लोकतंत्र है या ढूंढ़तंत्र

21

राकेश कुमार अग्रवाल
दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारत इन दिनों एक ही राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहा है . वह समस्या है खोज . यह खोज भी आविष्कार से जुडी नहीं न होकर चीजों को ढूंढने की है . कोई ऑक्सीजन सिलिंडर को खोज रहा है तो कोई रेमडेसिवर इंजेक्शन को मेडीकल स्टोरों से लेकर डीएम , सीएमओ और दलालों के पास ढूंढ रहा है . कोई अस्पतालों में खाली बैड ढूंढ रहा है तो कोई वेंटीलेटर की उपलब्धता वाला अस्पताल ढूंढ रहा है . जिसे भी देखिए सभी ढूंढने में लगे हैं . 1957 में महबूब खान की चर्चित फिल्म आई थी मदर इंडिया . फिल्म का एक गीत बहुत ही काफी मार्मिक था जिसमें हीरोईन दरबदर भटकते हुए गाना गा रही थी

” नगरी नगरी द्वारे द्वारे ढूंढूं रे सांवरिया
पीया पीया रटते रटते हो गई रे बावरिया ” .
आज कमोवेश पूरे देश में हालात ऐसे ही हैं जब समय पर ऑक्सीजन न मिलने के कारण लाखों लोगों ने दम घुटने से दम तोड दिया . मजबूरन कोर्ट को आगे आकर स्वयं टास्क फोर्स गठित करनी पडी .
1975 में गुलजार की एक फिल्म आई थी मौसम जिसका एक गीत जिसे भूपिंदर सिंह ने गाया था बहुत लोकप्रिय हुआ था कि ” दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन ” . देर से ही सही कोरोना ने फुर्सत वाली मांग को जरूर पूरा कर दिया . और इतना फुर्सत किया कि 12 करोड से अधिक लोगों को बेरोजगार कर दिया . व्यापारी , सिनेमाहाल , माॅल , मल्टीप्लेक्स , फन पार्क , वाटर पार्क , स्कूल – कालेज समेत शिक्षण संस्थायें बर्बादी की कगार पर पहुंच गई हैं . लोग सवा साल से इतनी फुर्सत में हैं कि फुर्सत से भी फुर्सते हाल में पनाह मांग रहे हैं . दो और चार कमरों के घर को देख देखकर लोग परेशान हैं . पहले लोग छुट्टी न मिलने से परेशान रहते थे और संडे का बेसब्री से इंतजार करते थे . छुट्टी प्रेमियों के इसी दर्द को समझते हुए केन्द्र सरकार ने तो बाकायदा एक हफ्ते में दो दिन का अवकाश देना शुरु कर दिया था जिसे पाश्चात्य देशों की तर्ज पर नाम दिया गया था ‘ फाइव डेज इन ए वीक ‘ ताकि दो दिन की छुट्टी के बाद जब कर्मचारी और अधिकारी दफ्तर वापसी करें तो ज्यादा तरोताजा हों एवं प्रोडक्टिविटी भी ज्यादा हो . लेकिन अब वे सभी फुर्सतिए फुर्सत से निजात पाना चाहते हैं .
1961 में गंगा जमुना फिल्म में कान का बाला ढूंढा जा रहा था . हीरोईन द्वारा अपने साजना से कहा जा रहा था कि ‘ ढूंढो ढूंढो रे साजना मोेरे कान का बाला ‘ .
कोरोना के चलते नौकरी गंवा बैठा बेरोजगार अपने लिए एक अदद नौकरी ढूंढने में लगा है . गांव छोडकर शहर गया युवक घर वापसी के लिए ट्रेनें और बस ढूंढ रहा है . जो येन केन प्रकारेण गांव आ गए हैं वे मनरेगा में काम ढूंढ रहे हैं . अविवाहित युवक अपनी शादी के लिए लडकी ढूंढ रहा है . बेटी का पिता उसके हाथ पीले करने के लिए सरकारी नौकरी वाला दामाद ढूंढ रहा है . दूसरी तरफ जिन परिवारों पर कोरोना ने कहर बरपाया है वे पल्स ऑक्सीमीटर और पैरासिटामोल टेबलेट ढूंढ रहे हैं . विशेषज्ञ डाक्टर तो ढूंढने से नहीं मिल रहे हैं . जिन झोलाछाप डाक्टरों को पानी पी पीकर गरियाया जाता है वे गांवों , कस्बों में देवदूत बन गए हैं क्योंकि सरकारी अस्पतालों ने तो दुकान समेट रखी है वहां डाक्टर ढूंढे नहीं मिल रहे हैं . कोरोना से जिनके प्रियजनों ने दम तोडा है वे श्मसान घाट में अपने प्रियजन का अंतिम संस्कार करने के लिए जगह और लकडी ढूंढ रहे हैं . क्योंकि अंतिम संस्कार के लिए भी नंबर लगे हैं . विडम्बना तो ये भी है कि कुछ जगह एक ही चिता पर कई शवों को लिटाकर एक बार में ही सामूहिक अंतिम संस्कार कर दिया गया है .
तमाम क्षेत्रों के लोग अपने अपने सांसद और विधायकों को ढूंढ रहे हैं कि कोरोना के बहाने ही सही एक बार मिल जाएं उनके दीदार हो जाएं . लेकिन सांसदों और विधायकों ने भी चतुर सुजान की तरह खुद को क्वारंटीन कर रखा है . पार्टियां वोटर ढूंढ रहीं हैं तो स्वास्थ्य कर्मी कोविड पाजिटिव पेशेंट ढूंढ रहे हैं . पुलिस लाॅकडाउन तोडने वालों को तोडने के लिए डंडा लेकर ढूंढ रही है .
मेरा तो आप सभी से कहना है कि बच के रहना रे बाबा क्योंकि कोरोना भी अपने नए शिकार को ढूंढ रहा है .

Click