राकेश कुमार अग्रवाल
मुगल काल से लेकर आज भी सोहन हलवा बदस्तूर अपना वजूद बनाए हुए है. अरब देशों से लेकर सुपरस्टार अमिताभ बच्चन भी इस हलवे के दीवाने हैं . आप यह जानकर दंग रह जाएंगे कि सोहन हलवे को तैयार करने में दस दिन लगते हैं .
सोहन हलवा मुगलों की देन माना जाता है . इतिहासकार एस. अब्दुल खालिक के अनुसार 16 वीं सदी में मुगल बादशाह हुमायूं ने जब दूसरी बार हिंदुस्तान पर परचम फहराया था तो हिंदुस्तान में रहते समय उन्हें सोहन हलवा की याद आई . तब उन्होंने पर्शिया से सोहन हलवा के कारीगरों को हिंदुस्तान बुलवाया और उनसे यहीं पर हलवे का बनवाया .
मुल्तान के शासक दीवान सावन मल ने 1750 में हेरात क्षेत्र में पहली बार सोहन हलवा तैयार कराया . जिसे मुल्तानी सोहन हलवा नाम दिया गया . मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के दौर में पुरानी दिल्ली में घंटेवाला मिठाई की दुकान पर सोहन हलवा की शुरुआत हुई .
मुगलों व नवाबों से होता हुआ सोहन हलवा कब बांदा आ गया इसका कोई आधिकारिक इतिहास तो नहीं है लेकिन बांदा में नवाबों की हुकूमत रही है इसलिए ऐसा माना जाता है कि बांदा में नवाबी दौर में ही सोहन हलवा दस्तक दे चुका था . बांदा का सोहन हलवा अपने अनूठे स्वाद , करारेपन व सोंधेपन के लिए जाना जाता है .
हलवा झटपट तैयार होने वाली मिठाई मानी जाती है . जिसे बिना दांतों वाले लोग भी चाव से खा सकें . लेकिन सोहन हलवा को तैयार करने में सात से दस दिन का समय लगता है . कठिया गेहूं को दस दिन पहले अंकुरित करना पडता है . कठिया गेहूं में सबसे ज्यादा प्रोटीन पाया जाता है . अंकुरित गेहूं को सुखाकर पिसवाने के बाद महीन कपडे से छान लिया जाता है . इस गेहूं के सत का मैदे के साथ घोल तैयार किया जाता है . एक दिन पहले तैयार किए गए इस घोल को रात भर के लिए रख दिया जाता है . अलग से धीमी आँच में चाशनी पकाई जाती है . तैयार घोल को चाशनी के साथ कटोरियों में डाल दिया जाता है . बाद में इसके ऊपर काजू , बादाम , पिस्ता और अन्य सूखे मेवे मिला दिए जाते हैं . कुछ समय बाद यह घोल कैंडी की तरह ठोस आकार ले लेता है . सोहन हलवा बनाने में शुद्ध देशी घी भी बडी मात्रा में इस्तेमाल होता है . एक घान ( लाॅट ) को तैयार करने में एक घंटे का वक्त लगता है . एक घान का वजन लगभग 8 किग्रा. होता है . सोहन हलवा आम हलवों की तरह मुलायम न होकर ठोस टुकडा होता है . इसको या तो आप टाॅफी , कैंडी की तरह चूसकर खा सकते हैं . या फिर दांतों से तोडने के बाद इसे मुंह में रख कर हौले हौले खाते रहें . यह मुंह में धीरे धीरे घुलने लगता है . यह इकलौता ऐसा हलवा है जिसे बिना चम्मच के खाया जाता है . इसके नाम के साथ भले हलवा शब्द जुडा हो लेकिन सच यह है कि मिठाईयों की दुकान में जितनी भी मिठाईयाँ बिकती हैं उनमें यह सबसे कठोर होता है . इसके एक पीस का वजन सौ – सवा सौ ग्राम होता है . हालांकि अब कुछ हलवा निर्माता अब छोटा पीस भी तैयार करने लगे हैं . सोहन हलवा का एक पीस खाना आसान नहीं होता है . इसे थोडी थोडी मात्रा में खाया जाता है . ज्यादा मात्रा में खाने से यह दांतों में चिपकता है . इसे सर्दियों की स्वीट डिश माना जाता है . दशहरा के बाद से इसका निर्माण और बिक्री शुरु हो जाती है . जो फागुन में होली तक चलती है . यह अधिकतम 6 माह की मिठाई है . बांदा के बोडेराम हलवाई के इन्दु बताते हैं कि दीपावली के बाद ही सोहन हलवा का स्वाद बढता है . ज्यों ज्यों सर्दी बढती जाती है सोहन हलवा की रंगत , उसका स्वाद , सोंधापन व करारापन बढता जाता है . गर्मियाँ शुरु होते ही देशी घी पिघलने लगता है . जबकि सोहन हलवा की खूबी यह है कि देशी घी जमना चाहिए पिघलना नहीं चाहिए . यही कारण है कि होली के बाद सोहन हलवा का निर्माण बंद हो जाता है.
देशी घी से निर्मित सोहन हलवा मंहगा होता है इसलिए कुछ मिष्ठान्न विक्रेता वनस्पति घी से निर्मित हलवा भी बनाने लगे हैं . ताकि आम आदमी भी सोहन हलवा का आनंद ले सके . जिस तरह से राजस्थान की बाटी देशी घी में सराबोर होती है उसी तरह सोहन हलवा में भी भरपूर मात्रा में देशी घी होता है जो हलवा के रंध्रों में जाकर जमा हो जाता है . कई बार जब आप हलवे के टुकडे को तोडते हैं तो मुंह में भी साबुत घी आ जाता है . आपके मुंह में घी – शक्कर की कहावत भी सोहन हलवा से प्रेरित लगती है .
जिस व्यक्ति का बांदा से ताल्लुक है उसका यहां के सोहन हलवा से जुडाव न हो यह हो ही नहीं सकता . सर्दी ज्यों ज्यों बढती जाती है सोहन हलवा की मांग बढती जाती है . देश के विभिन्न सूबों में रह रहे बांदा व बुंदेलखंड वासियों व उनके रिश्तेदारों की खास डिमांड होती है . सर्दी ने दस्तक दे दी है . इस बार आप भी सोहन हलवा का आनंद लेना न भूलिए .