न बदलिए गणतंत्र को भीड़तंत्र में

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राकेश कुमार अग्रवाल

26 जनवरी को दिल्ली में जो हुआ उसने तमाम सवाल खडे कर दिए हैं कि कहीं गणतंत्र को भीडतंत्र में तो नहीं तब्दील किया जा रहा है . सवाल यह भी है कि बातचीत से जिस मुद्दे को सुलझाया जाना चाहिए उस पर देश या राजधानी को अराजकता में धकेल कर कहीं हम किसानों के मुद्दे को नया रंग तो नहीं दे रहे हैं ?
किसानों का भला हो , किसानों की आय दोगुनी नहीं कई गुनी हो इसमें किसी को ऐतराज नहीं है . लेकिन जब देश कोरोना महामारी से जूझ रहा था . पूरे देश में लाॅकडाउन था तब जून 2020 में मोदी सरकार ने अध्यादेश लाकर कृषि क्रांति का बिगुल फूंक दिया . इन अध्यादेशों के पीछे मोदी सरकार की मंशा थी कि राज्य नियंत्रित मंडियों में उपज बेचने के बजाए किसान कहीं पर भी अपनी वांछित कीमत पर उपज बेच सकें , काॅरपोरेट जगत ठेके पर किसानों से खेती करा सके व अनिवार्य वस्तु कानून के खात्मे को लेकर कृषि विधेयक लाए गए थे . सितंबर में सरकार ने इन अध्यादेशों को संसद से पारित भी करवा लिया . बस तभी से कृषि अध्यादेश ने विवाद को जन्म दे दिया . खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने खफा होकर इस्तीफा दे दिया . पार्टी के सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल ने केन्द्र की एनडीए ( राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ) सरकार से नाता तोड लिया .
पंजाब , राजस्थान व छत्तीसगढ की सरकारों ने कानून को कमजोर करने की अपने अपने राज्य में कवायद की तो दूसरी ओर देश भर के तीन दर्जन से अधिक किसान संगठन इन कृषि विधेयकों को वापस लेने की मांग करते हुए दिल्ली आ धमके . तब से किसान संगठनों व सरकार के बीच चल रही नूराकुश्ती के बीच रह रहकर वार्ता की कवायद भी शुरु हुई . लेकिन एक दर्जन दौर की वार्ता के बाद भी दोनों पक्षों के बीच कोई संतोषजनक बीच का रास्ता नहीं निकला . न किसान संगठन झुकने को राजी न सरकार विधेयकों की वापसी के लिए तैयार . अपने आंदोलन को धार देने के लिए किसान नित नए प्रयोजन कर रहे हैं ताकि सरकार के समक्ष ये संदेश न जाए कि किसान थक गए हैं और किसान बैकफुट पर हैं . रिपोर्ट बताती हैं कि एक सैकडा किसान इस आंदोलन की भेंट चढ गए हैं . आंदोलन घिसटता रहा . इसी बीच राष्ट्रपर्व गणतंत्र दिवस आ गया . किसानों ने राजपथ पर परेड के समानांतर ट्रेक्टर रैली निकालने का ऐलान कर दिया . गनीनत यह रही कि इंग्लैंड के प्रधानमंत्री जो गणतंत्र दिवस समारोह के आमंत्रित अतिथि थे ने कोरोना के चलते ऐन वक्त पर भारत आने में असमर्थता जता दी . गणतंत्र दिवस पर टैंक बनाम ट्रेक्टर , जवान बनाम किसान न हो जाए . मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा . कोर्ट ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी . आखिरकार कुछ शर्तों के साथ ट्रेक्टर रैली को अनुमति प्रदान कर दी गई .
