विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय : तक्षशिला

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तक्षशिला प्राचीन भारत में गांधार देश की राजधानी और शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यह विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय था जिसकी स्थापना 700 वर्ष ईसा पूर्व में की गई थी।

तक्षशिला वर्तमान समय में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के रावलपिण्डी जिले की एक तहसील है।

तक्षशिला की जानकारी सर्वप्रथम वाल्मीकि रामायण से होती है।

अयोध्या के राजा श्रीरामचंद्रजी की विजय के उल्लेख के पश्चात श्रीवाल्मीकि लिखते हैं कि उनके छोटे भाई भरत ने अपने नाना केकयराज अश्वपति के आमंत्रण और उनकी सहायता से गंधर्वो के देश (गांधार) को जीता और अपने दो पुत्रों को वहाँ का शासक नियुक्त किया। गंधर्व देश सिंधु नदी के दोनों किनारे स्थित था।

सिंधोरुभयत: पार्श्वे देश: परमशोभन:

वाल्मीकिरामायण, सप्तम 100-11

और उसके दोनों ओर भरत के तक्ष और पुष्कल नामक दोनों पुत्रों ने तक्षशिला और पुष्करावती नामक अपनी-अपनी राजधानियाँ बसाईं। तक्षशिला सिंधु के पूर्वी तट पर थी।

रघुवंश पंद्रहवाँ, 88-9; वाल्मीकि रामायण, सप्तम, 101.10-11;
वायुपुराण, 88.190, महा0, प्रथम 3.22।

तक्षशिला विश्वविद्यालय में पूरे विश्व के 10,500 से अधिक छात्र अध्ययन करते थे।

यहाँ 60 से भी अधिक विषयों को पढ़ाया जाता था। विश्वविद्यालय में आवास कक्ष, पढ़ाई के लिए कक्ष, सभागृह और पुस्तकालय थे। विभिन्न विषयों पर शोध का भी प्रावधान था।

इसका कोई एक केन्द्रीय स्थान नहीं था, अपितु यह विस्तृत भू-भाग में फैला हुआ था।

महत्वपूर्ण पाठयक्रमों में यहाँ वेद-वेदान्त, अष्टादश विद्याएं, दर्शन, व्याकरण, अर्थशास्त्र, राजनीति, युद्धविद्या, शस्त्र-संचालन, ज्योतिष, खगोल, गणित, चिकित्सा, आयुर्वेद, ललित कला, हस्त विद्या, अश्व-विद्या, मन्त्र-विद्या, विविद्य भाषाएं, शिल्प, गणना, संख्यानक, वाणिज्य, सर्पविद्या, तंत्रशास्त्र, संगीत, नृत्य , चित्रकला, मनोविज्ञान, योगविद्या, कृषि, भूविज्ञान आदि की शिक्षाएं दी जाती थीं।

प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की।

परवर्ती काल में यह बौद्ध धर्म के संन्यासी द्वारा परिचालन किया गया और लोग इसे बौध विहार समझने लगे।

सुप्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्रीचाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी।

तथा यहीं पर अर्थशास्त्र व राजनीति के अध्यापक बने।

चौथी शताब्दी ई. पू. से ही इस मार्ग से भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमण होने लगे। विदेशी आक्रांताओं ने इस विश्वविद्यालय को काफी क्षति पहुँचाई। अंततः छठी शताब्दी में यह आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया।

साभार -पद्मेश जी

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