नेताओं के बिगड़े बोल – राजनीति में गन्दी बात

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राकेश कुमार अग्रवाल
म.प्र. के पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कमलनाथ ने ग्वालियर के डबरा में आयोजित चुनावी रैली में मंत्री इमरती देवी का नाम लिए बगैर यह कहकर कि ” मैं उसका क्या नाम लूं , आप तो मुझसे ज्यादा जानते हो . आपको तो पहले से ही सावधान कर देना चाहिए था कि ये क्या आइटम है . महिला मंत्री को पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा सार्वजनिक सभा में आइटम कहते ही मीडिया , सोशल मीडिया में उनके ये बोल वचन वायरल हो गए . पार्टी की हो रही छीछालेदर के बाद पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केरल के वायनाड दौरे से तीखी प्रतिक्रिया देते हुए इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि जिस भाषा का कमलनाथ ने इस्तेमाल किया है मैं निजी तौर पर उसे पसंद नहीं करता .
सवाल उठता है कि क्या राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी नेता ने गंदे बोल बोले हों . देखा जाए तो ऐसे नेताओं की एक लम्बी फेहरिस्त है . जिनके मुख से अकसर ऐसे ही बोल फूटते हैं जिसको लपकने के लिए मीडिया तैयार बैठा होता है .
राजनीति में नेता की वाकपटुता के साथ साथ उसकी वक्तृत्व कला आगे बढने की बडी यूएसपी मानी जाती है . ऐसे नेता जो बहुत अच्छा भाषण कर लेते हैं उनकी पार्टी और संगठन में आगे बढने की बहुत अच्छी संभावनायें होती हैं . दरअसल अब राजनीति में विपक्षी पार्टी या प्रत्याशी को कमतर दर्शाने के लिए उसकी कार्यप्रणाली , उसकी नाकामी , उसका मुद्दों और समस्याओं के लिए संघर्ष न करना जैसे फैक्टरों पर प्रहार नहीं किया जाता बल्कि ऐसे विषयों पर भाषणबाजी की जाती है जिसका सीधा उस क्षेत्र , उस प्रत्याशी या वहां के मुद्दों से कोई वास्ता ही नहीं होता है . बल्कि लोगों की भावनाओं को भडकाने वाले या फिर वैमनस्यता को बढाने वाले विषयों और जुमलों को उछाला जाता है .
कमलनाथ ने पहली बार गंदे बोल बोले हैं ऐसा भी नहीं है वे एक बार मोदी पर जब हमलावर हुए तो उन्होंने मोदी के लिए कहा था कि उन्होंने जब पैंट और पाजामा पहनना भी नहीं सीखा था तब पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने देश की फौज , नौसेना व वायु सेना खडी कर दी थी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी भाषण शैली व धारा प्रवाह बोलने के लिए जाने जाते हैं . वे आमतौर पर लिखा हुआ भाषण पढते नहीं है बल्कि श्रोताओं से सीधे कनेक्ट करने का प्रयास करते हैं . लेकिन 2018 में कांग्रेसी नेत्री रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पणखा से करने पर मोदी जैसे नेता की भी भद पिटी थी. महिलाओं पर वार करना नेताओं का सरल निशाना होता है . जिसमें कई बार मर्यादाओं की सीमा लांघते देर नहीं लगती . म.प्र . के ही कांग्रेसी नेता जीतू पटवारी ने तो एक बार यह कहकर हद पार कर दी कि चुनावों के दौरान महिलायें 200-500 रुपए लेती हैं और उन्हें अपने ब्लाउज के अंदर रख लेती हैं . तो म.प्र. के गुना विधायक पन्नालाल शाक्य ने महिलाओं को सलाह देते हुए कहा कि वे बांझ रहें लेकिन ऐसे बच्चे पैदा न करें जो संस्कारी न हों एवं समाज में विकृति पैदा करें . ऐसा नहीं है कि हमेशा पुरुष नेता ही अनर्गल बयानबाजी करते हैं . केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर भी घिनौनी बयानबाजी कर चुकी हैं . जब उन्होंने कहा था कि आप अपने किसी दोस्त के घर खून से सना नैपकिन लेकर नहीं जायेंगे न . तो फिर भगवान के घर में आप कैसे जा सकते हैं ?
शरद यादव , योगी आदित्यनाथ , आजम खान , गिरिराज सिंह , साक्षी महाराज , दिग्विजय सिंह , तेजस्वी सूर्या , वरुण गाँधी , कन्हैया कुमार , प्रज्ञा सिंह ठाकुर समेत बयान बहादुरों की एक लम्बी सूची है जो अकसर अपने काम से चर्चा में रहें या न रहें लेकिन बयानों से अवश्य सुर्खियाँ बटोरते हैं . पिछले चुनावों में तो चुनाव आयोग ने भद्दी होती बयानबाजी को देखते हुए आजम खान , योगी आदित्यनाथ , मायावती और मेनका गाँधी पर चुनाव प्रचार से प्रतिबंध लगा दिया था .
अस्सी के दशक में डीएसफोर जैसे संगठन के मुखर होने और तिलक , तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार जैसे नारे उछाले गए . सवर्णों से भरी जनसभाओं से कर्कश भाषा में निकल जाने को कहा गया . इसके बाद मंडल कमीशन और आरक्षण पर राष्ट्रव्यापी उबाल और फिर अयोध्या आंदोलन की लगातार पैनी होती धार ने राजनीति में बयानबाजी और भाषणों का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया . मायावती का उदय और विनय कटियार जैसे फायर ब्रांड नेताओं ने तो आग में घी डालने का काम किया .
फिर तो राजनीति से हंसी- मजाक , व्यंग्य , तंज , हास – परिहास , शुचिता , पवित्रता , मुद्दों पर बहस , मुद्दों पर हमला और सार्वजनिक बहस की चुनौती की जगह अनर्गल बयानबाजी , भडकाऊ भाषण , व्यक्तिगत छींटाकशी , और अश्लील वक्तव्यों ने ले ली .
इलेक्ट्रानिक मीडिया और सोशल मीडिया में घुसपैठ का यह सरल तरीका भी है कि ऐसा बोलो कि आपका बोलना विवाद को जन्म दे दे . चुनावों के वक्त , चुनाव प्रचार के दौरान गंदा बोलना सबसे हिट लिस्ट में होता है . लेकिन राजनेताओं को यह भी समझने की जरूरत है कि गंदे बोल से आप सुर्खियां तो बटोर सकते हैं . हो सकता है कुछ वोट भी हासिल कर लें . लेकिन इससे आप समाज का बहुत बडा नुकसान कर बैठते हैं . सवाल यह भी है कि नई पीढी आपसे कौन सा सबक सीख रही है . बेहतर तो यही है कि आप संतुलित , सारगर्भित बोल बोलें और विपक्षी ही नहीं अपनी साख और गरिमा को भी बचाए और बनाए रखें . सरकारें तो आती जाती रहतीं हैं याद रखें जब सामाजिक मर्यादा का सिस्टम चरमराएगा तो इसके साइड इफेक्ट से कोई बच नहीं सकेगा .

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