गौरव अवस्थी
वरिष्ठ पत्रकार
अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस मामले में 28 वर्षों बाद फैसला जो भी आया. आया तो सही. यह वही मामला है जिस पर कभी पूरा देश उबला था. दशकों पुराना अयोध्या की राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक का फैसला तो सर्वोच्च अदालत ने पिछले वर्ष 9 नवंबर 2019 को दे दिया. पूरे देश में उस फैसले को कुबूल भी किया.
विवादित ढांचा विध्वंस मामले के आपराधिक केस की. 49 f.i.r. हुई थी. कुछ धाराएं सत्र न्यायालय के अधिकार के क्षेत्र की थी और कुछ मजिस्ट्रेट स्तर पर सुनवाई के योग्य. हाईकोर्ट ने सेशन और मजिस्ट्रेट कोर्ट में सुने जाने वाली धाराओं में दर्ज मुकदमे को अलग-अलग कर दिया और दो विशेष अदालतें गठित हुई एक लखनऊ में और एक रायबरेली में.
रायबरेली में जब विवादित ढांचा विध्वंस मामले में धार्मिक उन्माद भड़काने सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने आदि के आरोपों की सुनवाई के लिए 18 साल पहले वर्ष 2002 में सीबीआई की विशेष अदालत गठित हुई थी, तब दुनिया भर में कभी चर्चित रही रायबरेली “गुमनामी” के अंधेरे में थी. इस चर्चित केस के बहाने रायबरेली एक बार फिर देश दुनिया में चर्चा पाने लगी. हमारे लिए यह सौभाग्य की ही बात थी कि जब तक रायबरेली की विशेष अदालत में यह सुनवाई चली तब तक इसे कवर करने का दायित्व निभाता रहा. इस केस के कवरेज के लिए हमें और हमारे साथियों को वैसी ही तैयारी करनी पड़ती थी, जैसी बहस के लिए बचाव और अभियोजन पक्ष के वकील कर रहे थे या विशेष मजिस्ट्रेट सुनवाई के लिए अपने को तैयार करते होंगे. कोर्ट के बाहर की हलचलें बताती थी कि रायबरेली फिर खास ओहदे पर है. सीबीआई के विशेष वकीलों और आरोपियों के वकीलों की गर्मागर्म बहस हम लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय होती थी. गठन के साल भर बाद वह दिन भी आया (19 सितंबर 2003 ) जब कोर्ट ने सभी आठ आरोपियों- लालकृष्ण आडवाणी (तत्कालीन उप प्रधानमंत्री), मुरली मनोहर जोशी (तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री), विष्णु हरि डालमिया (विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष), अशोक सिंघल (विहिप के राष्ट्रीय प्रमुख), आचार्य गिरिराज किशोर साध्वी उमा भारती साध्वी रितंभरा और भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार- पर अपना फैसला सुनाया था.
सीबीआई के विशेष अदालत के विशेष मजिस्ट्रेट विनोद कुमार सिंह ने संदेह के आधार पर पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को डिस्चार्ज कर दिया था और मुरली मनोहर जोशी समेत सभी सात आरोपियों पर आरोप तय करने के आदेश पारित किए थे. विशेष अदालत के इस फैसले पर मुरली मनोहर जोशी को मंत्री पद से इस्तीफा भी देना पड़ गया था, उसी वक्त तत्काल. आरोप तय करने के स्तर की सुनवाई पर विशेष अदालत के विशेष मजिस्ट्रेट विनोद कुमार सिंह ने तब 130 पृष्ठों में अपना फैसला दर्ज किया था.निचली अदालतों के इतिहास में चार्ज फ्रेम करने पर 130 पृष्ठों का यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक था और सबसे बड़ा भी. आडवाणी जोशी समेत भाजपा विश्व हिंदू परिषद के बड़े नेताओं पर दिए गए इस फैसले की एक फोटो प्रति हमारे लिए आज भी एक बहुत बड़ी “थाती” है. हमारा यह भी सौभाग्य था कि भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं पर भड़काऊ भाषण देने धार्मिक उन्माद फैलाने आदि के आरोपों का मुकदमा चले या न चले इसका फैसला देने वाले विशेष मजिस्ट्रेट आदरणीय विनोद कुमार सिंह से रिपोर्टिंग के दौरान स्थापित हुआ “व्यवहार” अभी तक चला आ रहा है. हम ऐसे न्यायिक अधिकारी श्री वीके सिंह की सरलता और सहजता के आज भी कायल हैं और कल भी रहेंगे.
हम उस दिन के गवाह रहे हैं जब विशेष अदालत के बाहर दीवानी कचहरी परिसर देशी-विदेशी मीडिया से खचाखच भरा था. पल-पल की खबरें टीवी चैनलों और अखबारों के संपादकों तक भेजने की होड़ थी. फैसले को सुनने की जिज्ञासा पूरे देश में बनी हुई थी और निगाहे रायबरेली की ओर थी. बिल्कुल वैसी ही निगाहेंं जैसी पहले कभी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री तो कार्यकाल में रायबरेली की ओर पूरी देश दुनिया की लगी रहती थी. हमें यह भी याद है कि एक टीवी चैनल के लखनऊ से आए पत्रकार ने कैसे जल्दबाजी में या कहे सबसे आगे रहने की होड़ में आडवाणी को भी आरोपित करने की खबर चलवा दी थी. गलती पकड़े जाने पर वह खबर चैनल से डिलीट हुई थी.
अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस मामले की सुनवाई से रायबरेली के चर्चा में आने के दिन जो बहुरे वह फिर बहुरते ही गए. वर्ष 2003 में यह मामला गर्म था और 2004 में कांग्रेश की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा रायबरेली को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में “अपना” लेने का निर्णय. इसके बाद रायबरेली फिर अपने पुरानेे स्वरूप को प्राप्त कर गई. आजकल भले ही रायबरेली की चर्चा कम हो गई हो लेकिन राजनीति के दूसरे केंद्र के रूप में रायबरेली इसलिए स्थापित तो है ही कि यहां की सांसद सोनिया गांधी अभी भी है. एक आशा और विश्वास लोगों में बना हुआ है जगा हुआ है. आज नहीं तो कल अच्छे दिन आएंगे जरूर. मेरा अपना अनुभव है कि चर्चा के केंद्र में रहने वाले ऐसे “पावर” सेंटरों पर काम करने से वास्तव में समझ बढ़ती है और उठने-बैठने और बात करने का सलीका भी सीखने को मिलता है. ऐसा सुअवसर वर्ष 1996 से लेकर अब तक प्रदान करने के लिए हम हिंदुस्तान के अपने सभी विद्वान संपादकों एवं अन्य अधिकारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं.
आज जब विवादित ढांचा विध्वंस मामले में लखनऊ की विशेष अदालत का 28 वर्षों बाद फैसला आया है तो हमें रायबरेली की विशेष अदालत में चली सुनवाई की कार्रवाई की याद बरबस ही आ गई. याद इसलिए भी आई क्योंकि दुनिया भर में चर्चित विवादित ढांचा विध्वंस मामले के इतिहास के एक छोटे से गवाह हम भी हैं. ऐसा सौभाग्य कम ही पत्रकारों को प्राप्त होता है कि वह दुनिया में चर्चित किसी भी प्रकरण का हिस्सा या गवाह बन सके।