लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का

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रिपोर्ट- राकेश कुमार अग्रवाल

मुझे तो लगता है कि यह दुनिया एक प्रयोगशाला है . हो सकता है कि आप कहें कि यह दुनिया प्रयोगशाला नहीं बल्कि एक बाजार है . भई बात तो एक ही है . दरअसल प्रयोगशाला में जो काम हो रहा है वह बाजार के लिए ही तो हो रहा है .
बचपन से पढते सुनते आए हैं कि शुरुआती जमाना ताकत का था . यानि मसल पावर का जमाना था . इसलिए अखाडे हुआ करते थे लोग दंड बैठकें लगाया करते थे , मुगदर भांजा करते थे . कुश्तियां होती थीं , दंगल होते थे . मल्ल युद्ध होते थे . अपनी मां का दूध पिया हो तो आ जा दो दो हाथ करने जैसे चैलेंज दिए जाते थे . इसलिए पहलवानों का बडा मान सम्मान हुआ करता था .
वक्त बदला तो जमाना आया मनी पावर का . बाप बडा न भैया सबसे बडा रुपैया . जिसे देखो पूरी दुनिया रुपए पैसे के पीछे भाग रही है . होड मची है पैसा कमाने की . सब अपने अपने स्तर से वैध अवैध रूप से कमाने में लगे हैं . पैसा कमाने के लिए नए नए अवसर बनाए जा रहे हैं . रोजाना नई नई थ्योरी गढी जा रही हैं . गढी गई बेसिरपैर की थ्योरी का भी जमकर गाना गाया जाता है . मीडिया और चैनल भी विज्ञापनों की चाहत में ऐसी थ्योरी के दांवों की जांच पडताल किए बिना चीजों और दावों को ऐसे परोसता है जैसे कोई अलादीन का चिराग हाथ लग गया हो .
कंपनियां तो इस मामले में आए दिन रोचक शोध पेश करती रहती हैं ये शोध कभी चाय , तो कभी काॅफी , कभी चाकलेट तो कभी ग्रीन टी की मार्केटिंग के भी होते हैं .
बीते डेढ साल से कोरोना के नाम पर ऐसा ही खेला चल रहा है . शुरुआत होती है माॅस्क पहनाने से . एन 95 मास्क को कारगर उपाय बताने का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने अफरातफरी में पांच पांच सौ रुपए की कीमत में मास्क खरीदे . कुछ माह बाद कहा गया कि यह मास्क प्रभावी नहीं है . प्लाज्मा थेरेपी का जमकर गाना गया . प्लाज्मा डोनेट करने को महामारी काल में सबसे बडा दान बताया गया . अति उत्साह में प्लाज्मा भी चढा दिया गया . लेकिन नतीजा क्या निकला ठन ठन गोपाल . मीडिया भी प्लाज्मा प्लाज्मा गाने में लगा रहा . अमेरिका से रिसर्च आई कि हाइड्राक्सी क्लोरोक्वीन टैबलेट बडी कारगर है . अमेरिका से लेकर भारत और पूरी दुनिया में हाइड्राक्सी क्लोरोक्वीन टैबलेट की न केवल बंपर डिमांड बढ गई बल्कि तमाम डाक्टरों उनके यार दोस्तों परिजनों तक ने एडवांस में हाइड्राक्सी क्लोरोक्वीन टैबलेट डकार ली .
आरोग्य सेतु ऐप को डाउनलोड करवाने का ऐसा प्रायोजित अभियान चला कि पूछो मत . बस चलता तो जिस तरह पकड पकड कर नसबंदी कराई गई थी उसी तरह जबरन आपका स्मार्ट फोन कब्जे में लेकर आरोग्य सेतु ऐप को डाउनलोड करा दिया जाता . बीते 6- 8 महीने से देश में आरोग्य सेतु की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा .
रेमडिसिवर इंजेक्शन को लेकर जो हायतौबा मचाई गई . उससे देश में कालाबाजारियों की चांदी कट गई . भले संबंधित पेशेंट को उक्त इंजेक्शन की जरूरत न रही हो . वैसे भी रेमडिसिवर इंजेक्शन के जितने फायदे हैं उसके साइड इफेक्ट उससे कहीं ज्यादा हैं .
वैक्सीन की डोज और दो डोजों के अंतराल को लेकर भी जितनी कलाबाजियाँ खाई गईं उनको देखकर तो लगा कि ये एक्सपर्ट की राय है या जिमनास्ट या फिर नटों के करतब . ये जितने भी शोध आ रहे हैं इनकी फैक्ट्री कहां हैं . इनका उत्सर्जन कहां से हो रहा है . इनके एवीडेंसियल प्रूफ कहां है कोई बताने वाला नहीं है . कई बार तो यह लगता है कि रिसर्च के नाम पर हम आप पर एक्सपेरीमेंट ज्यादा किए जा रहे हैं . लग गया तो तीर नहीं तो तुक्का तो है ही . फिर एक और एक्सपेरीमेंट होगा . उस एक्सपेरीमेंट का गाना गाने के लिए मीडिया का भौंपू तो है ही .

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