विश्व पर्यावरण दिवस पर संस्मरण

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जडों से कटने का दुष्परिणाम भोग रहे हैं

राकेश कुमार अग्रवाल

बचपन के दिन आज भी याद आते हैं जब इतनी वैज्ञानिक प्रगति नहीं हुई थी . इंसान प्रकृति के न केवल करीब था बल्कि मुझे तो लगता है कि प्रकृति के साथ रचा बसा था.

पुरानी तहसील के निकट मेरा घर था . घर के ठीक पीछे पहाडिया थी जो आज भी विद्यमान है . मेरे दो घर थे सडक के दाहिने तरफ वाले घर में दादा जी और सबसॆ छोटे चाचा रहते थे . सडक के बायीं ओर वाला घर मेरा था . दोनों घर कच्चे और खपरैल वाले थे . उस समय नगर में पक्के घर गिनती के थे जबकि आज के कुलपहाड में कच्चे घर ढूंढना पडेंगे.

दादा जी वाले घर में नीम का विशालकाय पेड लगा था . घर के आँगन में तुलसीघर तो था ही . नीम की पत्तियां , निबौरी पूरे घर आँगन और इर्द गिर्द बिखरी रहती थीं . लेकिन इसको समेटने को लेकर घर में कभी किसी को कोफ्त नहीं होती थी . बरसात में केंचुआ पूरी बखरी में रेंगते रहते थे . जो हमारे मनोरंजन के भी माध्यम भी थे . मेरा ज्यादा वक्त दादाजी ( दाए ) और दादी जी ( बाई ) के पास बीतता था . लेकिन वक्त के साथ कच्चा घर पक्के घर में तब्दील हुआ और नीम का पेड हमेशा के लिए चला गया . हमारे वाले घर में भी तुलसीघर के अलावा आंगन में एक ओर पपीते के पेड लगे थे . लगभग साल भर पहले तक मेरा घर बगिया बन कर रहा . जहां पर दर्जनों पेड पौधे लगे रहते थे . पेडों को पानी देना वहां से फल फूल तोड कर लाना अम्मा की नियमित दिनचर्या का हिस्सा था . अम्मा वहां प्रतिदिन दो से तीन घंटे जरूर बिताती थीं . लेकिन रिहायशी आवश्यकता के कारण एक दिन बगिया को नष्ट करना पडा और वहां पर पेड , तनों और बेलों की जगह कंक्रीट की दरो दीवारों ने ले ली . हमारे पडोस में रहने वाले भंती दर्जी के यहां खजूर के पेड लगे थे . गर्मी के दिनों में खजुरिया खाने के लिए हम सुबह से उनके घर पहुंच जाते थे . घर से 10 मीटर की दूरी पर मुन्ना यादव के दरवाजे के बाहर बरगद का विशालकाय पेड था . उनके घर की पहचान ही बरगद के पेड के कारण बरिया वाले मुन्ना से थी . कंचा , गिल्ली डंडा खेलना हो या सावन में पेड की डाल पर रस्सी के सहारे झूला झूलना और पेंगे बढाने के आनंद के बारे में एसेल वर्ल्ड , अप्पू घर और एम्यूजमेंट पार्क की सैर करने वाले उस आनंद को महसूस ही नहीं कर सकते हैं . उस दौर में इक्का दुक्का घर रहे होंगे जिनके यहां पेड न हों अन्यथा हर घर में पेड होते थे.

महज एक फर्लांग की दूरी पर बडा तालाब है . जिसके दोनों घाटों पर बडे बडे पेड लगे थे . 9 पहाडियों से घिरे नगर की कुछ पहाडियों पर तो बस्ती बस गई है तो कुछ पहाडों पर प्रशासन खनन करा रहा है जिससे उक्त पहाडियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है .
चूल्हे पर खाना पकता था . प्रेशर कुकर था नहीं . तालाब के पानी में दाल जल्दी पक जाती थी . इसलिए अम्मा जब तालाब कपडे धोने जाती थीं तो वहीं से एक देगची में पानी जरूर भर लाती थीं ताकि दाल पकाने में ज्यादा मशक्कत न करना पडे . तालाब के पार्श्व में लगे पेडों तले बैठकर आषाढ माह में हम लोग गरमागरम भटा का भरता और गक्कड खाते थे . और आम चूसते थे . पेड के नीेचे मिट्टी पर पालथी लगाकर बैठकर खाने का आनंद आज भी जेहन में बसा है . तालाब ढीमरों के हवाले थे तो जीवंत थे . आज उसी तालाब में प्लास्टर आफ पेरिस से बनी प्रतिमाओं का विसर्जन होता है . पास में ही मांस मछली मंडी खुल गई है . जिसका जो भी अनुपयोगी हिस्सा होता है तालाब में फेक दिया जाता है . जिससे तालाब का पानी दूषित हो रहा है.

मेरी अम्मा खजांची की बेटी हैं लेकिन उनको पेड पौधों की इतनी जानकारी व लगाव है कि कई बार तो ये लगता है कि किसान की बेटी हैं . प्रकृति से हम ज्यों ज्यों दूर होते जा रहे हैं . हमें बिगडते पर्यावरण की उतनी शिद्दत से याद आ रही है.

अगर हम अपनी जडों से जुडे रहेंगे . प्रकृति प्रदत्त चीजों को लखपति , करोडपति बनने का साधन न बनायेंगे तो पर्यावरण भी सलामत रहेगा . जो हमारा प्रकृति से ताना बाना और जुडाव था वो एक संस्कार था जिसे हम भुला बैठे हैं . इसीलिए हालात इस कदर विकट हो गए हैं.

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