स्पोर्ट्स ऑफ किंग्स – पोलो

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आज ही के दिन १८७५ में अर्जेंटीना में पोलो के खेल की आधिकारिक शुरुआत हुई थी . इस खेल को ” स्पोर्टस आफ किंग्स ” यानी राजाओं का खेल भी कहा जाता है . हालांकि इस खेल का जन्मदाता ईरान को माना जाता है .

आधुनिक हाॅकी को आप पोलो का नया वर्जन मान सकते हैं . राजाओं एवं ब्रिटिशर्स के जमाने में यह खेल घोडों पर बैठकर लम्बी स्टिक के सहारे विशालकाय मैदानों पर खेला जाता था . घुडसवार खिलाडी प्रतिद्वंदी टीम के गोलपोस्ट में गेंद पहुंचाने की जद्दोजहद करते थे . गेंद लकडी या फिर चमडे से बनाई जाती है . यह रोमांच, दमखम व कौशल से भरपूर है . जिसमें खिलाडी को एक शानदार घुडसवार होना उतना ही जरूरी है .

मैं खुशनसीब हूं कि मुझे उदयपुर राजस्थान में लाइव पोलो मैच देखने का एक मौका मिला था . राजपूताना शानोशौकत , घोडों की टापों से गुंजायमान ग्राउंड , हिनहिनाते घोडे , एक हाथ में लगाम एक हाथ में पोलो स्टिक . गेंद के पीछे सरपट भागते घोडे , घोडों को लगाम देते हुए गेंद पर सटीक निशाना लगाकर उसे गोलपोस्ट तक पहुंचाने की जद्दोजहद वाकई बडा ही हैरतअंगेज होता है यह खेल .

घोडे ५ दशक पूर्व तक हम इंसानों के सबसे बडे साथी थे . आवागमन व युद्धों में घुडसवार सेना का अहम रोल था . महारानी लक्ष्मीबाई और महाराणा प्रताप की जिंदगी के अभिन्न पहलुओं में से भला उनके घोडे को कैसे बिसराया जा सकता है . शायद फुर्सत के पलों में कोई पत्थर को घुडसवार द्वारा कभी किसी लकडी की मदद से हिट किया गया होगा जो बाद में पोलो खेल के जन्म का बायस बना .

पुलिस और सेना में आज भी घुडसवार दस्ता होता है . राष्ट्रपति के लिए अलग से एक सुसज्जित घुडसवार सैन्य दस्ता है जो विशेष समारोहों में राष्ट्रपति के काफिले में सबसे आगे चलता है .

बुंदेलखंड में कोई समारोह हो , शादी विवाह हो या फिर मेला या शोभायात्रा सबसे आगे सजे धजे घोडे को नगडिया की धुन के बीच अश्व नृत्य के लिए घोडे पर हंटर बरसाए जाते हैं. अरे भाई जिसके नंगे पैरों में हंटर बरसेंगे तो घोडा क्या इंसान भी नाचने लगेगा . आटो, ई रिक्शा के दौर में तांगों की अहमियत खत्म सी हो गई है . गनीमत है कि फिल्मों में कभी कभी हीरो हीरोईन से जुडा घोडे को नियंत्रित करने का कोई कारनामा हीरो से करा दिया जाता है . या फिर रेसकोर्स में घुडदौड का आयोजन .

डकैतों का भी जंगलों से लगभग खात्मा हो गया है अन्यथा गब्बर और सांभा घोडे से डकैती डालने पहुंच जाते . अब डकैतियां पडती भी हैं तो घोडों पर नहीं डकैत चमचमाती कारों से डाका डालने जाते हैं.
भले घोडा घोडी अब शादी में दूल्हे की सवारी तक सिमट रहे हों लेकिन आज भी आटोमोबाइल मशीनरी और इंजन की ताकत का आकलन हाॅर्सपावर से ही किया जाता है . और तो और यौनवर्धक दवाओं के निर्माता भी अपने कैप्सूल , गोली में हाॅर्सपावर जैसा दमखम बताना नहीं भूलते .

अब जब राजशाही बची नहीं , घर घरघूलों में सिमट गए . मैदानों का अस्तित्व बचा नहीं तो भला पोलो भी केवल बातों , यादों और किताबों का किस्सा बन जाए तो अफसोस कैसा ?

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