दरअसल कृषि विधेयकों को लेकर किसानों के असंतोष के अपने कारण हैं . किसानों को डर है कि नए कृषि कानून से न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) पर कृषि उपज की खरीद की व्यवस्था खत्म हो जाएगी . फिर उनकी उपज को उनको औना पौना दाम मिलेगा . उनकी आय बढने के बजाए और घट जाएगी . मंडी व्यवस्था के समानांतर खरीद की नई व्यवस्था से मंडी प्रणाली ही खत्म कर दी जाएगी . कारपोरेट घरानों से सीधा सौदा किए जाने से किसान शोषण का शिकार होगा . एसडीएम को विवादों को निपटारा की पाॅवर देने से किसान कहीं का नहीं रहेगा . उनके अनुसार विवादों का निपटारा एसडीएम कार्यालय के बजाए कोर्ट में ही होना चाहिए .
कोरोना के नाम पर शाहीन बाग प्रकरण से तो सरकार बच गई थी लेकिन इस बार ट्रेक्टर रैली सरकार के गले की हड्डी बन गई थी .
दिल्ली की सडकों , लाल किला समेत दर्जनों स्थानों पर 26 जनवरी को जो हुआ वह बिल्कुल भी अप्रत्याशित नहीं था . दरअसल नेता , पार्टियां और तमाम संगठन भीड तो जुटा लेते हैं लेकिन उस भीड को हांकना उन्हें नहीं आता . भीड का सिद्धान्त ही यही है कि उसमें शामिल लोग बुद्धि, विवेक घर पर रखकर आते हैं . 26 जनवरी को जिस तरह की अराजकता , अफरातफरी दिल्ली में हुई ऐसी ही अराजकता 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली देख चुकी है . पिछले वर्ष भी दंगों में ऐसी ही अराजकता दिल्ली ने देखी थी , 1992 में कारसेवकों की भीड ने अयोध्या में , 2002 में गुजरात के गोधरा में ऐसी ही अराजकता रेलवे स्टेशन पर दिखाई दी थी .
देखा जाए तो देश में टीवी न्यूज चैनल हों , प्रिंट मीडिया हो या फिर सोशल मीडिया बीते कुछ वर्षों में इनका राजनीतिकरण हो गया है . पूरे प्रकरण में किसानों की ट्रेक्टर रैली भी दो खेमों में बंट गई है . एक वो जो सरकार के साथ है दूसरा वो जो किसानों के साथ है . यह बार बार समझने की जरूरत है कि यह पूरा प्रकरण राजनीति का नहीं मंशा का है . भाजपा की यदि मंशा वाकई साफ है तो उसे पूरे मुद्दे पर जल्दबाजी कर अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं थी . बेहतर तो यह होता कि दोनों सदनों में जमकर चर्चा होती , किसान संगठनों को गुड फेथ में लेकर सरकार वार्ता करती . संसदीय समिति पूरे अध्यादेश पर गुण दोष के आधार पर विवेचना करती इसके बाद कानून को अमली जामा पहनाया जाता तो ज्यादा बेहतर होता . अच्छी बात यह रही कि ट्रेक्टर रैली के नाम पर हुई अराजकता पर सुरक्षा बल बेकाबू नहीं हुए अन्यथा पूरा विवाद एक नए मुहाने पर पहुंच जाता .
एक तरफ सरकार ने कृषि कानूनों को प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है तो दूसरी तरफ किसान संगठनों ने भी इसे जीवन मरण का विषय बना लिया है . गणतंत्र का मूलभूत सिद्धान्त असहमति की आवाज को भी सुनना होता है .
किसान संगठन गणतंत्र के सबसे बडे पर्व के दिन उनके नाम पर की गई अराजकता की नैतिक जिम्मेदारी लेने से बच नहीं सकते . जब आप अपने लोगों को संभाल नहीं सकते तो रैली के नाम पर उन्हें दिल्ली बुलाया क्यों , उन्हें जुटाया क्यों ?
मोदी सरकार किसानों की आय दोगुनी करना चाहती है . अर्थव्यवस्था को पांच ट्रिलियन डालर तक ले जाना चाहती है क्या यह सब कृषि और किसानों को साथ लिए बिना संभल होगा ?

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