“बुंदेलखंड के पलायन का सच” निर्वाचित जनप्रतिनिधि नाकाम रहे हैं बुंदेलखंड में

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संपादकीय

कोई भी क्षेत्र , भूभाग या प्रांत हो उसकी एक पहचान व छवि होती है या फिर वहां की सरकारें उस जगह की छवि बनाती हैं जिसके सहारे उसकी राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रांडिंग की जाती है। तभी वह क्षेत्र सुर्खियों में आता है। एवं लोगों के लिए जिज्ञासा व उत्सुकता का विषय बनता है। बुंदेलखंड के परिप्रेक्ष्य में अगर बात की जाए तो आज भी पूरे देश व दुनिया में यहां की छवि भूखे , नंगे , गरीब , बदहाल , लड़ाकू व डकैत प्रभावित क्षेत्र के रूप में रही है। रही सही कसर यहां की उपेक्षा ने पूरी कर दी जिसका दंश आज भी पूरा बुंदेली समाज भुगत रहा है।
उत्तराखंड को देवभूमि व पहाड़ों के दर्शन के लिए जाना जाता है। राजस्थान ऐतिहासिक स्थलों , किलों , महलों , रेगिस्तानी थोरों के लिए विख्यात है। हिमाचल व कश्मीर अपनी नैसर्गिक सुंदरता व पहाड़ी सैर सपाटे के लिए हमेशा से हाॅट स्पाॅट रहे हैं। गुजरात औद्योगिक व धार्मिक के साथ साथ बापू से जुड़े स्थलों , डांडिया , गरबा व नवरात्रि के लिए जाना जाता है। पंजाब कृषि उत्पादन , गिद्दा – भांगडा व मस्ती भरे पंजाबी गीत , संगीत व नृत्य , वहां के ढाबों , लस्सी व छाछ के लिए जग प्रसिद्ध है। देखा जाए तो देश के सभी भूभागों की ऐसी ही कोई न कोई अलग पहचान है। लेकिन बुंदेलखंड जो प्राकृतिक , भौगोलिक , ऐतिहासिक , सांस्कृतिक , धार्मिक सभी दृष्टि से परिपूर्ण है उसकी ब्रांडिंग कभी की ही नहीं गई।
किसी भी क्षेत्र का विकास वहां के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक सजगता से होता है। इस मामले में बुंदेलखंड का दुर्भाग्य रहा है कि यहां पर आजादी के बाद से ऐसे जनप्रतिनिधि नहीं हुए जो क्षेत्र के विकास के लिए पार्टी के शीर्ष नेतृत्व या फिर सरकार के मुखिया से बुंदेलखंड के हित में योजनायें व नीतियां लागू करा पाते। प्रदेश में अब तक जो भी मुख्यमंत्री चुना गया उसने अपने क्षेत्र में भले विकास की गंगा बहाई हो बुंदेलखंड के हिस्से में गंगा की पतली धार तो छोडिए गंगा के छींटे भी कभी नहीं पडे़। जितनी भी बड़ी योजनायें परियोजनायें बनाई गईं वे मुख्यमंत्री या फिर उनके चहेतों के निर्वाचन क्षेत्रों या फिर उन नेताओं , मंत्रियों के हिस्से में आईं जो मुख्यमंत्री या सरकार को झुकाने या मनाने की कला में माहिर थे। या फिर जो सरकार को बनाने बिगाडने की हैसियत रखते थे। प्रदेश में आज तक जितनी भी सरकारें बनीं चाहे वे किसी भी पार्टी की रही हों किसी भी सरकार ने प्रदेश में समान विकास की नीति को लागू नहीं किया। यही कारण है कि उजडे बुंदेलखंड से लोगों को उन शहरों , नगरों की ओर पलायन को विवश होना पड़ा जो समृद्ध थे। जहां की अर्थव्यवस्था सरपट दौड़ रही थी। जहां पर अकुशल व कुशल सभी प्रकार के कामगारों की जरूरत थी।
बुंदेलखंड की दुर्दशा का वाकई कोई अगर जिम्मेदार रहा है तो वो यहां के जनप्रतिनिधि जिन्होंने यहां के विकास की कभी लड़ाई ही नहीं लड़ी। यहां के लोगों को कट्टा और पट्टा के खेल में जन प्रतिनिधि उलझाए रहे। शस्त्र लाइसेंस एक ऐसा झुनझुना रहा है जिसको दिलाना ही लम्बे समय तक विकास का पैमाना बना रहा। जब कभी मांग उठाई भी गई तो पृथक बुंदेलखंड राज्य की न कि बुंदेलखंड में रोजगार परक इकाइयों को स्थापित करने की। लोगों के रोजी रोजगार से जुड़ी परियोजनाओं को शुरु करने की। थोड़ी बहुत परियोजनाएं जो शुरु भी हुईं तो वे झांसी के इर्द गिर्द शुरु हुईं। बाकी बुंदेलखंड क्षेत्र इन परियोजनाओं से वंचित ही रहा। जनप्रतिनिधियों ने अपने काम तो खूब कराए। ठेकेदारी की और स्वयं सरसब्ज हो गए लेकिन क्षेत्र के हाल जस के तस रहे। बुंदेलखंड के जनप्रतिनिधियों ने यहां के मतदाताओं को जाति व धर्म की ऐसी घुट्टी पिलाई जिसके चलते यहां चुनाव प्रत्याशी की मेरिट , उसके गुण , उसकी योग्यता या कर्मठता के बजाए जातियों की गणित में उलझा दिया जाता है।
और तो और दस्यु प्रभावित रहे बांदा व चित्रकूट में दशकों तक डकैतों को राजनीतिज्ञों ने संरक्षण दिया। डकैतों के माध्यम से चौथ वसूली कराई जाती रही। सड़कों , पुलों के निर्माण के लिए आया पैसा हडपा जाता रहा। चुनावों के वक्त फरमान जारी कराए जाते रहे। बाद में उन्हीं डकैतों को मरवाया जाता रहा। पलायन को रोकने के लिए यहां के मूलभूत जरूरतों पर ही काम करने के लिए अगर यहां के जनप्रतिनिधियों ने सरकार को घेरा होता तो शायद पलायन को लेकर इतने विकट हालात न होते। कह जाता है कि मां बच्चे को तब तक दूध नहीं पिलाती है जब तक बच्चा रोता नहीं है। काश बुंदेलखंड से निर्वाचित होकर दिल्ली में संसद में , लखनऊ व भोपाल में विधानसभाओं में गए जनप्रतिनिधि अगर रोए होते तो बुंदेलखंड की सूरत इतनी बुरी भी न होती। देश का यह ह्रदयस्थल आज अपने हाल पर कराह न रहा होता।

राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट

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