हिंदुस्तान दैनिक समाचार पत्र के रायबरेली प्रमुख वरिष्ठ पत्रकार ” गौरव अवस्थी ” ने क्षेत्र के नामी और गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों को युवा पीढ़ी के सामने लाने बीड़ा उठाया है। उनकी फेसबूक वाल से साभार अक्षरशः
हम आज स्वाधीनता दिवस की 73वें वर्षगांठ के पूर्व दिवस पर खड़े हैं. देश को आजादी दिलाने में ज्ञात-अज्ञात हजारों लाखों करोड़ों लोगों का योगदान रहा है. क्या महिला, क्या पुरुष, क्या बच्चे और क्या बुजुर्ग? सभी आजादी के दीवाने रहे. कोई बापू के आंदोलन में और कोई आजाद भगत सुखदेव की क्रांति के रास्ते.. रास्ते अलग-अलग रहे लेकिन लक्ष्य एक ही था आजादी! आजादी!! आजादी!!!
आजादी के बाद ज्ञात लोगों को तो हमेशा याद किया गया लेकिन अज्ञात अज्ञात ही रहे. कई ज्ञात भी अज्ञात होते चले गए. आजादी पूरी तरह से ज्ञात लोगों के नाम दर्ज होती चली गई. नई पीढ़ी को इन अज्ञात सूरवीरो से परिचित कराने का सिलसिला भी धीरे हुआ, रुका और थम गया. बस वही “नाम” लोगों की जुबान पर आते और रटते चले गए, जो याद कराए गए. पुरानी पीढ़ी को कुछ नाम तो जरूर याद होंगे लेकिन नई पीढ़ी बस उतने ही जानती है, जितने की चर्चा सरकारी और जागरूक समाज के स्तर पर होती रही है.
क्या आजादी इन याद रह गए “मुट्ठी” भर लोगों के ही संघर्ष का ही सुफल है. शायद आप भी कहे “नहीं” लेकिन याद करने और नाम बताने के नाम पर दो-चार नाम और गिने जा सकें, बाकी तो गुमनामी के अंधेरे में ही. अंधेरे में रहना इनकी नियति थी नहीं “नियति” बनाई गई. इतिहास लिखने वालों ने ज्ञात से “अज्ञात” हो गए स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के साथ नाइंसाफी तो की ही. जब ज्ञात ही अज्ञात हो गए तो पहले ही अज्ञात रह गए सेनानियों की फिकर करें कौन? इस करोड़पति सवाल का सही जवाब यही है-” हम करेंगे-हम करेंगे..”
अब अज्ञात रह गए आजादी के आंदोलन के ऐसे दीवानों को घर बैठे तो नहीं खोजा जा सकेगा. इसके लिए हमें अपना कुछ कीमती समय लगाना होगा. पुराने दस्तावेज उलटने-पलटने होंगे. उनको कलमबद्ध करना होगा. आजादी के बाद अज्ञात हो गए और पहले ही कर दिए गए “योद्धाओं” को इतिहास की रोशनी से हमें ही जगमगाना होगा. हम यह नहीं कहते कि हमारी कोशिश सभी अज्ञात बहादुरों को ज्ञात बना ही देंगी. हां! इतना तो जरूर होगा कि अज्ञात से ज्ञात का कोई सफर शुरू तो होगा. हमारी आपकी छोटी-छोटी कोशिशें भले ही कुछ ही लोगों तक पहुंचे लेकिन यह छोटी-छोटी कोशिशें एक बड़ा “इतिहास” बन भी सकती है और बना भी सकती है..
आइए! इस स्वाधीनता दिवस पर हम यह संकल्प लें-
” हम अपने आसपास, अपने गांव, अपने कस्बे, अपने जिले, अपने प्रदेश, अपने देश के उन आजादी के योद्धाओं को ढूंढने की कोशिश करेंगे जिनके इतिहास से नई पीढ़ियों को वंचित रखा गया या जिनके इतिहास को समय की धूल ढक चुकी है”
जरूरत तो वीरता से भरे इस इतिहास पर जमी धूल के खिलाफ “स्वच्छता अभियान” चलाने की है. यह हमारी ही जिम्मेदारी है कि देश की नई पीढ़ी को अपने पूर्वजों से परिचित कराएं जिन्होंने अपने साहस और पराक्रम से अंग्रेजी हुकूमत को धूल चटाई लेकिन समय की बलिहारी है कि समय की “धूल” उन्हें चाट गई..
