राकेश कुमार अग्रवाल
आज रामनवमी है . ऐसे में राम की बात होना जायज भी है और जरूरी भी है . हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति में रचे बसे राम , जनमानस में भी उतनी ही शिद्दत से रचे बसे हैं . सवाल उठता है आखिर राम में ऐसा क्या था कि जिसके लिए उन्हें इतना ऊँचा दर्जा मिला .
राम दरअसल एक ऐसे अनथक योद्धा थे जिन्होंने विकट हालात में भी संघर्ष का दामन नहीं छोडा . उन्होंने उन सभी ऐसी स्थितियों को अपने जीवन में सामना किया जिनसे आम जनमानस दैनंदिन जीवन में दो चार होता है . जबकि वे तो राजपरिवार से थे चाहते तो विरोध करके इन परिस्थितियो से बच भी सकते थे .
राम की जो सबसे बडी खूबी थी वह है स्वीकार करना . रामकथा का आप अध्ययन करें तो पायेंगे कि उनके जीवन में कदम कदम पर उनके साथ चौंकाने वाले वाकयात घटे . और ये घटनायें इतनी बडी व विकट थीं कि किसी भी व्यक्ति की जिंदगी को 360 डिगरी तक घुमाने के लिए पर्याप्त हैं . लेकिन राम ने उन हालातों को स्वीकारा , उनसे जूझे भी और अंतत: विजेता बनकर उभरकर सामने आए . उनकी यह जो जीवटता है उनकी यह जो जिजीविषा है यही उनको दूसरों से अलग करती है .
आज जब हर जगह वर्चस्व की लडाई है . सत्ता की लडाई है कुर्सी और पद की लडाई है . हजारों वर्षों से चली आ रही है . राम ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सत्ता पाने या उसे हासिल करने की लडाई कभी नहीं लडी उन्होंने चीजों को पाकर त्यागा है . उसे छोडा है . पहले उन्होंने पिता के वचन की पालना में राजसत्ता को त्यागा . जबकि इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा पडा है कि सत्ता हासिल करने के लिए भाई ने भाई का और बेटे ने पिता का खून बहाने से गुरेज नहीं किया .
गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया ही था कि सत्ता तो दूर महल की शानोशौकत से भी उन्हें दरबदर कर दिया गया . लेकिन न वे रोए न गिडगिडाए न किसी को कोसा न बद्ददुआ दी और निकल पडे आजीवन कारावास रूपी 14 वर्ष के एक ऐसे सफर पर जो दुश्वारियों से भरा पडा था . वो भी नई नवोढा पत्नी और छोटे भाई के साथ . कल्पना करिए जो अपनी झोपडी और कुटिया को छोडने का मोह नहीं त्याग पाता दूसरी तरफ राम राजसी वैभव त्याग कर निकल पडेे . बुढापे में भी सत्ता और कुर्सी का लोभ न त्यागने वाले राम के त्याग का भला कैसे अंदाजा लगा सकते हैं ? राम को यदि सत्ता का मोह होता तो लंकाधिपति रावण को लंका में हराने के बाद वे वहां की राजगद्दी हासिल कर सकते थे लेकिन राम सीता को लेकर और विभीषण को राजगद्दी सौंपकर चल पडे थे . इंसान के लिए पत्नी और बच्चों से ज्यादा अहमियत किसी की नहीं होती . लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रों को भी सामाजिक लांछनों से बचाने के लिए सीता को उस समय त्यागने से गुरेज नहीं जब वह गर्भवती थी .
14 वर्ष के वनवास में राम ने सामाजिक समरसता के साथ मैनेजमेंट का बेजोड उदाहरण प्रस्तुत किया . पशु पक्षी , कोल भील , आदिवासी , हनुमान निषादराज , शबरी , नल नील , जामवन्त सभी उनके संघर्ष पथ में सारथी बने . पत्नी विछोह सहना पडा . समुद्री बाधा को पार कर लंका जाना . सब कुछ तो कांटों से भरा था . लेकिन अनजान लोगों के बीच अनजान राहों में अपने लिए न केवल रास्ता बनाना बल्कि मंजिल तक पहुंचना उनके मैनेजमेंट व प्लानिंग का ही कमाल था . और यह बिना विनम्रता के संभव नहीं है . सबका विश्वास जीतना उन्हें अपने साथ सहभागी बना लेना . वो भी रामकाज के लिए यह सब इतना भी सहज नहीं था . राम का जो सबसे बडा पाजिटिव प्वाइंट था कि उन्होंने परिवार का दामन कभी भी नहीं छोडा . तब जब उन्हें वनवास मिला . तब भी नहीं जब वे अकेले वन गमन को निकले . पत्नी और भाई की जिद के आगे वे मजबूर हुए . जब भरत मनाने आए तो उसको मना कर समझा बुझाकर वापस अपनी खडाऊँ के साथ विदा किया . जो साबित करता है कि एक अच्छे कम्युनिकेटर भी थे . जो जानते थे कि किस को किस तरह से अपने पक्ष में जोडा जा सकता है उसे मनाया जा सकता है .
अयोध्या से निकलने के बाद राम का पूरा जीवन उनके संघर्ष व उनके द्वारा लिए गए निर्णयों का साक्षी रहा है . लेकिन उन्होंने सभी समस्याओं और चुनौतियों का सामना किया . न रण छोडा न कदम वापस खींचे . लगे रहे , डटे रहे . और यही जीवन सूत्र राम देकर गए हैं कि सफलता मिले या न मिले लेकिन हम कोशिश भी न करें ये तो गलत बात है .
राम – एक अनथक योद्धा
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