राकेश कुमार अग्रवाल
मोदी सरकार महज तीन कृषि विधेयक लेकर क्या आई देश में भूचाल आ गया . किसान दिल्ली में डेरा जमाकर बैठ गए . किसान तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग कर रहे हैं . ऐसी ही मांग विपक्षी दल भी कर रहे हैं . एक तरफ मोदी सरकार किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर काम कर कही है दूसरी तरफ किसान हैं कि अपनी आमदनी बढाना ही नहीं चाहते . सरकार किसानों के लिए अच्छे दिन लाना चाहती है जबकि किसान चाहते ही नहीं हैं कि उनके अच्छे दिन आएँ . मुझे तो इसमें साजिश की बू आ रही है . न जाने किसको किसानों के अच्छे दिनों से एलर्जी हो रही है .
कृषि प्रधान देश में अच्छे दिनों की शुरुआत मोदी जी किसानों के माध्यम से लाने की मुहिम पर लगे हैं . क्योंकि किसान खुशहाल हो जाएगा तो देश अपने आप खुशहाल हो जाएगा . देश में केवल किसान और मजदूर ही तो बदहाल है . टाटा , बिडला , अम्बानी लोग तो कुबेर का आशीर्वाद लेकर देश में आए हैं . इनके पास मुद्रा में एक अंक के बाद जितने जीरो लगते हैं बाद में लाख करोड भी लिखा जाता है . जबकि पंजाब , हरियाणा , गुजरात के कुछ किसानों को छोड दिया जाए तो पूरे देश में किसानों के पास लाख करोड तो छोडो इतने जीरो लगे तो सिक्के भी नहीं होते . विदर्भ हो या बुंदेलखंड जहां देखो किसान आत्महत्या करने पर उतारू रहता है . हमारे किसान का एक वर्ग भी ढीठ होता जा रहा है जिसे अच्छे दिन से कोई सरोकार नहीं है . ऐसा कहीं होता है ? आप ही बताओ क्या ये सही है कि जान दे देंगे लेकिन अच्छे दिन नहीं देखना चाहेंगे . अरे भाई मरना तो सबको है . अगर अच्छे दिन देखकर मरें तो मरते वक्त कोई मलाल तो नहीं रहेगा कि अपने जीते जी अच्छे दिन नहीं देख पाए . कोविड 19 जैसा घातक वायरस भी जिन किसानों का कुछ नहीं बिगाड पाया अच्छे दिन न आ जायें इस चक्कर में लगभग 90 किसानों ने अपनी जान से हाथ धो डाले .
कोरोना ने पूरे देश दुनिया को हिला डाला है . सेंसेक्स छोडकर सब कुछ ग्रोथ उल्टी दिशा में भाग रही है . ऐसे संकट काल में भी सरकार को किसानों की सुध आई और उनकी इनकम दुगनी करने के लिए तीन विधेयक लेकर आई . किसान भरे पेट होते . अफरे होते तब भी बात समझ में आती . सूखा राहत की 9 और 27 रुपए की चैक हासिल करने के लिए तो बुंदेलखंड का किसान कई कई दिन लेखपाल , तहसील के चक्कर काटता रहा . फिर बैंक में घंटों लाईन में लगा रहा . ये तो वैसी बात हो रही कि बच्चे का पेट भरा हुआ है और मां जबरन मुंह में बोतल लगाए हुए है .
हमाए देश में उद्योगपतियों के अच्छे दिन हमेशा रहे हैं . उनके अगर अच्छे दिन न भी हों तो वे चांदी की चम्मच से सरकार को चटनी चटाकर जब चाहे मनचाहे अच्छे दिन ले आते हैं .
किसान – किसान , अन्नदाता – अन्नदाता चिल्ला चिल्लाकर नेता जी के सत्ता पर सवार होते ही अच्छे दिन आ जाते हैं . पांच दस साल बाद कुर्सी भले छिन जाए लेकिन इनके बुरे दिन फिर कभी नहीं आते . चाहे सीबीआई जांच भले न हो जाए . जब प्रधान बनते ही अच्छे दिन की आहट नजर आ जाती है तो फिर देश प्रदेश का भार संभालने वालों को अच्छे दिन से भला कौन रोक सकता है . कुछ नहीं तो भूसा चारा खाकर भी अच्छे दिन लाए जा सकते हैं . दूध बेचकर भी अच्छे दिन आ जाते हैं . गमले में गोभी उगाकर भी अच्छे दिन लाए जा सकते हैं . जब भाई अन्नदाता के ढोर बछेरू चारा खा सकते हैं तो हमें चारा खाने में क्या हर्जा . अधिकारियों और कर्मचारियों के तो हमेशा से ही अच्छे दिन रहे हैं. सरकारी नौकरी मिलने का मतलब ही होता है कि हन्ड्रेड परसेंट अच्छे दिनों की गारंटी . काम न करो तो कोई कुछ बिगाडने वाला नहीं . काम करो तो मेहनताना काम कराने वाली पार्टी देती ही है क्योंकि ये तो जमाने का दस्तूर बन गया है .
व्यापारियों के अच्छे दिन बर हमेश बने रहते हैं . कुछ व्यापारियों को जरूर रोने की आदत बन गई है . जो अच्छे दिनों में होते हुए भी ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे बुरे दिनों का बोझा इनके सिर पर हो . घटतौली , मिलावट जैसे मारक हथियार भी अच्छे दिन लाने में इनकी मदद करते हैं . लाॅकडाउन में जरूर कुछ महीने बुरे बीते लेकिन इसके बाद से तो सब मंगल मंगल चल रहा है .
हमारा विरोध तो उन किसान नेताओं से है जो कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं . पहले तो आरोप लगाया जाता है कि सरकारें किसी की सुनती नहीं हैं लेकिन जब सरकार सुन रही है तो विरोध करने पर उतारू हो गए हैं . क्या जरूरी है कि किसान खाद , पानी , बिजली सभी चीजों में सब्सिडी के रूप में सरकारी खैरात लें . जब आपकी आमदनी दुगनी हो जाएगी तो हो सकता है कि आपको सब्सिडी की भी जरूरत न पडे . आप भी अच्छे दिनों की आहट को महसूस करिए . जब टाटा , बिडला , अम्बानी को पैसा बुरा नहीं लगते तो किसान भाईयो आप आमदनी दुगनी कराने से क्यों गुरेज कर रहे हो ?
हम तो अच्छे दिन लाना चाहते हैं
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