आजादी के आंदोलन में देशी विदेशी महिलाओं ने बढ़ चढ़कर योगदान दिया था,चाहे विदेशी मूल की आयरलैंड की एनी बेसेंट,सिस्टर निवेदिता(स्वामी विवेकानंद द्वारा दिया गया मूल नाम- मार्गरेट एलिजाबेथ नोबुल), मदर मीरा अल्फासा(mother mirra alfassa),मीरा बहन(महात्मा गांधी द्वारा दिया गया मूल नाम-मेडेलिन स्लेड),सरला बहन(महात्मा गांधी द्वारा दिया गया मूल नाम-कैथरीन मेरी हिलमैन)हो या अपने देश की महान स्वाधीनता सेनानी कस्तूरबा, श्रीमती सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित कमला नेहरू, कमलादेवी चट्टोपाध्याय,कादंबिनी गांगुली,मुथुलक्ष्मी,आभा गांधी आदि,ऐसी ही कमला देवी चट्टोपाध्याय और कादंबिनी गांगुली को आजादी की पूर्व संध्या पर हम याद कर रहे हैं,
कर्मवीर कमलादेवी चट्टोपाध्याय
समाजवादी विचारों से ओतप्रोत 3 अप्रैल 1903 को बेंगलुरु के धनी परिवार में जन्मी कमलादेवी चट्टोपाध्याय स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस से बाहर रहकर अपनी तरह से अलख जगाने वाली पहली महिला थी,माता पिता ने अल्प आयु में ही उनका विवाह कर दिया,पढ़ाई लिखाई की उम्र में ही वह विधवा हो गई,विधवा होने के बाद भी उन्होंने घरवालों की इच्छा के विरुद्ध पढ़ाई जारी रखी,उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी श्रीमती सरोजिनी नायडू के भाई हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय से पुनर्विवाह करके सभी को चौंकाया था,हालांकि उनका यह पुनर्विवाह तमाम बंधनों के चलते बहुत लंबा नहीं चला और 15 वर्ष बाद ही हरिंद्रनाथ से उनके रास्ते अलग हो गए,उनके एकमात्र पुत्र रामकृष्ण चट्टोपाध्याय उस समय विदेश में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, पढ़ाई में अभिरुचि के चलते ही वह उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड चली गई और कैंब्रिज विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का अध्ययन किया, उन्होंने पश्चिम और पूर्व के समाजशास्त्र का विशेष अध्ययन किया,1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर ही वह अपनी पढ़ाई छोड़कर इंग्लैंड से वापस भारत आ गई,मात्र 19 वर्ष की उम्र में उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और कांग्रेस की सदस्य बन गई,23 वर्ष की अवस्था में व्यवस्थापिका सभा के लिए चुनाव लड़ने वाली वह प्रथम महिला थी,हालांकि 200 वोटों से उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, स्वाधीनता के लिए आजीवन लड़ने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने 1929 में साइमन कमीशन वापस जाओ के नारे मुंबई में लगाए और 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में महिला स्वयं सेविकाओं के साथ मुंबई स्टॉक एक्सचेंज को घेरा,1 घंटे के अल्प समय में गैरकानूनी नमक बेचकर ₹40000 भी एकत्र की है, ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें जेल में डाल दिया लेकिन साहस से परिपूर्ण कमला देवी ने जेल से न्यायालय लाए जाने पर टोंक में ही नमक बेचना शुरू कर दिया,उनका साफ कहना था कि केवल नमक कानून तोड़ना हमारा उद्देश्य नहीं है हमारा उद्देश्य अंग्रेजी प्रभुत्व को समाप्त करना है,असहयोग आंदोलन में पहली बार उनको 9 महीने जेल की सजा हुई,उनके कार्यों से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1 वर्ष के लिए नजरबंद भी रखा,दूसरे महायुद्ध के वक्त वह लंदन में थी,उन्होंने भारत में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन के पक्ष में अमेरिका