21 जून को फादर्स डे पर विशेष रिपोर्ट

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पापा तुसी ग्रेट हो – अंजुम अंसारी

एक ऐसा पिता जिसने दिव्यांग बेटी का जीवन संवारने के लिए अपने जीवन के 22 साल खपाकर उसे पैरों पर कर दिया खड़ा

राकेश कुमार अग्रवाल

कुलपहाड (महोबा)। पिता अपनी संतान के लिए क्या कर सकता है यदि इसकी गहराई और इंतेहा जानना हो तो मिलिए कुलपहाड के अब्दुल रहमान से। जिसने अपनी दिव्यांग बेटी को उसके पैरों पर खडा करने के लिए अपनी जवानी के एक दो बरस नहीं बल्कि पूरे २२ बरस खपा दिए। पिता की मेहनत आखिरकार तब रंग लाई जब उसने बेटी को सरकारी शिक्षिका बनवा दिया।

पिता- अब्दुल रहमान

तीन बेटियों के पिता अब्दुल रहमान की सबसे छोटी बेटी जब महज ३ साल की थी तभी पोलियो के कारण उसके दाँये पैर ने काम करना बंद कर दिया। इसके चंद महीनों बाद दिव्यांग बेटी अंजुम की मां शबीना बानो चल बसीं। रहमान के पास दूसरी शादी के लिए तमाम रिश्ते आए लेकिन रहमान ने पुनर्विवाह करने के बजाए बेटियों की परवरिश का बीडा खुद उठाया। समस्या थी चार साल की दिव्यांग बेटी की। अनपढ रहमान ने बेटी को पढाने का फैसला किया। बेटी अंजुम की शिक्षा में रहमान ने वही प्रयास किया जो भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाने का किया था। अंजुम की प्राथमिक शिक्षा संत बिनोबा प्राइमरी स्कूल में हुई। लोहियानगर के टिलवापुरा के रहने वाले रहमान के घर से संत बिनोबा स्कूल आधा किलोमीटर से अधिक की दूरी पर था। पांच – छह वर्ष की बेटी इतनी दूर स्कूल कैसे जाए यह एक बडी समस्या थी। पिता रहमान ने बेटी की खातिर साईकिल खरीदी और रोजाना उसको साइकिल पर बिठाकर स्कूल लेकर जाते। स्कूल के समय तक स्कूल के बाहर बैठते .छुट्टी होने के बाद बेटी को साईकिल पर बिठाकर वापस घर लेकर आते।

रहमान ने बेटी को पढाने के लिए प्राइमरी के बाद जूनियर हाईस्कूल , हाईस्कूल व इंटरमीडिएट की शिक्षा अपने साथ साईकिल पर बैठाकर नगर के जनतंत्र इंटर कालेज लाने- ले जाने में बदस्तूर निभाई . अंजुम ने हाईस्कूल में ७१% , इंटरमीडिएट में ७२% अंकों के साथ उत्तीर्ण की। कालेज के बाद बेटी को वह साईकिल से कोचिंग भी लेकर जाते और वापस लेकर आते। इस दौरान अंजुम की जिंदगी में दो बडे बदलाव ये हुए कि जब वह दस साल की हुई तो उसके पिता ने उसे घिसट कर चलने के बजाए उसे बैसाखियाँ थमा दीं ताकि वह थोडा बहुत खुद चल सके। दूसरा बदलाव था खाना पकाना। क्योंकि दोनों बडी बेटियों शबाना व फरजाना की रहमान ने शादी कर दी थी। ऐसे में खाना बनाना व घर की सार संभाल भी रहमान के कंधों पर आ गई थी। ऐसे में रोटी बेलना, दाल , सब्जी बनाना जैसी सभी किचिन की सारी ट्रेनिंग रहमान ने बेटी को दी। इंटर के बाद अंजुम बीएससी करना चाहती थी। जैसे तैसे रहमान ने कुलपहाड से ४० किमी. दूर हमीरपुर जिले के राठ कस्बे के ब्रह्मानंद महाविद्यालय में बेटी का एडमीशन करवा दिया। समस्या यह थी कि वह रोजाना राठ अकेली कैसे जाए। रहमान ने खेती को बलकट पर छोड कर बेटी को रोजाना राठ ले जाने का फैसला किया. सुबह ४ बजे उठकर बेटी खाना तैयार करती। अपना व पिता का टिफिन लगाती। पिता साईकिल पर बिठाकर बेटी को बस स्टेंड लाता। वहां साईकिल रखकर बस पर बिठाकर रोजाना राठ लेकर जाता। दिन भर कालेज में बैठता। छुट्टी होने पर बेटी को वापस बस से कुलपहाड लेकर आता। पिता फिर साईकिल से बेटी को घर ले जाता। २०१२ में अंजुम की बीएससी की पढाई पूरी होते ही अंजुम का चयन डायट चरखारी में बीटीसी प्रशिक्षण के लिए हो गया। २०१५ में ७५% अंकों के साथ अंजुम का बीटीसी प्रशिक्षण पूरा हुआ. २०१३ की टीईटी परीक्षा अंजुम ने पास कर ली। आखिरकार ४ मई २०१८ को वो दिन आया जब सहायक अध्यापक के तौर पर कुलपहाड में उसको गणित शिक्षक के रूप में तैनाती दे दी गई।

