संपादकीय-बुंदेलखंड की समूची अर्थव्यवस्था कृषि व पशुपालन पर आधारित रही है। इसके अलावा रोजी रोजगार के छोटे छोटे कौशल आधारित काम थे जिनसे यहां के लोग गुजर बसर करते रहे हैं।
कौशल आधारित कामों में चारपाई बुनना , सूत कातना , बीड़ी बनाना , डलिया बनाना , सूपा बनाना , हाथ के बिजना पंखा बनाना , दोना – पत्तल बनाना , लकड़ी के खिलौने बनाना , सरौता बनाना , बटुआ बनाना , गैंती , फावडा , खुर्पी बनाना जैसे अनेकानेक काम थे जिनसे लोग सीधे तौर पर जुड़े थे। और कलात्मक ढंग से कुशलतापूर्वक करते थे। जहां तक खेती का सवाल है। बुंदेलखंड में सदियों से खेती केवल भरण पोषण का आधार रही है। यहां पर खेती कभी भी आय का जरिया नहीं रही है। पथरीली , असमतल , ऊबड खाबड़ व बंजर जमीन को यहां के लोगों ने अपने श्रम , परिश्रम व पसीने से फसल उगाने योग्य बनाया था। लेकिन अनियमित वर्षा , सिंचाई साधनों का अभाव व बार बार पड़ते अकाल व अतिवृष्टि ने यहां के किसानों को कभी पनपने ही नहीं दिया। बुंदेलखंड में एक सबसे बड़ी विसंगति यह भी है कि यहां पर बड़ी संख्या में ऐसे किसान व जमींदार हैं जिनके पास जमीन का बड़ा रकबा है। साथ ही बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो भूमिहीन हैं। ये भूमिहीन लोग जमींदारी के खेतों पर मजदूरी करना व उनकी खेती से जुड़े कामों जुताई, बुवाई , खरपतवार हटाने , खाद छिड़कने , पानी लगाने , फसल काटने , फसल को खेत से खलिहान पहुंचाने व खलिहान से घर पहुंचाने के काम को संभालते रहे हैं। बदले में उन्हें इतने पैसे मिल जाते हैं कि उनकी गुजरबसर होती रहे। छोटी मोटी खेती वाले किसानों की भी बडी संख्या है।
किसानों के हालात बद से बदतर इसलिए होते गए क्योंकि आजादी के पहले बुंदेेलखंड स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसलिए अंग्रेजों ने बुंदेलखंड की सिंचाई व पेयजल व्यवस्था पर कभी ज्यादा तवज्जो नहीं दी। दूसरी तरफ देश जब आजाद हुआ तब भी बुंदेलखंड की उपेक्षा का सिलसिला यूं ही बना रहा। पेयजल व सिंचाई पर यदि वाकई गंभीरता से सरकारों ने काम किया होता तो बुंदेलखंड से इस तरह पलायन न होता। क्योंकि ‘ मरता क्या न करता ‘ की स्थिति में किसानों व मजदूरों को अपना वतन , अपना गांव , अपनी मिट्टी व अपने लोगों को छोड़कर जाने को विवश होना पडा है। क्योंकि यहां खेती कभी लाभकारी नहीं रही। पशु पालन का काम भी बुंदेलखंड में व्यवसायिक स्तर पर न होकर केवल कृषि से जुड़ाव तक था। ज्यादातर घरों में गाय व बकरी पालन होता था। जिससे मतलब भर का दूध , मट्ठा व घी मिल जाता था। बैलों का इस्तेमाल कृषि कार्य में हो जाता था।
दूसरी तरफ धीरे धीरे शहरीकरण के साथ बड़े नगरों में उपभोक्तावाद भी बढ़ने लगा था। बड़े शहरों में जब सामानों की मांग बढ़ी तो व्यवसायिक रूप से उत्पादन बढ़ाने का दबाव बढा। उस समय तक उत्पादन में मशीनीकरण इतना नहीं हुआ था। इसलिए शहरों में कुशल कारीगरों की मांग बढ़ी। अच्छा वेतन , भोजन व रहने आदि के प्रबंध के ऑफर ने ऐसे कौशल युक्त लोगों को गांवों , कस्बों से निकलकर शहरों में जाने को ललचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में विभिन्न कामों में दक्ष लोग गांव छोडकर बेहतर भविष्य के लोग शहरों में जा बसे।
यही वह टर्निंग प्वाइंट था जब लोगों को शहर व औद्योगिक नगर आर्थिक दशा व दिशा बदलने के लिए आशा की किरण नजर आने लगे। क्योंकि कुशल कारीगर जब महानगरों , औद्योगिक नगरों से छुट्टियों में घर आते तो बड़ी रकम साथ में लाते। शहर की सुख सुविधाओं का बखान करते। साथ ही वहां मिलने वाली मजदूरी का वर्णन करते। गांव में भीषण गरीबी या कहें कि भुखमरी की कगार पर जीवन बसर कर रहे लोगों को भी शहर जाकर कमाने का एक ऐसा जरिया नजर आया जहां वे वापस जिंदगी जी सकते हैं। क्योंकि गुजर बसर के लिए गांव में साहूकार से लिया कर्ज व औना पौना ब्याज व वसूली ने पहले ही उनकी कमर तोड़ रखी थी ऐसे में जीवन यापन के लाले पड़े हुए थे। शहरों ने जो लाइट ऑफ होप दिखाई उससे बुंदेलखंड के लोगों को जीवन जीने की वजह मिली। बुंदेलखंड में अपने गांव में उन्हें भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा था। ऐसे में लोगों को लगा कि क्यों न शहर जाकर एक जुआ खेल लिया जाए। शायद गांव , घर छोड़कर जाने से जिंदगी को नए मायने मिल जाएं। पहले से शहरों में जमे कुशल कारीगरों को भी अपनी हेल्प के लिए हेल्परों की जरूरत थी। यहीं से शुरु हुआ जुगलबंदी का दौर। कुशल कारीगरों ने अकुशल श्रमिकों को अपने साथ चलने का न्यौता दिया। अपनी कंपनी अपनी यूनिट अपनी फर्म में उन्हें बतौर हेल्पर अपने साथ जोड़ा। गांव में जहां महीने में 8-10 दिन काम मिलता था वहीं शहरों में उन्हें बिना नागा रोजाना काम मिलने लगा वो भी बेहतर मजदूरी के साथ।
राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट