म.प्र . उपचुनाव – सिंधिया का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे उपचुनाव

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सिंधिया का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे उपचुनाव


राकेश कुमार अग्रवाल
ज्यों ज्यों मध्यप्रदेश में उपचुनावों का वक्त नजदीक आता जा रहा है त्यों त्यों राजनीतिक दावपेंच उतने ही तीखे और जहरीले होते जा रहे हैं . लगता है सिंधिया द्वारा दिए गए दगा को कांग्रेस ने दिल पर ले लिया है . जिससे अब यह उपचुनाव कांग्रेस बनाम सिंधिया या यूं कहिए कि कमलनाथ बनाम सिंधिया हो गया है . भाजपा की भूमिका महाभारत के कृष्ण की तरह होती जा रही है जो पूरे घटनाक्रम को अपने सामने घटता देख रही है .
कांग्रेस ने सिंधिया से बदला भांजने के लिए चुनावों के अंतिम दौर में अपना ब्रह्मास्त्र फेका है . ज्योतिरादित्य सिंधिया के द्वारा किए गए छल को कांग्रेस सिंधिया राजवंश को उस ऐतिहासिक घटनाक्रम से जोड रही है जिसमें सिंधिया राजवंश ने 1857 की क्रांति में रानी लक्ष्मीबाई का साथ नहीं दिया था . ऐतिहासिक उपन्यासों के वाल्टर स्काट कहे जाने वाले उपन्यासकार वृंदावन लाल ने अपने मशहूर उपन्यास झांसी की रानी लक्ष्मीबाई में इसका विस्तार से वर्णन किया है कि किस तरह सिंधिया राजवंश के महंत जीवाजीराव ब्रितानी हुकूमत के गवर्नर लार्ड डलहौजी से मिल गए थे और उनका यह कदम रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु का कारण बना . वृंदावनलाल वर्मा के इस उपन्यास की कांग्रेस 1100 प्रतियां सिंधिया के प्रभाव वाले क्षेत्र में बुद्धिजीवियों को वितरित कराने जा रही है . ताकि लोगों तक यह संदेश प्रचारित किया जा सके कि धोखा देना सिंधिया राजवंश के खून में है . और यह राजवंश भरोसे के लायक नहीं है .
यह उपचुनाव दरअसल म.प्र. में जितना सत्ता के असली दावेदार के चुनाव का है उससे कहीं ज्यादा म.प्र. में ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक भविष्य का फैसला करने वाला होने जा रहा है . जो सिंधिया के कद , पद व भाजपा में उनके भविष्य का भी निर्धारण करेगा .
सिंधिया का मध्यप्रदेश की राजनीति में असर है यह तो उनके पक्ष में इस्तीफा देने वाले दो दर्जन विधायक साबित कर चुके हैं . किसी नेता के पक्ष में अपनी विधायकी या अपना निर्वाचन दांव पर लगाना एक बडा कदम होता है क्योंकि इन विधायकों ने न केवल मूल कांग्रेस पार्टी का विश्वास खोया है बल्कि मतदाता इन्हें दोबारा चुनकर विधानसभा में भेजेंगे या नहीं यह भी चुनाव परिणाम तय करेंगे . ऐसे में अपने नेता के लिए अपना राजनैतिक कैरियर दांव पर लगाना उसी राजसी दौर की याद दिलाता है जब अपने राजा के लिए उनके अनुयायी किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे .
वापस सत्ता पाने के लिए कांग्रेस के लिए सभी 28 सीटों पर विजयश्री हासिल करना सहज नहीं है . जरूरी नहीं है जिस उपन्यास को कांग्रेस बुद्धिजीवियों के बीच में वितरित कराने जा रही वह कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो . कांग्रेस का यह दांव उसके लिए उल्टा भी पड सकता है . क्योंकि ग्वालियर – चंबल संभाग में सिंधिया की छवि आज भी महाराज जैसी है एवं उनके विरोध में बुद्धिजीवी इतने कम समय में विरोध की कोई बडी लहर पैदा कर देंगे ऐसे आसार न के बराबर हैं .
बुंदेलखंड में ऐसा ही उल्टा दांव एक बार पड चुका है जब हमीरपुर की मौदहा विधानसभा से चुनाव लड रहे पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रभान गुप्ता रानी का डोला कौन ले जाएगा के शिगूफे पर रानी राजेन्द्र कुमारी से चुनाव हार बैठे थे . चुनावों में आज भी ग्वालियर , चम्बल और बुंदेलखंड क्षेत्र में भावनात्मक मुद्दे प्रत्याशी और दूसरों मुद्दों पर भारी पड जाते हैं . जहां तक कांग्रेस और कमलनाथ का सवाल है उनकी इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उन्होंने उपचुनावों में भाजपा और सिंधिया को वाॅकओवर देने के बजाए अंतिम समय तक संघर्ष का माद्दा दिखाया है. सभी 28 या कम से कम 21 सीटें जीतना कांग्रेस के लिए असंभव न सही तो दूर की कौडी जरूर है . क्योंकि अब कांग्रेस सत्ता में भी नहीं है . डेढ वर्ष का उसका कार्यकाल ऐसा भी नहीं था कि उस कार्यकाल के कशीदे पढकर कांग्रेस उपचुनावों में सूपडा साफ कर एकतरफा विजय श्री हासिल कर ले .
74 वर्षीय कमलनाथ के लिए भी यह चुनाव उनकी राजनीति का एक तरह से अंतिम दौर साबित हो सकता है . क्योंकि म.प्र. विधानसभा और लोकसभा दोनों में कार्यकाल के लिए अभी लम्बा वक्त है . इसलिए कमलनाथ के लिए यह चुनाव अबकी बार अंतिम बार की तरह है . गनीमत यह है कि कांग्रेस में 75 वर्ष की उम्र वाला फार्मूला लागू नहीं है . फिर भी चाहे मध्यप्रदेश की बात करें या फिर राजस्थान में ज्योतिरादित्य सिंधिया या फिर सचिन पायलट ने जो बगावत का झंडा कमलनाथ और अशोक गहलोत के खिलाफ बुलंद किया था उसका मकसद भी नई पीढी को मौका देने की मांग करना था . लेकिन नेतृत्व ने युवा जोश की जगह वरिष्ठता और अनुभव को वरीयता दी थी . जिसका खामियाजा आज कांग्रेस को भुगतना पड रहा है . यहां न केवल कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पडा बल्कि पार्टी को फूट और टूट दोनों से सामना करना पड रहा है .
यदि इन चुनावों में ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा के पक्ष में बीस या उससे अधिक सीटें दिलवाने में सफल हो गए तो उनकी बल्ले बल्ले हो जाएगी . वे पार्टी में ज्यादा मोलभाव करने की स्थिति में आ जाएंगे . साथ ही मध्यप्रदेश में भाजपा का नया व युवा चेहरा बन जाएंगे . यदि सिंधिया के विधायक दस से भी कम सीटें लाते हैं तो उनके लिए ऊंचे दांव लगाना संभव न होगा . भाजपा और मामा भी उनके पर कतरने से न चूकेंगे . वो विधायक जिन्होंने सिंधिया के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाया वो भी उनसे किनारा कर सकते हैं .
चुनाव परिणाम तय करेंगे कि म.प्र. की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठता है .

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