चित्रकूट के जंगलों में धूनी रमाकर नागा साधु भी कर रहे हैं लॉकडाउन का पालन
चित्रकूट। अनादि काल से साधु-संतों द्वारा की जा रही 84 कोसी परिक्रमा के दौरान लाॅकडाउन के कारण काफी संख्या में देश के विभिन्न अंचलों से विभिन्न संप्रदायों के संतों और नागा साधुओं के साथ गृहस्थों का जत्था चित्रकूट के जंगल में अलग-अलग आश्रमों में रुका हुआ है।
24 तिथियों की पैदल यात्रा के साथ 252 किलोमीटर यानी चौरासी कोस चलकर यह संत आस्था और साधना पर आधारित इस परिक्रमा को पूर्ण करते हैं। 24 मार्च को यह परिक्रमा चित्रकूट में आकर पूर्ण तो हो गई, लेकिन 24 मार्च की रात्रि को वैश्विक महामारी कोरोना की दस्तक से हुए लॉक डाउन की घोषणा ने संतों की वापसी यात्रा को विराम दे दिया। कुछ जो नजदीक के स्थानों के थे, वह लॉक डाउन की सूचना पाते ही अपने गंतव्य को प्रस्थान हो गए। लेकिन जो दूरदराज के राज्यों से आए थे, उनमें से जो जहां था, वहीं रुक गया। बताते हैं इस यात्रा के संयम-नियम बहुत कठिन होते हैं।
ऐंसी गर्मी में भी नागा साधु धूनी रमाकर कई घंटों तक प्रभु भक्ति में लीन रहते हैं। मस्तक पर आड़ा भभूत लगा तीनधारी तिलक लगाकर, धूनी रमाकर, नग्न रहकर और जंगलों में तप करने वाले नागा साधुओं का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में भी मिलता है। नागा जीवन की विलक्षण परंपरा में दीक्षित होने के लिए वैराग्य भाव का होना जरूरी है। संसार की मोह माया से मुक्त कठोर दिल वाला व्यक्ति ही नागा साधु बन सकता है।
लाॅक डाउन की वजह से चित्रकूटधाम में फंसे इन नागा साधुओं ने अब जंगलों में ही धूनी रमा ली है।
भारत पर जब भी कोई आपदा, संकट या संघर्ष नजर आया, तब यहां के साधु सन्यासी राष्ट्र हित मे अपनी परंपराओं को तोड़ कर आगे आये। आज जब कोरोना का भी संकट देश के सामने है, देश उससे जूझ रहा है। तो एक बार फिर से साधु- संत इस युद्ध में सरकार और समाज के साथ खड़े नजर आ रहे हैं और इस महायुद्ध में उनका पूरा सहयोग मिल रहा है।
देश में कोरोना के संक्रमण को देखते हुए 3 मई तक लॉक डाउन के दूसरे चरण का ऐलान हो चुका है। कोरोना की चेन को तोड़ने के लिए पूरे देश को स्थिर कर दिया गया है। लाखों लोग ऐसे भी हैं जो इस मुश्किल घड़ी में अपने-अपने घरों से सैकड़ों मील दूर रहने को मजबूर हैं। देश के हजारों लाखों सन्यासियों के सामने भी कोरोना के चलते एक बड़ा संकट खड़ा हो गया है । दरअसल बिना किसी आश्रय के रमते जोगी की तरह जीवन जीने वाले संन्यासियों को भी स्थिर होना पड़ा है।
ऋषि परंपरा अनुसार ये लोग किसी एक स्थान पर स्थिर नही रह सकते, ये लोग अपना दैनिक भोजन भी रमते हुए ही भक्तो के पास से जुटाते हैं। आज भोजन मिले तो कल की चिंता नही। वो संन्यासी भी कोरोना संकट में देश की जरूरत को समझकर जंगलों में कंदराओं में और गुफाओं में रम गए है। ये लोग लाॅक डाउन के कारण स्वयं बस्ती में जाकर भोजन नहीं जुटा सकते ,इसलिए जंगल मे जो कुछ मिलता है उस पर ही आश्रित हैं। लेकिन इस सबके बावजूद इन संन्यासियों ने न किसी से भोजन की मांग की और ना ही कभी सरकार पर आरोप लगाए । ये लोग जंगलों और कंदराओं में रहकर आध्यात्म की अलख जगा रहे हैं लेकिन जैसे जैसे इन सन्यासियों का पता चल रहा है, स्वयंसेवी संस्थाएं जंगलों में जाकर उन तक भोजन पहुंचा रही हैं।
चित्रकूट के जंगलों में और दुर्गम पहाड़ों में इस वक्त ऐसे ही कई साधु संन्यासियों ने डेरा डाल रखा है। इन साधु संन्यासियों के बारे में जैसे ही दीनदयाल शोध संस्थान को पता चला तो संस्थान के संगठन सचिव श्री अभय महाजन अपने कार्यकर्ताओं को साथ लेकर समाज के सहयोग से इन साधु संतों को राशन उपलब्ध करवा रहे हैं। कार्यकर्ताओं ने शुरू में दो-तीन दिन पूरी तरह लॉक डाउन का पालन किया, फिर स्थानीय प्रशासन से अनुमति लेकर संतों की सेवा में जुट गए। इस काम के लिए दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं को कई बार तो कई किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। यहां तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है लेकिन घने जंगलों, दुर्गम पहाड़ों और ऊंचे-नीचे चट्टानी रास्तों को पार कर अभय महाजन और उनकी टीम इन संन्यासियों तक राशन एवं फलाहार का सामान लेकर पहुंच रही हैं। दीनदयाल शोध संस्थान की तरफ से जिन आश्रमों में भोजन सामग्री पहुंचायी गयी उनमें टाठी घाट आश्रम, कोटि तीर्थ, बंदरचूही, पम्पापुर और प्राचीन बांके सिद्ध आश्रम, ब्रह्मकुंड प्रमुख रूप से है।
साधु-संतों ने दिया कोरोना से जीत का आशीर्वाद
दीनदयाल शोध संस्थान के कार्यकर्ता जब राहत सामग्री लेकर जब इन ऋषियों के पास पहुंचे तो उन्होंने कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जीत का आशीर्वाद दिया। वहीं दूसरी तरफ दुर्गम पहाड़ों को पारकर संन्यासियों की सेवा में पहुंचे कार्यकर्ताओं को जब घने जंगलों के बीच अपनी मंजिल मिली और कोरोना के खिलाफ युद्ध में संतों से आशीर्वाद मिला तो उनके चेहरे पर थकान की जगह परम संतोष और असीम आनंद का भाव था।