सहित तमाम राष्ट्रों में गलतफहमियां दूर की,उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही 1946 में चौथी बार कांग्रेस के प्रधान नियुक्त हुए जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया था,तब वह राजनीतिक रूप से समाजवादी पार्टी में सक्रिय थी,नेहरू जी के आमंत्रण पर समाजवादी पार्टी ने उन्हें कांग्रेस ज्वाइन करने की आज्ञा प्रदान कर दी थी, समाजवादी पार्टी की स्थापना और संगठन में उन्होंने पूर्ण सहयोग किया था,हालांकि कांग्रेस में पूंजी वादियों की बढ़ती संख्या को लेकर उनके महात्मा गांधी से मतभेद भी हुए,ज्ञान से परिपूर्ण कमला देवी ने कई किताबें भी लिखी,इसके बाद भी उन्हें स्वाधीनता संग्राम में “कर्मवीर” की उपाधि से नवाजा गया,85 वर्ष की अवस्था में 29 नवंबर 1988 को उन्होंने मुंबई में अंतिम सांस ली,उन्हें भारत सरकार ने 1955 में पद्म भूषण,1966 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और देहावसान से 1 वर्ष पहले 1987 में पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत किया गया,आजादी के बाद उन्होंने भारत में हस्तशिल्प और थिएटर की प्रगति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई,
पहली भारतीय महिला चिकित्सक: कादंबिनी गांगुली
18 जुलाई 1861 में भागलपुर में ब्रजकिशोर बासु के घर में जन्मी कादंबिनी गांगुली ने 1882 में कोलकाता विश्वविद्यालय से B.A की पढ़ाई पूरी की,भारत में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने वाली दो महिलाओं में एक वह भी थी,1886 मैं कोलकाता विश्वविद्यालय से ही चिकित्सा स्वास्थ्य की पढ़ाई पूरी करने वाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव भी उन्हें ही हासिल हुआ,भारत की पहली महिला फिजीशियन थी,बाद में चिकित्सा स्वास्थ्य की उच्च शिक्षा के अध्ययन के लिए वह विदेश भी गई,यूरोपीय मेडिसिन में प्रशिक्षण लेने वाली वह साउथ एशिया की पहली महिला भी बनी,उनका विवाह 21 वर्ष की अवस्था में 39 वर्ष के विधुर द्वारकानाथ गांगुली के साथ हुआ, पहली पत्नी से द्वारकानाथ के 5 बच्चे थे और बाद में कादंबिनी से भी 3 बच्चे हुए,कादंबिनी ने 8 बच्चों का पालन पोषण करते हुए पढ़ाई जारी रखी,उनके पति द्वारकानाथ गांगुली महिला अधिकारों के प्रति सदैव चिंतित रहे और कादंबिनी गांगुली उनके इस काम में सदैव सहायक बनी रही,बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की कविताओं से प्रेरित होकर उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी भाग लेना प्रारंभ कर दिया,वर्ष 1889 मैं मद्रास में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के पांचवें सत्र में भाग लेने वाली 6 महिलाओं में से एक कादंबिनी गांगुली भी थी,बंगाल विभाजन के बाद 1986 में उन्होंने कोलकाता में महिला सम्मेलन भी आयोजित किया उस समय महात्मा गांधी अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे,उनके आंदोलन के लिए कादंबिनी गांगुली ने कोलकाता में चंदा भी एकत्र किया,1908 में गांधीजी के रंगभेद विरोधी आंदोलन के समर्थन में कोलकाता में सम्मेलन भी कदंबिनी गांगुली ने आयोजित किया,1914 में कोलकाता में महात्मा गांधी के सम्मान में भी कादंबिनी गांगुली ने सभा का आयोजन किया था, स्वाधीनता संग्राम में अपनी तरह से योगदान देने वाली कादंबिनी गांगुली ने 3 अक्टूबर 1923 को कोलकाता में ही अंतिम सांस ली,ऐसी संघर्षशील कदंबिनी गांगुली जी को आजादी के पावन पर्व पर याद करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि।