पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल, झारखंड और ओडिशा के सीमांत क्षेत्र में टुसू एक प्रमुख पर्व है, जो पूरे पौष माह तक पारंपरिक आस्था, विश्वास के साथ हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। टुसू पर्व को झारखंड में पूस परब एवं मकर परब के नाम से भी जाना एवं पुकारा जाता है। वस्तुतः इस विस्तृत क्षेत्र में निवास करने वाले निम्न-मध्यम किसान परिवारों का वार्षिक फसलोत्सव है, जो पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा, मिदनापुर जिले से लेकर ओडिशा के मयूरभंज, क्योंझर, बारिपदा एवं झारखंड के रांची, खूंटी, सरायकेला-खरसांवा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, रामगढ़, बोकारो एवं धनबाद जिलों तक फैला हुआ है। यह विस्तृत कुर्मी या कुड़मी जाति बहुल क्षेत्र है, जो आजादी के पूर्व के सर्वे एवं 1956 तक जनजाति की श्रेणी में आते थे। क्षेत्र में टुसू पर्व के प्रति कुर्मी/कुड़मी समुदाय के लोगों का विशेष लगाव एवं आस्था देखते ही बनता है। हालांकि, क्षेत्र में निवास करने वाले अन्य जाति एवं समुदाय भी टुसू पर्व को उत्साह के साथ मनाते हैं। यहां तक कि झारखंड एवं आसपास से असम गए चाय मजदूरों में भी यह लोकोत्सव उतना ही श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास के साथ मनाया जाता है। बांग्ला पंचांग की अगहन संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति तक पूरे पूष महीने तक यानी एक माह तक यह लोकोत्सव मनाया जाता है।
अगहन संक्रांति पर टुसू स्थापना के साथ शुरू होता है टुसू पर्व
अगहन संक्रांति (15 दिसंबर के लगभग) की संध्या कुंवारी कन्याओं द्वारा पारंपरिक अनुष्ठान के साथ टुसू की स्थापना एवं पूजन-अर्चन एवं वंदन करती हैं। नित्य टुसूमनी की आराधना एवं संध्या-आरती होती है। प्रतिदिन ये गीत गाया जाता है।
“आमरा जे मां टुसु थापी ,
अघन सक्राइते गो ।
अबला बाछुरेर गोबर ,
लबन चाउरेर गुड़ी गो।।
तेल दिलाम सलिता दिलाम ,
दिलाम सरगेर बाती गो।
सकल देवता संझा लेव मां ,
लखी सरस्वती गो ।।
गाइ आइलो बाछुर आइलो,
आइलो भगवती गो।
संझा लिएं बाहिराइ टुसू ,
घरेर कुलोवती गो ।।”
क्या है टुसू का अर्थ
टुसू’ शब्द की व्युत्पत्ति पर विभिन्न मत हैं। बांग्ला के साहित्यकार डॉ. सुहृद कुमार भौमिक एवं शांति सिन्हा के अनुसार ‘टुसू एक गैर-आर्यन शब्द है, जो ऑस्ट्रो-एशियाटिक कोल मूल से आया है। इसका अर्थ है फूल, फूलों का गुच्छा, कली आदि होता है। संताली में बहाटुसू का अर्थ है फूलों का गुच्छा, ‘टूसा’ का अर्थ है बस कली, कली का एक पत्ता-यौवन और सुंदरता का प्रतीक। कुरमाली भाषा के साहित्यकार श्रीपद बंस्रियार के अनुसार ‘टुसू दो शब्दों, टू और सू के मेल से बना है। टू शब्द का अर्थ परिपक्वता और सू का अर्थ पति होता है।’ उनके निर्दिष्ट शब्द कुरमाली भाषा की शब्दावली से संबंधित हैं। यह फसल और पानी के संबंध को संदर्भित करता है। टुसू को संक्रांति के दूसरे दिन चौड़ल में रख कर पारंपरिक नाच-गान के साथ नदी, सरोवरों में ले जाकर विसर्जित किया जाता है। यहां चौड़ल का शाब्दिक अर्थ होता है चारों ओर गमन करने वाला अर्थात सूर्य की किरणें। अर्थात टुसू सृष्टि रूपी बीज है, जो सूर्य की किरणों एवं जल के संयोग से प्रस्फुटित एवं पल्लवित होता है।
त्योहार के मुख्य घटक हैं धान और चावल
टूसू एक फसल उत्सव है और इस त्योहार के मुख्य घटक धान और चावल हैं। खेतों से सभी धान के पौधों (ढेरों) को काटने के बाद, खेत में जो अंतिम पौधे ढेर रहता है उसे डिनिमाई (डिनी बूढ़ी) कहा जाता है। यह डिनिमाई ही टूसू है। परिवार का मुखिया खेत से डिनिमाई को पारंपरिक श्रद्धा व भक्ति के साथ सिर पर रखकर साथ लाता है। धान की मिसाई तक खलिहान में रखा जाता है। इसके उपरांत धान की खलिहान में मिसाई के बाद शुभ दिन मुहर्त पर उसे घर के गर्भ गृह में अन्नपूर्ण देवी के रूप रखा जाता है और नित्य उनकी संध्या-वंदन की जाती है। संभवत आरंभ में लोग मध्य दिसंबर अगहन संक्रांति तक धान की कटाई पूरी कर लेते थे और डीनी माई को खेत से घर या खलिहान लेकर आवाभगत करते थे। वस्तुतः यह फसल उत्पादन का लोकोत्सव है। क्षेत्र के निम्न-मध्यम किसान के घर इन दिनों साल भर की एकमात्र खरीफ धान की फसल से भर जाता है। वर्षभर अभावों के बीच रहने वाला किसान परिवार सुख और समृद्धि की अनुभूति में डूब टुसु परब में आत्मविभोर हो जाता है।
जीवन के हर रंग है टुसू गीतों में
टुसू गीतों में जीवन के हर रंग है। श्रद्धा भक्ति है, उमंग है उल्लास गतिशीलता है, उलेहना है, व्यंग है समसामयिक घटना बोध है तो राजनीति भी। एक विशेष राग में गाए जाने वाले टुसू गीतों में इतनी गतिशीलता है कि स्वतः ही शरीर के अंग-प्रत्यंग हिलने -डुलने लगते हैं। मानो प्रख्यात शिक्षाविद एवं संस्कृति कर्मी स्व. डा. रामदयाल मुंडा के बोल को चरितार्थ कर रहे हों कि यहां बोलना ही गीत है और चलना ही नृत्य।
सूर्य की शक्ति को कृषि कर्म से जोड़ने का उत्सव
कुर्मी रीति के अनुसार टुसू अविवाहित कन्याओं के सामान है। जैसे ही एक लड़की अपने परिवार में देखभाल के साथ बड़ी होती है, उसी प्रकार पौधे और बीज का भी परिवार द्वारा ध्यान रखा जाता है। टुसू का पानी में विसर्जन वैसा ही है जैसे किसी नवविवाहित लड़की को उसके ससुराल के लिए छोड़ना। चूंकि एक बीज पानी मिलने के बाद ही पनप सकता है, एक नवविवाहित लड़की अपनी ससुराल में अपने पति के साथ सुखमय जीवन जी सकती है। इस संदर्भ में टुसू को जीवन और समृद्धि के अग्रदूत के रूप में देखा जाता है। इस पर्व में सूर्य की भी पूजा की जाती है, क्योंकि सूर्य की उपस्थिति के बिना कोई अंकुरण नहीं हो सकता। मकर सूर्य का ही दूसरा नाम है। मकर संक्रांति या पौष संक्रांति के दिन, जो कि बंगाली महीने पौष का अंतिम दिन है, पूरे भारत में विभिन्न समुदायों के लोग मकर त्योहार या सूर्य देवता का त्योहार मनाते हैं, जो ज्यादातर स्नान पर्व है। सूर्य की गति के पीछे का वैज्ञानिक कारण तो अब हम जान ही गए हैं, लेकिन प्राचीन लोग भी इसके बारे में जानते थे और यह उनके द्वारा मनाया जाता था। अगर हम टूसू को केवल एक स्थानीय घटना के रूप में देखते हैं तो यह टूसू और लोक संस्कृति को समझने में हमारी विफलता है। टुसू का वैज्ञानिक महत्व भी है, क्योंकि प्राचीन लोग सूर्य की गति को कृषि से तादाम्य स्थपित कर सकते थे और वे कृषि में सूर्य की शक्ति को जोड़ने के लिए टुसू की पूजा करते थे।
टुसू को लेकर कई किदवन्तियां हैं प्रचलित
एक गरीब कुरमी किसान की अत्यंत सुंदर कन्या थी। धीरे-धीरे संपूर्ण राज्य में उसकी सुंदरता का बखान होने लगा। तत्कालीन मुगल बादशाह जहांगीर के झारखंड क्षेत्र के सूबेदार अफजल खां के दरबार में भी यह बात पहुंची। सूबेदार को लोभ हो गया और कन्या को प्राप्त करने के लिए उसने षड्यंत्र प्रारंभ कर दिया। उस वर्ष राज्य में भीषण अकाल पड़ा था। किसान लगान देने की स्थिति में नहीं थे। इस स्थिति का फायदा उठाने के लिए सूबेदार ने कृषि कर दोगुना कर दिया। गरीब किसानों से जबरन कर वसूली का राज्यादेश दे दिया। पूरे राज्य में हाहाकार मच गया टुसू ने किसान समुदाय से एक संगठन खड़ा कर सूबेदार के आदेश का विरोध करने का आह्वान किया। सूबेदार के सैनिकों और किसानों के बीच भीषण युद्ध हुआ। हजारों किसान मारे गये टुसू भी सैनिकों की गिरफ्त में आने वाली थी। उसने राजा के आगे घुटने टेकने के बजाय जल-समाधि लेकर शहीद हो जाने का फैसला किया और उफनती नदी में कूद गई। टुसू के इस बलिदान की स्मृति में ही टुसू पर्व मनाया जाता है और टुसू की प्रतिमा बनाकर उसे चौड़ल में रख नाचते गाते नदी में विसर्जित कर श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। यह विसर्जन मकर संक्रांति के दूसरे दिन संपन्न होती है।
एक अन्य कथा के अनुसार टुसूमनी का जन्म पूर्वी भारत के कुर्मी किसान समुदाय में हुआ था। टुसू अत्यंत रूपवती एवं गुणवती थी। बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला तक उसकी सुंदरता की चर्चा पहुंची, तो नबाब ने जबरन विवाह का प्रस्ताव के साथ सैनिको को टुसू के घर भेजा। यह खबर पाकर गांव के लोग एकजुट हुए और पारंपरिक हथियारों से नबाब के सैनिकों का मुकाबला किया, तो परास्त होकर बंदी बना लिए गए, तो गांव की महिलाओं ने टुसू के नेतृत्व में पुरुष वेश धारण कर सैनिकों का मुकाबला किया और नवाब के सैनिकों के छक्के छुड़ा परास्त किया और अपने पति एवं भाइयों को छुड़ाया, पर इस लड़ाई में टुसू शहीद हो गई। तब से नारी शक्ति के सम्मान के लिए समाज के लोग टुसू पर्व मनाने लगे। किसी किदवंती में तत्कालीन समाज में जनी शिकार के परंपरा के अनुसार टुसू के नेतृत्व जनी शिकार के क्रम में वीरगति प्राप्त होने की चर्चा है।
बाउड़ी की रात छंदम युद्ध अभ्यास का प्रचलन
टुसू पर्व के संदर्भ में निश्चित रूप से युद्ध का प्रसंग जुड़ा है। तभी तो कई क्षेत्र में मकर पर्व के पहले रात अगल-बगल के गांवों के बीच छंदम युद्धाभ्यास होता है, जो मिट्टी एवं अरहर या वन तुलसी के डंठल से बनी ची ची वाण के एक सिरे आग से जलाकर एक दूसरे दल की ओर फेंक कर पीछे खदेड़ने का खेल होता है। घर के सभी पुरुष इस छंद युद्ध में भाग लेते हैं। मकर के दिन भी गांवों के बीच फोदी खेल जो हाकी की तरह डंडे की सहारे हवा में खेला जाता है एवं खुखडा उड़ा यानी मुर्गे की लड़ाई का प्रचलन है।
आखाइन जतरा
मकर संक्रांति के दूसरे दिन यानी माघ महीने के प्रथम दिन आखाइन यात्रा का नेकचारी होता है, परंपरा के अनुसार इस दिन अखंड मुहर्त होता है। इस दिन किसान हलाकर्षण, गोबर काटने आदि कार्य संपन्न करता है। इस दिन अन्य शादी-विवाह के लिए संपर्क साधने एवं शुभ यात्रा करने की परंपरा है। इस दिन गांवों में एक-दूसरे से विशेष रूप से मिलने, बड़ों को अभिवादन कर आशीर्वाद लेने की भी परंपरा है। इसी के अनुरूप बहुत वर्षों से इस दिन टुसू मेला नदी तटों पर आयोजित किया जाता है। इसी दिन बंगाल एवं झारखंड के सीमा स्वर्णरेखा, राढू एवं कांची नदी के संगम पर जहां एक किसान की पत्नी सती हुई थी। यहां सतीघाट के नाम से विराट मेला लगता है। उसी तरह जमशेदपुर के पास स्वर्णरेखा एवं खरकई नदी के संगम पर पानला में विशाल टुसू मेला लगता है। यहां बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल एवं झारखंड के लोग स्नान-दान एवं टुसू -चौड़ल का पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ विसर्जन करते हैं। इस दिन बेटी-बहनों के यहां टुसू पर्व के संदेश के रूप में गुडपीठा पहुंचाने, हाल-चाल लेने की कुटुम-कुटमारी की प्रथा है। पर, समय के साथ बढ़ते शहरीकरण, बाजारवादी संस्कृति के कारण अब वह उमंग व उत्साह टुसू पर्व व मेलों में नहीं दिखती। जो, आज से 30-35 वर्षों पहले थी। पहले टुसू मेले संक्रांति के दूसरे-तीसरे दिन तक ही विशेष जगहों पर आयोजित होते थे, पर अब बाजारवाद से प्रभावित टुसू मेले पौष माह के बजाय माघ में महीनों यत्र-तत्र लगते हैं और प्रासंगकिता खोते जा रहे हैं। सुखद बात यह है कि अब टुसू मेले राजधानी रांची सहित औद्योगिक नगरी जमशेदपुर व धनबाद जैसे जगह आयोजित हो रहे हैं।