यह है कि क्या इतना क्रूर सच दिखाना या परोसना बाजिब है .
मुझे याद आती है लगभग 20 वर्ष पहले की एक घटना . मैं प्रिंट मीडिया से इलेक्ट्रानिक मीडिया में शिफ्ट हुआ था . उस समय मैं उत्तर प्रदेश के महोबा में तैनात था . दिन दहाडे एक युवक की नाई की दुकान पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी . न्यूज चैनल की रिपोर्टिंग की मेरी नई नई शुरुआत थी . मेरी कोई ट्रेनिंग भी नहीं हुई थी . हत्या की सूचना मिलते ही मैं कैमरामैन को लेकर भागकर घटनास्थल पर पहुंचा . कुर्सी पर ही मृत युवक लुढका हुआ था . गोली उसके पेट में जा धंसी थी . कैमरामैन ने पेट के उस हिस्से को भी जूम कर दिया था जहां गोली लगी थी . सुबह वाले बुलेटिन में उस खबर को जब न्यूज एडीटर ने देखा तो तत्काल उनका फोन मेरे पास आया . उन्होंने मुझसे कहा कि राकेश मैं नाश्ता कर रहा हूं . और आपकी मर्डर की जो खबर चल रही है वह इतनी वीभत्स है कि मेरा नाश्ता करने का मन खत्म हो गया . बताइए इस तरह के वीडियो शूट करके आप दर्शक को क्या दिखाना चाहते हैं . सच यह था कि मैंने शूट देखा ही नहीं था . खबर फाइल करने के बाद तत्काल लिफाफा बनाकर बस से कानपुर भेज दिया था . यदि कैमरामैन ने शूट किया था तो यह जिम्मेदारी कानपुर ऑफिस में बैठे वीडियो एडीटर की थी कि ऐसे वीभत्स दृश्य जो खबर में नहीं परोसे जाने चाहिए थे उसको एडिट कर देता . लेकिन वीडियो एडीटर ने ऐसे फुटेज को एडिट करने के बजाए खबर को यथावत फुटेज के साथ पास कर दिया . कानपुर से खबर हेड आफिस भेजी जाती थी जहां खबर को अंतिम रूप से टेलीकास्ट के लिए तैयार कर फुटेज और वायस ओवर डाला जाता था . खबर की न्यूज वैल्यू के मुताबिक उसको टाइम स्लाट मिलता था . चौंकाने वाली बात यह है कि कानपुर आफिस से लेकर हेड आफिस तक किसी ने फुटेज को हटाने की जरूरत नहीं समझी और उन्हीं दृश्यों के साथ खबर चला दी गई .
किसी भी मीडिया हाउस की जो सबसे बडी ताकत होती है वह उसका संपादक मंडल यानी एडिटोरियल बोर्ड . जो ऐसी खबरों के प्रकाशन और प्रसारण से पहले मीटिंग कर सभी पहलुओं पर चर्चा करने के बाद ही खबर को परोसा जाता था . लेकिन सनसनी फैलाने वाली इस पत्रकारिता की होड में हम यह भूलते जा रहे हैं इन खबरों का मानव मन पर क्या दुष्प्रभाव पड रहा है .
इंसान स्वभाव से एक डरपोक प्राणी है . और सभी के डर अलग अलग होते हैं . डर का केवल कोई एक कारण नहीं होता है . डर के भी अनेरानेक कारण होते हैं . लेकिन कोरोना का जो डर है उसने आम और खास सबको डरा दिया है . डर का आलम यह हो गया है कि डर के मारे लोगों की घिग्घी बंधती जा रही है . लोग दहशत में हैं . बुरी तरह डरे हुए हैं . लोग अवसाद में जा रहे हैं . कोरोना पाजिटिव का मतलब लोग यह समझ बैठे हैं कि सुनिश्चित मौत . जबकि हकीकत ऐसी भी नहीं है . रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है . पूरा सोशल मीडिया इस तरह की खबरों और पोस्टों से पटा पडा है .
किसी के दिमाग पर कोरोना , मौतें , वेंटीलेटर , ऑक्सीजन सिलिंडर , श्मसान घाट , अंतिम संस्कार के लिए लाशों के ढेर जैसी खबरों के हथौडे पीटे जाएंगे तो आम जनमानस को ये लगने लगा है कि मेरा भी अंत समय आ गया है . मुझे भी कोरोना होगा तो मैं भी इसी तरह की मौत मारा जाऊंगा . उसकी सांसे स्वत: ही उखडने लगती हैं . मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि कोविड 19 इतना घातक नहीं है कि मौत होना हर हाल में सुनिश्चित हो . कृपया लोगों को निराशा के भंवर से बाहर निकालिए . उनका संबल बनिए . उनके साथ खडे होइए . यकीन मानिए मौतों का आँकडा और डरावना परिदृश्य बदलते देर नहीं लगेगी .
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