बुंदेलखंड ने भुगता सौदेबाजी न कर पाने का खामियाजा

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राकेश कुमार अग्रवाल

बुंदेलखंड पृथक राज्य तो नहीं बन सका लेकिन साथ ही विकास की रेस में भी अंतिम पायदान पर क्यों रहा ? यह एक ऐसा सवाल है जो अकसर उठता रहता है . दरअसल बुंदेलखंड ने सत्ता की राजनीति से दूर रहने का खामियाजा भुगता है . राज्य में जो मुख्यमंत्री बना सत्ता का केन्द्र उसी के इर्द गिर्द रहा और विकास भी उसी के क्षेत्र तक सिमट कर रह गया . बुंदेलखंड से कोई दबाब न बन पाने और सौदेबाजी न होने के कारण अन्य क्षेत्र आगे बढते रहे जबकि बुंदेलखंड के हिस्से में केवल बदहाली ही रही .

450 किमी. से अधिक लम्बाई चौडाई , 2 लाख वर्ग किमी. से अधिक क्षेत्रफल और लगभग तीन करोड आबादी वाले बुंदेलखंड की आकार की दृष्टि से अन्य राज्यों से तुलना करें तो तमाम राज्यों से बुंदेलखंड कहीं ज्यादा बडा और विशाल है .

बुंदेलखंड के 2 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल के मुकाबले में त्रिपुरा का क्षेत्रफल महज 10486 वर्ग किमी. , नागालैंड का क्षेत्रफल 16579 वर्ग किमी. मेघालय का क्षेत्रफल 22489 वर्ग किमी. , मणिपुर का 22356 वर्ग किमी. , मिजोरम का 21090 वर्ग किमी. , हिमाचल प्रदेश का 55676 वर्ग किमी., हरियाणा का 44722 वर्ग किमी. है . इस तरह से देखा जाए तो बुंदेलखंड क्षेत्रफल की दृष्टि से देश के 10 बडे राज्यों में शामिल हो सकता है . इस तरह से देखा जाए तो क्षेत्रफल की दृष्टि से भी बुंदेलखंड अलग राज्य बनने की पूरी अर्हता रखता है .

इसका इतिहास , संस्कृति, भाषा , बोली , सामाजिक रीति रिवाज , रिश्ते नाते सब एक जैसे हैं . यूपी एमपी के सीमावर्ती जिलों में सबसे ज्यादा रिश्तेदारियां हैं . क्योंकि इस क्षेत्र के लोगों व परिवारों के दिलों में यूपी एमपी जैसे बंधन नहीं हैं . वो तो जब चुनाव हों या फिर सरकारों द्वारा लगाए गए नाकों से ये एहसास होता है कि हम दूसरे राज्य में प्रवेश कर रहे हैं .
बीते सात दशकों का इतिहास बताता है कि राज्य के मुख्यमंत्री का ताल्लुक जिस क्षेत्र और जिले से होता है विकास की अधिकांश योजनायें उसी क्षेत्र की ओर मोड दी जाती हैं . नौकरशाही भी अपने आका को खुश करने में लग जाती है . खोद खोदकर ऐसी योजनायें बनाई और निकाली जाती हैं जो भले उस पाकेट के लिए जरूरी न हों . इस तरह से देखा जाए तो जिस क्षेत्र का नेता मुख्यमंत्री बनता है विकास भी उसी इलाके में नजर आता है . बुंदेलखंड जैसे क्षेत्र से एक दो विधायकों को कभी कभार मंत्री पद का चुग्गा जरूर फेक दिया जाता है . जब पृथक राज्य की मांग जोर पकडने लगती है तो विकास परिषद का गठन करके मांग को ही दबाने के लिए बुंदेलखंड से जुडे नेताओं को उसमें बिठा दिया जाता है . या फिर पैकेज पैकेज का झुनझुना थमा दिया जाता है ताकि पृथक राज्य की मांग को थाम लिया जाए . बल्कि पैकेज के नाम पर मिलने वाली योजना भ्रष्टाचार की भेंट अवश्य चढ जाती है .

बीते तीन दशकों से अकसर गठबंधन की सरकारें बन रही हैं . गठबंधन में सरकार बनाने में जिस दल की महती भूमिका होती है वह मोलभाव करने व अपनी मर्जी थोपने में अग्रणी रहता है . ऐसे में जनाकांक्षाओं और मेरिट के आधार पर नीतियां बनाने और उनके क्रियान्वयन की बातें महज एक सपना ही होती है . दबाबों और प्रभावों की राजनीति के इस दौर में बुंदेलखंड के पास न तो राजनीतिक पावर ऐसी है जो सत्ता से मोलभाव करा सके या फिर उसे पृथक राज्य के लिए सहमत होने पर मजबूर कर सके . उत्तराखंड राज्य के गठन में मीडिया की महती भूमिका रही है बुंदेलखंड राज्य के लिए मीडिया फैक्टर भी नगण्य है . फिलहाल एक ही संभावना है कि सरकार यदि प्रदेश के बंटवारे का मन बन ले तो बुंदेलखंड की भी किस्मत का पिटारा खुल सकता है अन्यथा पृथक बुंदेलखंड का हकीकत में जमीं पर उतारना इतना सहज नजर नहीं आ रहा है .

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