छात्रों की बढ़ती आत्महत्या चिंता का विषय

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पढाई का बोझ या अभिभावकों की अपेक्षाओं का दबाब


राकेश कुमार अग्रवाल
कोचिंग हब कोटा में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों में से बीते नौ वर्षों में 104 छात्रों ने आत्महत्या कर ली . खुदकुशी करने वाले छात्रों में 31 छात्रायें शामिल हैं .
म.प्र. के नीमच के आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड द्वारा मांगी गई जानकारी पर कोटा पुलिस ने उक्त आँकडे उपलब्ध कराए . 104 छात्रों की ये मौतें 2011 से 2019 के दौरान हुईं . मृतकों में राजस्थान , बिहार , यूपी , एम पी , असम , हिमाचल , हरियाणा , केरल , महाराष्ट्र , पंजाब , झारखण्ड , जम्मू कश्मीर , गुजरात , छत्तीसगढ , तमिलनाडु व उत्तराखण्ड राज्यों के छात्र भी शामिल हैं .
देश में छात्रों द्वारा की जा रही खुदकुशी का यह आँकडा बडा डरावना है . एनसीआरबी ( राष्ट्रीय अपराध अन्वेषण ब्यूरो ) द्वारा जारी आंकडों के अनुसार देश में हर एक घंटे में एक छात्र आत्महत्या कर रहा है . देश में प्रतिदिन 28 छात्र मौत को गले लगा रहे हैं . आत्महत्या करने वाले इन स्टूडेंट्स की आयु की बात करें तो 15 वर्ष से लेकर 29 वर्ष सभी आयु वर्ग के छात्र मौत को सबसे आसान रास्ता समझ लेते हैं . वर्ष 2019 में देश में 139123 लोगों ने आत्महत्या कर जीवनलीला समाप्त कर ली .
परीक्षा परिणाम आशानुरूप न आना छात्रों में आत्महत्या का बडा कारण माना जाता है. तेलंगाना और मध्य प्रदेश के आँकडे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं जब बोर्ड परीक्षा परिणाम आने के बाद तेलंगाना में 19 व मध्यप्रदेश में 12 छात्रों ने खुदकुशी कर ली थी . और तो और अध्ययनरत छात्र भी कई बार आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं . देश के दस प्रमुख आईआईटी में पढ रहे छात्रों में से 27 छात्रों ने वर्ष 2014 से 2019 के बीच में खुदकुशी कर ली .
सच बात तो यह है कि हर किसी के जीवन में ऐसे दर्जनों मौके आते हैं जब उसे अच्छी कोशिशों के बावजूद असफलताओं का सामना करना पडता है . लेकिन क्या एक असफलता को हम अभिशाप मानकर मौत को गले लगा लें ? दरअसल सच यह है कि छात्र – छात्राओं पर उनके अभिभावकों द्वारा अपेक्षाओं का पहाड लाद दिया गया है . और यह पहाड नंबरों की होड से लेकर कैरियर बनाने तक लगातार लदा रहता है . जो सपने बच्चों के माता पिता पूरे नहीं कर पाए उन सपनों को पूरा करने का दबाब भी अभिभावकों ने बच्चों पर थोप दिया है . बिना यह जाने समझे कि बच्चे की रुचि क्या है ? उसकी अपनी चाहत क्या है ? बच्चे की क्षमता क्या और कितनी है ? इन सब सवालों के जबाब जाने बिना बच्चे के भविष्य का एकतरफा फैसला अभिभावक उन पर थोप देते हैं . बच्चा माता पिता से उनके लिए गए निर्णय पर तर्क वितर्क भी नहीं कर पाता क्योंकि संस्कार रूपी चाबुक भी उनका इंतजार कर रहा होता है .
सबसे बडी विडम्बना का विषय है कि 12 वीं के बाद छात्र क्या करे इसका चुनाव . विज्ञान वर्ग ने डाॅक्टर और इंजीनियर बनाने का सपना इस कदर बेचा कि देश के सभी बच्चों के माता पिता उन्हें डाक्टर, इंजीनियर बनाने की होड में शामिल हो गए . क्योंकि डाक्टर , इंजीनियर बनाने की दर्जनों दुकानें राजस्थान के कोटा में खुली हुई हैं . कहते हैं कि जो दिखता है वो बिकता है . जेईई और नीट का रिजल्ट आने के बाद फुल फुल पेज में आल एडीसन टाॅपर छात्रों की फोटो छपे विज्ञापनों ने कोचिंग संस्थानों की चांदी काट दी . देखते ही देखते पूरे देश से छात्र डाक्टर – इंजीनियर बनने का सपना लेकर कोटा पहुंचने लगा . इस होड में वे छात्र भी कोटा पहुंचे जिनकी तैयारी उस स्तर की नहीं है जिसकी दरकार इन आल इंडिया लेवल की परीक्षाओं में होती है . माता पिता अपने जीवन की गाढी कमाई की बचत अपने बच्चों पर लुटा देते हैं . बच्चे को जब तक अपनी पढाई और तैयारी का स्तर समझ में आता है . तब तक कदम वापस खींचने में बहुत देर हो चुकी होती है .
बच्चों को यह कोई बात बताने वाला नहीं है कि सभी विषयों का स्कोप है . बस जरूरत है आपके अपने रुचि वाले विषय को चुनने एवं उसमें पारंगत होने की क्योंकि प्रतिस्पर्धा गलाकाट है . आप उसी विषय में बहुत आगे जा सकते हैं जिसमें आपकी अपनी रुचि है . जिसमें आपको मजा आता है . आर्ट्स , कामर्स के विषयों में भी उतनी ही संभावनायें हैं जितनी साईंस में हैं .
चौंकानी वाली बात यह है कि मीडिया की सुर्खियां बनने , तमाम हायतौबा होने के बावजूद देश में आत्महत्याओं के मामले हर साल बढ रहे हैं .
बीते 25 वर्षों में ( एक जनवरी 1995 से लेकर 31 दिसम्बर 2019 के दरम्यान ) देश में 1 लाख 70 हजार से अधिक छात्र आत्महत्या कर चुके हैं . वर्ष 1995- 1999 में 27359 छात्रों ने , 2000 से 2004 के मध्य 27880 स्टूडेंटस ने , वर्ष 2005 से 2009 के बीच 30064 छात्रों ने , वर्ष 2010-2014 के मध्य 38220 छात्रों ने , एवं 2015 से 2019 के बीच 48537 छात्रों ने असमय मौत को गले लगा लिया .
बच्चों को मौत के मुंह में धकेलने के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है . बेहतर यही होगा कि अभिभावक अपनी भूमिका महज प्रवेश कराने , फीस जमा कराने तक सीमित न करें . दूसरों की देखा देखी या होड में बच्चे से अनावश्यक उम्मीदें न पालें बल्कि उसे नए दौर के हिसाब से तैयार करें . किसी प्रतिभा के असमय चले जाने से केवल एक परिवार की नहीं बल्कि राष्ट्र की भी बडी क्षति होती है .

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