महज पांच बीघा खेती वाले रहमान ने एक वक्त भोजन कर बेटी को सफलता के शिखर तक पहुंचाने में जो साधना की उसे तो एक दिन रंग लाना ही था. बेटी की नियुक्ति के बाद भी उसके पिता रहमान का संघर्ष जारी रहा। पहले बेटी को स्टूडेंट के रूप में साईकिल पर बिठाकर स्कूल ले जाने वाले पिता रहमान इसके बाद बेटी को शिक्षिका के तौर पर साईकिल पर बिठाकर स्कूल लेकर जाते व वापसी में स्कूल से लेकर आते।

रहमान को हाल ही में कुछ समय पूर्व अपनी २२ साल पुरानी जिम्मेदारी से मुक्ति मिली जब अंजुम ने अपने लिए चार पहिए का स्कूटर खरीदा। आजकल अंजुम रोजाना स्कूटर से फर्राटा भरती है।

फादर्स डे पर अपने पिता के लिए कुछ कहने के लिए अंजुम से कहा तो वह रुंधे गले और डबडबाई आँखों से केवल इतना ही बोल पाई कि ” पापा तुसी ग्रेट हो !!!” उसके अनुसार मेरे पिता ने मुझे इस मुकाम तक लाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर दी।
किताबें पढने व गाना सुनने की शौकीन बेटी अंजुम से आज तक पिता ने उसके वेतन से कुछ नहीं लिया। उसका पूरा वेतन उसके खाते में बैंक में जमा होता है. स्कूटी आने के बाद फूली नहीं समा रही अंजुम कहती है कि अब वह किसी पर डिपेंड नहीं है।

अंजुम अपने पैरों पर खडी होकर भले जीवन संघर्ष का पहला पडाव पार कर गई हो लेकिन रहमान का संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। अब वह बेटी के रिश्ते के लिए प्राणपण से जुटे हुए हैं। कि जल्दी से बेटी का निकाह भी कर दूं। निकाह के बाद जब आप ससुराल चली जाओगी तब पापा का क्या होगा ? वो तो अकेले रह जाएँगे ? के सवाल के जबाब में नम आँखों से अंजुम कहती है कि” मैं अकेले नहीं जाऊँगी , पापा को साथ लेकर जाऊँगी।”

रहमान – अंजुम का रिश्ता बताता है कि एक पिता अपनी बेटी का जब संबल बनता है तो बेटी भी दिव्यांग होने के वावजूद परी बनकर आसमान में उडती है।

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